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एक smile की ही तो बात है... :)

दिवाली आई... छुट्टियाँ लिए, सब अपने घरों की और चलते हुए...
कई रंगों के साथ, रंगोली के साथ... दीयों की जगमगाहट, designer candles की रौशनी के साथ... घर की साफ़-सफाई और सजावट में माता लक्ष्मी के आगमन के साथ, पूजा-पाठ और प्रसाद के साथ, पटाखों की गूँज के साथ... और न जाने कितनी wishes और blessings ...  फिर हर बार की तरह ढेर सारी खिलखिलाहट, हंसी, पुरानी यादों को ताज़ा करते किस्से... पारीबा का आराम, सारा शहर बंद, सब एक-दुसरे से मिलने में व्यस्त, कोई किसी के यहाँ की मिठाई की बात करता तो कोई किसी के यहाँ मिठाई न जाने पर थोडा-सा नाराज़ दिखा और कोई उस मिठाई को भेजवाने के इंतजाम में लग गया...
भाई-दूज भी आ गया, सुबह से बस नाना जी के घर जाने की तैय्यारी, कौन कितने बजे जायेगा, कौन किसको लेता आएगा... फिर वो पोनी खोसना, रोग-दोग, पूजा, ऐरी-बैरी की छाती कूटना, भाई को टीका करना, मुंह मीठा करना और हर कुंवारे बड़े भाई को धमकी देना की "अगले साल अकेले टीका नहीं करेंगे :) " फिर सबका खाना, फिर वही हंसी-ठिठोली,
वही मस्ती  मजाक,
वही कोई पुरानी याद,
वही किसी एक की टांग
फिर दुसरे को फसाना
खुद फंस जाने पर
कोई बहाना बनाना,
या फिर अपनी उसी बात पर
खुद भी ठहाके लगाना...
कितना अच्छा लगता है
ये रिश्तों का खज़ाना...

अरे वाह!!! ये तो बैठे-बैठे कुछ और ही हो गया...
शायद यही होती है रिश्तों की मिठास, उनका अपनापन और प्यार... जो न तो कभी ख़त्म होता है, बल्कि बढ़ता ही जाता है... और ऐसे मौकों पे बिना परिवार-रिश्तेदार कैसे रह लेते हैं लोग...
मुझे तो हमेशा से ही ताज्जुब होता है, जब भी ऐसा कुछ सुनती हूँ, "यार! हमें तो अकेले/अलग रहना ही अच्छा लगता है" "अरे यार! ये परिवारवाले भी न, अच्छा सर-दर्द हैं"... 
ऐसा क्यूं है???
वैसे भी अब सब अलग ही रहने लगे हैं, कोई यहाँ जा रहा है पढ़ाई करने, तो किसी को उसकी नौकरी घर से दूर ले जा रही है... किसी लड़की की शादी हो गई {जो जॉब न करती हो}, उसे अपने पति के साथ जाना पड़ता है... तो क्या, यदि हम एक-दो या कुछ दिनों के लिए एकदुसरे से मिलते हैं, साथ बैठते हैं, खाते-पीते हैं, घुमते-फिरते हैं... तो हम हंस नहीं सकते, उन पलों में भी शिकाहय्तें करना ज़रूरी होता है क्या? मीन-मेख निकलना, किसी की गलतियां निकलना, खुद को अच्छा बताने के लिए सामनेवाले को नीचा दिखाना... आखिर क्यों???
क्या ऐसा नहीं हो सकता की यदि हम सिर्फ कुछ पलों के लिए इकट्ठा हों तो बस मुस्कुराएं, हँसे और अच्छी-अच्छी यादें लेकर लौटें... जब भी किसी त्यौहार को याद करें तो अनायास ही एक प्यारी-सी मुस्कान हमारे चेहरे पर आ जाये... बजाय इसके की हमारा दिल दुखे की उसने हमें ऐसा कहा, या हमने उसे ऐसा कहा... कितनी छोटी-सी बात है... और हम जानते-समझते भी हैं... हमें याद भी रहती है... पर न जाने क्यों ऐन वक़्त पे हम इन्हें भूल जाते हैं...  

तो क्यों न अब सिर्फ मुस्कुराहटें फैलाएं...
सारी दुनिया को अपना बनायें...
कोई किसी से बेगाना न हो
किसी का किसी से बैर न हो
सब आपस में एक हो जाएँ...

जानती हूँ की ऐसी बातें कहना जितना आसान है, करना और फिर उन्हीं में अडिग रहना उतन ही मुश्किल... पर कुछ मुश्किल करके भी देखते हैं... कभी-न-कभी तो वो भी आसान होगा...  :)

आज इसे झेलिये... पहला रिलीज़...

आज न तो कोई कविता न ही कोई लेख...
बल्कि एक गुज़ारिश... 
एक नया पत्ता खेला है...
नया हाँथ आज़माया है...

आपमें से कुछ को परेशान कर चुकी हूँ
कुछ को परेशान करना बाकी था..
कुछ को सुना दिया
कुछ के कान खाना बाकी था...
क्या है न, आज तक सिर्फ दिमाग खाती आयी हूँ सबका...
और बताया भी, की कुछ नया try किया है...
इसीलिए सोचा की अब कान खाऊँ...


पर प्लीज़ बताइयेगा ज़रूर...
की, लगा कैसा???

हाँ...
इसमें ऋषि, प्रतिभा और के.के. का बहुत बड़ा हाँथ है...
इसमी जो कुछ,
मिठास है...
वो सिर्फ ऋषि और प्रतिभा के कारण... 
और सुन्दरता के.के के कारण...
और जी...
Sonore Unison Music का भी...

THANK YOU SO MUCH FRIENDS... :)

टीम के बारे में आप सबकुछ इस विडियो में ही पढ़ लेंगें...

शिकायतों का रिवाज़…

बड़े हमें नहीं समझते, हम छोटों को नहीं समझते...
कोई हमें नहीं समझता, हम किसी और को नहीं समझते...
बड़ी आम बातें हैं, बड़ी आम शिकायतें हैं...
अखिय ये बातें, ये शिकायतें क्यों है???


 बड़े  हमें क्यों नहीं समझते? क्यों वो हमेशा हमें गलत ही समझते हैं? क्यों उन्हें हमारे तरीकों से दिक्कत है? क्यों वो चाहते हैं कि हम हमेशा वो ही करें जो वो चाहते हैं, वैसे ही करें जैसे वो चाहते हैं? छोटों को हमेशा अपने से बड़ों से यही शिकायत होती है. और बड़े, उनके पास भी एक पुलिंदा होता है अपने से छोटों से शिकायतों का. जैसे छोटे हमेशा अपने ही मन की क्यों करते हैं? क्यों उन्हें लगता है कि हम जो कह रहे हैं वो गलत है? क्यों उन्हें हम, हमारे विचार पुराने ज़माने के लगते हैं? उन्हें क्यों लगता है कि सिर्फ उन्हें सबकुछ आता है?  वगैरा-वगैरा… अजीब-अजीब सी शिकायतें, अलग-अलग लोगों से शिकायतें. कहीं माँ-बाप को बच्चों से, कहीं बच्चों को माँ-बाप से और, कभी पति को पत्नी से तो कभी पति को , पत्नी से, कभी सम्बन्धियों से, कहीं रिश्ते से कहीं रिश्तेदारों से, और कभी दोस्तों से कभी दुश्मनों से, कभी नेताओं से कभी पड़ोसियों से… हज़ार शिकायतें, और उनके लाख बहाने।
न जाने कहाँ से आती हैं इतनी शिकायतें? क्यों करते हैं हम शिकायतें? जी, वैसे ये भी एक शिकायत ही है।
यदि सोचा जाए तो असल में शिकायतें हमारे ही दिल-ओ-दिमाग की उपज होती हैं। और सबसे ज्यादा तब जब हमें असंतोष होता है। जब भी हमें किसी की कोई बात या काम हमारे हिसाब से सही नहीं होता, या हम उससे संतुष्ट नहीं होते तभी ये शिकायत पैदा होती है या हमारा कोई काम या बात किसी को पसंद नहीं आती तो उन्हें हमसे शिकायत हो जाती है। पर जब हमें किसी से शिकायत हो तो हमें सामने वाला गलत नजऱ आता है, परन्तु जब किसी और को हमसे शिकायत  होती है तब भी हम सामनेवाले को ही गलत मानते हैं और खुद को सही… है न अजीब-सी बात। बात ये कि हम हमेशा खुद को सही और दूसरे को गलत। शायद ऐसी ही बातें, सोच और धारणा शिकायतों की जन्मदाता हैं। ये भी तो हो सकता है कि हमें किसी से शिकायत किसी गलत-फहमी की वजह से हो और किसी और को हमसे शिकवा हमारे किसी गलत कदम का नतीजा हो।
कितना अच्छा होता यदि हमें किसी से कोई भी शिकायत नहीं होती। किसी को किसी से कोई भी दिक्कत न होती। क्योंकि जब भी कहीं कोई शिकायत होती है तब एक दर्द होता है। कभी उसे जिससे शिकायत की गई हो तो कभी करनेवाले को. बनी बात है जब हम सुनते हैं कि हमारे किसी अपने को हमारी कोई बात अच्छी नहीं लगी तो हमें तकलीफ होती है, ऐसे ही सामनेवाले को भी लगता होगा। हाँ एक और बात होती है, यदि हमसे हमारी शिकायत हमारे सामने, हमारे मुंह पर कर दी जाए तो ठीक भी है, परन्तु जब भी वो किसी और के सामने और हमारे पीठ पीछे के जाए तो बहुत बड़ी गड़बड़ हो जाती है, क्योंकि कभी-कभी वो शिकायत हम तक किसी और ही रूप में पहुँचती है। पर सबसे अच्छा तो तब होता जब न असंतोष होता और न ही इन शिकायतों का बीज पनपता… न गिला न शिकवा… सब हंसते-हंसाते, खिलखिलाते मजे से जिंदगी गुजारते…
तो आज से किसी से कोई गिला-शिकवा-शिकायत मत रखिये, और यदि होती भी है तो जिससे भी शिकायत है उसी से बात करें और उसे जल्द-से-जल्द समाप्त कर दें… 



P.S. ये लेख सुरभ सलोनी में 23 अप्रैल को छपा था. 

हिंदी दिवस... भाषा उपयोग...

आज, 14 सितम्बर... हिंदी दिवस... हर तरफ सिर्फ हिंदी-हिंदी चिल्लाते लोग... इस भाषा का उपयोग करने के लिए ज़ोर-शोर से लगे हैं... बहुत अच्छा लगता है ये सब देखकर... सच है हम हिन्दुस्तानी कहलाए जाते हैं, और हिंदी हमारी भाषा है, उसका सम्मान करना चाहिए, उसका उपयोग करना चाहिए... सारी बातें एकदम सत्य एवं यदि हम ही इन बातों को न करेंगें तो कौन करेगा???
कल रात, या कह लीजिये की 12 .00 बजे, जैसे ही 14th लगी... वैसे ही हिंदी-दिवस ने अचानक से ज़ोर पकड़ा... फेसबुक पे बधाइयों का सिलसिला चल निकला... विश्व दीपक जी ने शुरुआत की... उनकी पंक्तियाँ कुछ यूं थीं...
"चलो आज आगे बढ़कर सभ्यता के माथे बिंदी दें,
संस्कृति का पुनुरुत्थान करें, भाषा को उसकी हिंदी दें... "
बस इसी सिलसिले को आगे बढ़ाते हुए मैंने भी एक छोटी-सी कोशिश की...
"अब हिंद को हिंदी का उत्थान चाहिए
हर युग की तरह, एक पूर्ण स्थान चाहिए
जो लोग अछूते हैं इस मिठास से, अभी भी
उन्हें इतिहास का ज़रा-सा ज्ञान चाहिए... "

हिंदी-दिवस पे कई पोस्ट पढ़ें, और हिंदी-उत्थान के लिए हमेशा पढ़ती भी रहती हूँ... भाषा को लेकर हमेशा कुछ-न-कुछ लिखा जाता रहता है... जरूरी भी है... परन्तु जो बात मुझे खलती है वो ये की, एक भाषा के उपयोग को बढ़ावा देने के लिए हम दूसरी भाषाओँ को गलत ठहराते हैं... खासतौर पे इंग्लिश को, उसे ही ये दोष दिया जाता है की उसके उपयोग के कारण हम हिंदी को भूलते जा रहे हैं...
बातें एक हद तक सही भी हैं, परन्तु इसमें गलती किसकी है... पोरा सिस्टम ही ऐसा है हमारा, तो क्या करियेगा??? और कई चीज़ें हैं इस सिस्टम में जो बदली भी नहीं जा सकती... और जो बात अखरती है वो "अपमान करना"... किसी भाषा या व्यक्ति या सभ्यता का अपमान करना कोई बहुत अच्छी बात तो नहीं, और ये हमें कभी सिखाया भी नहीं गया, की खुद को सही बताने के लिए हम दूसरों को गलत ठहराएं या दूसरों का अपमान करें... अब यदि मैं करेले की सब्जी नहीं खाती या हमारे घर में कोई उसे पसंद नहीं करता इसका मतलब ये तो नहीं की करेला एक बेकार सब्जी है... इसी तरह यदि हम हिंदी का उपयोग करते हैं, और दुसरे किसी और भाषा का, तो इसका मतलब ये नहीं की वो भाषा ख़राब है... 
खैर!!! ये बातें हटाते हैं, कुछ सिस्टम की बात करते हैं... सब चाहते हैं की उनके बच्चे, भाई-बहन किसी बहुत अच्छे संस्थान में पढ़ें, उच्च शिक्षा ग्रहण करें, एक बहुत ही उच्च पद के अधिकारी हों... इस सबके लिए हमें एक कड़े परिक्षा-प्रक्रिया से गुज़ारना पड़ता है... जिसमें सबसे पहले एक प्रश्न-पत्र हल करना पड़ता है, और फिर साक्षात्कार की प्रक्रिया... अब यदि हम technical-studies की बात करें तो, वो पढाई ही पूरी-की-पूरी इंग्लिश में होती है, तो क्या हम पढाई छोड़ दें??? फिर आती हैं जॉब की बारी, तो technical-studies के बाद आपसे उम्मीद की जाती की आप इंग्लिश में ही बात करेंगें, न भी करें तो कोई दिक्कत वाली बात नहीं है... और हमारे देश की सबसे अच्छी सर्विसेस मानी जातीं हैं "पब्लिक सर्विसेस" {I.A.S.,I.P.S.,I.P.S,I.F.S.,I.Fo.S.,I.E.S., etc.} और इनके लिए तो आपको भाषा ज्ञान बहुत ही जरूरी है, फिर चाहे वो हिंदी हो, इंग्लिश हो या फिर आपकी क्षेत्रीय भाषा... परन्तु मुझे उसमें भी दिक्कत नहीं है... ये तो सभी जानते हैं... मेरा मेन प्रोब्लम है की हम किसी को गलत क्यों बोंले???
भारत एक बहुभाषी राष्ट्र है, हर भाषा को उतना ही सम्मान, उतना ही आदर जितना किसी दूसरी भाषा को... हर कदम में जहाँ पानी और भाषा बदलती हैं वो हमारा राष्ट्र है... अब उदाहरण के लिए, हमारी क्षेत्रीय भाषा "बघेली" है, परन्तु उसे भी लोगों ने मोडिफाई कर लिया... बघेली खासतौर पे विन्ध्य-क्षेत्र में बोली जाती है, जिसमें रीवा-सीधी-सिंगरौली-सतना-शहडोल शामिल हैं... यहाँ सभी जगह बघेली बोली जाती है, परन्तु हर जगह के हिसाब से उसमें मोडिफिकेशन है जैसे रीवा और सतना सिर्फ 52 km की दूरी पर है, भाषा कहने को बघेली ही है परन्तु लहज़ा और कुछ शब्दों का उपयोग बिलकुल अलग है... तो जहाँ इतनी सी दूरी में भी ऐसी भिन्नता पाई जाए, वहां आप कैसे कह सकते हैं की हर कोई एक भाषा का उपयोग कर रहा है... जी लिखने में बेशक सब एक जैसी ही हिंदी का उपयोग कर रहे हैं... और यदि बात क्षेत्र की हो तो केरल जैसी जगह में हम क्या करेंगे, क्योंकि वहां के तो कल्चर में ही इंग्लिश है... वो यदि अपने भगवान् को भी याद करते हैं तो इंग्लिश में ही करते हैं...
मेरी सोच मुझे एक बात और सोचने के लिए मजबूर कर देती है... जहाँ इतने लोग, इतनी भाषाएँ, इतनी भिन्नता पाई जाए वह यदि एक मंच ऐसा हो जहाँ हम सब एक-दुसरे से जुड़ें, अपनी भिन्नताओं को छोड़ सब एक जैसे ही हो जाएं तो क्या वो गलत है... क्योंकि मेरी नज़र में वो सारी बातें जो भेद-भावना को बढ़ावा दें या भेदभाव करें वो गलत हैं...  और हमें तो हमेशा ही मिलजुल के रहना सिखाया गया है... और यदि हिंदी को बढ़ावा देना है तो प्लीज़ उसके लिए किसी और भाषा का अपमान न करें...

एक बात और, मेरा मानना ये भी है की भाषा कोई भी हो, बस इतनी सरल हो की हर किसी के समझ में आ जाए... शब्द इतने क्लिष्ट न हो की हर शब्द के साथ शब्द-कोष खोलना पड़े... की पता चला, कुछ दिन तो ठीक परन्तु उसके बाद लोग हमें पढना और फिर हमसे बात करना भी छोड़ दें... इसीलिए बातें सरल भाषा में हों तो ज्यादा आसानी होती है... वरना litrature की कमी कम-से-कम हमारे देश में तो नहीं ही है...


P.S. कृपया मेरी इस पोस्ट को ये न समझा जाए की मेन इंग्लिश की पैरवी कर रही हूँ... मुझे कुछ बातें अखरी और मुझे लगा की आज सबसे अच्छा दिन है अपनी इस बात को आप सबके समक्ष रखने का...

माना कि ये मेरा बचपना है...

अपनी हर अच्छी-बुरी, ख़राब-नायब बात लेकर यहाँ आ जाती हूँ... इसीलिए आज भी आ गई... 
सब कहते हैं कि अभी भी मुझमें बचपना है...
जब tiger ख़तम हुआ तब मैं छोटी थी तो मान लिया, कि रोना जायज़ था... kity के ख़तम होने में भी सभी ने मान लिया क्योंकि उसे मेरी best-friend {शिखा} ने gift किया था... पर जब tony ख़तम हुआ तब जरूर सभी ने ज़रा-सा कहा... पर सिर्फ ज़रा-सा... क्योंकि उसे भी शिखा ने ही गिफ्ट किया था... पर अब... अब जब वो गई... और मेरा उदास चेहरा सबने देखा तो कुछ मुझे समझाने लगे और कुछ ने मज़ाक भी उड़ाया कि "अभी भी बच्ची है... बड़ी हो जा... तुझे और दिला देंगें... अब तो खुद ही खरीद सकती है..." और भी न जाने कितनी बातें और कितने तरह की बातें... यहाँ तक कि ये भी कहा कि चिंता मत करो, तुम्हारी शादी में तुम्हें कुछ और नहीं देंगे, वही गिफ्ट कर देंगें"...
माना कि मैं खुद भी खरीद सकती हूँ, या कोई नई और भी ज्यादा अच्छी आ जायेगी, पर क्या वो सारी यादें आयेंगीं जो उसके साथ जुडी हैं... कहते हैं teen-age सबसे ख़ास और बड़ी ही अजीब age होती है... उसमें सब-कुछ अच्छा ही लगता है, और मेरी उस उम्र की सबसे ख़ास और करीबी वही तो थी... मेरे सारे राज़, घूमना-फिरना, बदमाशियां-शैतानियाँ... all-in-all सबकुछ वो जानती थी... यहाँ तक कि मेरे कई ख्वाब जो मैंने कभी किसी के साथ नहीं share किये वो भी उसे पता थे...
अरे sorry sorry ... पूरी राम-कथा पढ़ दी मगर वो है कौन ये तो बताया ही नहीं... वो है मेरी प्यारी-सी kinetic honda... zx... white colour... MP20 JA 7513... मेरे सारे दोस्त उसे मेरी उड़न-खटोला कहते थे... मेरे भाई का नाम भी लिखा था उसमें... PRINCE
sorry... है नहीं थी... :(
कहीं उसकी एक फोटोग्राफ भी है... मिली तो पोस्ट जरूर करूंगी...
सच ऐसा लग रहा है जैसे ज़िंदगी का एक हिस्सा चला गया...  :(
पता है... आप लोग भी पढ़ कर यही कहेंगें कि ये मेरा बचपना है...
मेरी और मेरे भाई की दोस्ती बढ़ने में भी उसने बहुत मदद की... हमारे घूमने का राज़ भी वही जानती थी... कई गोल और गोल-गप्पे की कहानियाँ, ice-cream, पेस्ट्री, और भी न जाने क्या-क्या... सब जानती थी वो...
और जबलपुर की सड़कों में कहाँ कितने चक्कर मारे हैं... सदर, गोरखपुर, जलपरी से लेकर घंटाघर, कमनीय गेट तक की सड़कें नापी हैं मैंने उससे... उसने सबसे ज्यादा साथ निभाया था जब हम जबलपुर में ही थे, मम्मी को अटैक आया था, और तभी पापा का ट्रान्सफर हो गया था... और सरकारी नौकरी की हालत तो बस... यदी आपकी जगह में आनेवाला अधिकारी अच्छा है तब तो ठीक वर्ना फ़िर न तो वो खुद support करता है और न ही किसी को करने देता है... तभी शैली; मेरी छोटी बहन, अरे हाँ कल {8 सितम्बर} उसका जन्मदिन भी है,; उसे स्कूल ले जाना-ले आना पड़ता था... भाई के लिए बस थी... उसने बहुत support किया था... और उसी समय था जब मुझे अपने दोस्तों की पहचान हुई थी... और एक बात, उस समय मेरी प्रिंसिपल "प्रकाशम मैडम" मेरे teachers ने बहुत support किया था... सब कहते थे, तुम मम्मी को देख लो, यहाँ कि चिंता मत करो... ये सब मेरे 10th क्लास की बात है... स्कूल से पूरी permission थी, क्योंकि CBSE बोर्ड था तो टेस्ट वगैरा की झंझट नहीं थी... और ये भी था कि मैं कभी भी झूठ नहीं बोलती थी अपने teachers से... और वो सब मुझपे भरोसा भी करते करते और मानते बहुत थे...  Thank you so much all... :)
पर सच उसका जाना बहुत अखरा... जब तक नहीं गई थी, तब एक उम्मीद थी, पर कहते हैं न कि कभी किसी से कोई उम्मीद मत करो वर्ना तकलीफ होती है...जब वो जा रही थी तब मैं उसे जाते भी नहीं देख पाई... अन्दर आके अपने रूम में जाकर खूब रोई... लगा कि जाऊं, जो ले गए हैं उनके सामने विनती करके उनसे मांग लूं... पर फ़िर लगा कि नहीं, पापा लोगों ने उन्हें दे दी है... उनकी बात का मान ज्यादा है... इसीलिए ये भी नहीं कर पाई... शायद इस बात का भी दुःख उस दुःख को बढ़ा रहा था कि पहली बार मैं उसके लिए कुछ नहीं कर पाई...
MISS YOU SO MUCH DARLING... :(

शायद उनके परिवार में किसी को Cancer नहीं हुआ...

जी... सही है... जो कुछ मैंने पिछले दो-तीन दिनों में पढ़ा, उससे तो यही लगता है की उनके परिवार में किसी को cancer जैसी घातक बीमारी का सामना नहीं करना पड़ा... और इसिये शायद वो इसका दर्द नहीं जानते...
वैसे तो मुझे लगता है कि, ये बीमारी कभी किसी को न हो... दुश्मन को भी नहीं... क्योंकि मैंने इस बीमारी को बहुत करीब से देखा है और अपने दिल के बहुत करीब तीन जन खोये हैं... बब्बा{दादा जी}, नानी और बड़की अम्मा... 

बहुत ही दर्द होता है जब आपका कोई अपना आपको छोड़ के चला जाता है... और खासतौर पर जब वो आपकी ज़िंदगी में बहुत ख़ास स्थान रखते हों... दादा-दादी या नाना-नानी का साथ, आशीर्वाद, प्यार-दुलार छोट जाए न, तो सिर्फ यादें और आंसूं रह जाते हैं... I love you all so much... miss you too...  :(
खैर... आप लोग सोच रहे होंगें कि आज अचानक ये बातें कहाँ से आ गईं... इतनी पोस्ट्स में मैंने कभी ये बातें नहीं कहीं, और आज अचानक...
जी, अचानक...
हुआ यूं कि, दो दिन नेट-कनेक्शन ख़राब होने के कारन मैं ऑनलाइन नहीं आ पाई, और जब कल आई तो gmail , facebook etc एक्सेस किया... ढेर सारे मेल्स और ढेर सारे notifications ,...  सब देख रही थी... तभी नज़र गई सोनिया गांधी जी के ऑपरेशन की खबर की details के बारे में... खासतौर पर "Times of India  और economic -times की रिपोर्टिंग पर, क्योंकि ऑपरेशन के लिए बाहर जाने की खबर तो T.V. पर मिल गई थी... जहाँ उन्होंने बताया था कि सोनिया गांधी जी को New York`s Memorial Sloan-Kettering Cancer Center, में एडमिट किया गया है, और एक बहुत ही अच्छे oncologist उनका इलाज करेंगें... इन सब का मतलब तो यही निकला कि उनके cancer -treatment दिया जा रहा है... पहली नज़र में तो यही समझ में आता है... और उसके नीचे ढेर सारे likes और कमेंट्स... न रहें होंगें तब भी करीबन 175 -200  तो पक्के थे... ख़ुशी हुई कि चलो कम-से कम हम अभी भी लोगों की केयर करना जानते हैं... मन हुआ कि पढ़ा जाए कि कैसी शुभकामनाएं दीं हैं लोगों ने, कभी-कभी ऐसे ही कमेंट्स में लोग कुछ बहुत अच्छी बातें सिखा देते हैं... और कमेंट्स पे क्लिक किया... और जो पढ़ा, वाह जी वाह... बहुत खूब... वाकई बहुत कुछ सीख लिया...
कमेंट्स देनेवालों में कुछ महानुभावों ने सोनिया जी के बाहर जाने के कयास लगे थे कि pregnant हैं, उन्हें AIDS हो गया है, कुछ ने शोक जताया था कि वो मर क्यों नहीं जातीं... हाँ कुछ लोगों ने जरूर कहा था "all the luck" "get well soon" पर ऐसे लोगों की संख्या सिर्फ चार या छः थी... बाकी तो सभी एक ही राग गा रहे थे... यहाँ तक कि लडकियां भी... और इनमें से कई लडकियां राहुल गांधी जी पे फ़िदा भी थीं, क्योंकि वो वहां उनके handsome होने के गुणगान कर रहीं थीं...
वाह... मानना पड़ेगा हमें... कितने महान हैं हम सब...
सच मानिये, मैंने सारे कमेंट्स पढ़े, और पढ़ते-पढ़ते रोई भी... हमारे यहाँ किसी को कैंसर होने की खबर भी आती है तो सभी के मुंह से एक ही बात निकलती है "भगवान ये बीमारी दुश्मन को भी न दे"... शायद इसीलिए, क्योंकि हमनें अपने खोये हैं... और न सिर्फ इसी बीमारी के लिए बल्कि कहीं की कोई भी बुरी खबर सुनते हैं तो यही कहते हैं... और माना कि उन्होनें किसी अपने को नहीं खोया,{ भगवान करे कि सभी के अपने सभी के पास रहें पर समय-चक्र का कुछ नहीं किया जा सकता परन्तु कोई इस तरह न जाए} पर क्या किसी के दर्द को समझने के लिए उस दर्द से गुजरना जरूरी है? या संवेदना, भावना नाम की चीज़ें हमारे अन्दर से ख़त्म हो गईं हैं? या हम अन्दूरनी तौर से पाषाण युग में पहुँच गए हैं?
सच... बहुत ही ज्यादा ख़राब लगा...
कुछ ही दिनों में हम अपना स्वतंत्रता-दिवस मानाने वाले हैं... यानी एक और साल आज़ादी के नाम...
वाकई हम कुछ ज्यादा ही आज़ाद हो गए हैं... किसी को कुछ भी बोलने की आज़ादी ही नहीं, बल्कि बुरा, गन्दा, ख़राब और घटिया बोलने में हम पीछे नहीं हटते... 
पर क्या हमारे अन्दर से आत्मीयता ख़त्म हो चुकी है? 
मन तो हो रहा था कि उन सब को सामने बिठा कर चिल्लाऊं और पूछूं कि क्या यही हमारे संस्कार हैं या यही तालीम मिली है हमें? इन्हीं सब लिए हमें गर्व होता है कि हम भारतीय हैं?
अच्छा चलिए एक बात मान भी लें कि सोनिया जी हमारे भारत की नहीं हैं, मेहमान है, विदेशी महिला हैं... और भी ऐसे ही मिलते-जुलते तथ्य... तो फिर "अथिति देवी भवः" भूल गए या आजकल हम भगवान को भी उल्टा-सीधा बोलने में भी नहीं चूकते... और यदि इस बात को किनारे भी कर दिया जाए, तब तो जिन विदेशी महिलाओं के साथ बलात्कार या ठगी की घटनाओं को अंजाम देने वालों को हमें राष्ट्रीय पुरस्कार देना चाहिए, ब्रवेरी अवार्ड से सम्मानित करना चाहिए, उनके सम्मान में उनके जन्मदिवसों में छुट्टियां घोषित होनी चाहिए...

क्या हो गया है हमें???
ये कहाँ आ गएँ है हम???
या शायद मेरे घरवालों की गलती है जिन्होंने हमें नए और मोडर्न ज़माने का नहीं बनाया... समय के साथ चलना तो सिखाया परन्तु यूं बे-ग़ैरत होना नहीं सिखाया... हमें उन्होंने हमेशा यही सिखाया कि "बेटा, जो तुमसे बड़ा है वो बड़ा है, उसे सम्मान देना ही तुम्हारा कर्तव्य है" कितने पुराने विचारों के हैं ये लोग... और हमें भी वही बना दिया... पर हम खुश हैं क्योंकि आज हमें खुद से नज़रें चुरानी पड़ती, और न ही कभी हमारे घरवालों को हमारी वजह से सर झुकाना पड़ता है... हम पुराने विचारों के ही सही, और दूसरों की तरह कूल" न सही पर सर उठा कर जीते हैं और खुश हैं...

हो सकता है कि आप लोगों में कई लोग मुझसे सहमत न हों... कोई बात नहीं... वो आपके अपने विचार हैं... आप अपनी असहमती बतलाने के लिए आज़ाद हैं... हो सकता है कि मैं कहीं गलत हूँ, सुधार की जरूरत हो तो जरूर बताएं...

पिछले कुछ ख़ास दिन...

आज बहुत दिनों बाद लिखने आई हूँ... या कहूँ कि आ पाई हूँ...
याद भी नहीं कि कितने दिन चाह कर भी नहीं लिख पाई...
पहले घड़ी - नक्षत्र जैसी बातों पर यकीन नहीं होता था, पर अब लगने लगा है कि ऐसी चीज़ें होती हैं... इनके भी मायने होते हैं...
जिस दिन "वर्ल्ड कप" का फाईनल था, २ अप्रैल, उस दिन हमारी यात्रा शुरू हुई भोपाल के लिए, और बस तभी से सब-कुछ शुरू हो गया... मेरा मोबाईल चोरी होना, भोपाल-इंदौर का सफ़र इतना हेक्टिक होना, मेरी रिपोर्ट्स, पहली बार एम.आर.आई. होने में इतनी दिक्कत, डॉ. से डांट, सरवाईकल, और भी न जाने क्या-क्या??? परन्तु जहाँ इन सब का अंत हुआ वो सबसे ज्यादा ख़राब, जब लौटना था, ६ अप्रैल, हबीबगंज स्टेशन में माँ का पैर ट्विस्ट होना, उनका गिरना और हाथ-पाँव दोनों में फ्रैक्चर... :(
बस माँ का हाथ-पैर फ्रैक्चर हुआ नहीं कि सारे काम बंद, एट-लीस्ट मेरा तो सब काम ही रुक जाता है... बड़े होने का इतना फायदा तो होता ही है कि आप अपने छोटे भाई-बहन को इतना कह सकते हो... भाई से बहस भी हो गयी पर जीती मैं ही... खैर, दो दिन हुए पक्का प्लास्टर चढ़े, और तभी से माँ के पास से थोडा-सा वक़्त भी मिल जाता है... वर्ना, पहली बार माँ को बच्चों जैसे जिद करते देखा, और जो कभी शांत नहीं रहती थीं, लगातार लेटे रहने के कारण थोड़ी-सी चिडचिडी भी हो गईं थीं... पर अब सब मस्त मिजाज़ में वापस...
पर एक कहावत उनकी ज़ुबांपर रहती है, नोटिस पापा ने किया और माँ ने याद कर लिया... कहती हैं जो बड़े- बुजुर्ग कह गए हैं वो एकदम सही है...
"पारीबा, चौथ, चौदस, नवमी.... ये रिक्ता तिथियाँ हैं... इन दिनों यात्रा करने से पहले देख-भाल लो... और पारीबा यदि मंगल को पड़े तो बिल्कुल भी यात्रा शुरू न करें..."
हर बार की तरह हमारा महान परिवार फ़िर एक साथ... सब परेशान थे, पर साथ रहते दिन कैसे बीत रहें हैं पता ही नहीं रहा... लगता है जैसे कल-परसों ही घर लौटे हों... और हैं भी इस समय रीवा में, माँ-पापा दोनों के मायके और रिश्तेदार यहीं बसे हैं, तो सुबह से आने-जाने वाले भी... और उनके अजीब से किससे कहानियों के साथ हमारा मनोरंजन भी... सबसे मज़ा तो रात में ११-१२ के बाद आता है, जब खाना-वाना खा कर हम सब दिनभर की बातें और अपने-अपने अनुभव शेयर करते हैं, कुछ मोनोएक्टिंग एक्सपर्ट्स तो मस्त कॉपी भी करते हैं, और बाउजी या चाचा लोगों की नींद ख़राब न हो इसीलिए हम लोग उन्हें सबसे ऊपर वाले फ्लोर में सोने भेज देते हैं, तो बस फ़िर क्या सोते-सोते ३-४ तो आराम से बजते हैं... और हमेशा की ही तरह इस परिवार की खासियात, हर मुसीबत यूँहीं हंसते-हंसते निकल जाती है, और हम सब कुछ-न-कुछ सीख रहे हैं... यदि मैं अपनी बात कहूँ तो मैं आजकल दुनियादारी सीख रही हूँ... रिश्तेदारी निभाना तो हमें बोलने से पहले ही सिखा दी जाती है... और इस बार तो सबसे ख़ास, मैं और माँ, एक-दूसरे के और ज्यादा करीब आ गए... :)
और सबसे ख़ास तो तब लगता है जब लोगों के ई-मेल्स पढ़ती हूँ, माँ के लिए शुभकामनाएं और मेरे लिए चिंता... और मजेदार तो वो जिन्हें मेरा मोबाईल चोरी होने की खबर नहीं थी, और न ही उनके पास मेरा कोई दूसरा नंबर... कुछ लोग तो पुलिस-स्टेशन में गुमशुदा की रिपोर्ट लिखवाने जा रहे थे...
चलिए आज की मोहलत समाप्त... कुछ पढ़ना भी है...
तो चलती हूँ... फ़िर मिलूंगी जिस दिन वक़्त मिलेगा...

ये एक साल...

21 फरवरी 2010...
1st post... :- DESIRES FROM THE ONE YOU LOVE...
जब मैनें इस ब्लोगिंग की दुनिया में कदम रखा...
न रास्ते पता, न मंज़िल...
न ही यहाँ के तौर-तरीके...
न लोगों से पहचान...
न ही कोई बैकग्राउंड...
न लिखना आता था, न ही कोई बतानेवाला की कैसे लिखा जाता है...
बस एक पेन, कुछ सपने और
लिखने का शौक लेकर आई थी...

एक डर था की कैसे लोग होंगें...
अपनायेंगें या नहीं???
मुझे इस दुनिया में अपनी जगह बनाने देंगें या नहीं???
पर दोस्त थे...
एक आदित्य और एक शैलेश...
वो इस दुनिया में कदम रख चुके थे...
आदित्य जी ने तो मुकाम भी बना लिया था...
यहाँ आकर लिखने की सलाह भी कुछ दोस्तों ने ही दी थी...
सो मैं अपना बोरिया-बिस्तर उठा चली आई...

जब यहाँ पहुँची...
जितना सोचा था उससे कहीं बड़ी थी ये दुनिया...
सोच थी की लिखनेवाले तो सभी अच्छे ही होते हैं...
पर वो भ्रम भी टूटा...
पर...
उसकी एवज मैं बहुत से अच्छे और अच्छे लोग मिले...
जिनसे साथ माँगा...
उन्होंने पूरा साथ दिया
जिनसे समय माँगा...
दिन-रात दे दिए...
कुछ अन्जाने से लोग मेरे अपने हो गए...
एक अलग ही रिश्ता कायम हो गया इस दुनिया से...
यहाँ एक छोटा सा आशियाना मेरा भी हो गया...

आप सभी का बहुत-बहुत शुक्रिया, जिन्होंने मुझे ये सफ़र यहाँ तक तय करने में हमेशा ही सहयोग प्रदान किया...
इस आशीर्वाद की हमेशा जरूरत रहेगी...
और बहुत ज्यादा रहेगी... :)












जानती हूँ मुझे ये पोस्ट 21 तारिख को ही लिखनी चाहिए थी... पर सीढियों से गिरजाने के कारण असमर्थ थी...
इसीलिए... आज कुछ ठीक लगा... हिम्मत जुटा कर लिख दी...

सीध-साध हिंदी...

या ऊँ लिखिन दोहा
या फेर लिखिन चौपाई...
भक्तिरस मा लीन रहें
ता कईसन करतें बुराई?

अईसन डूबे देउता मा
रचि डारिन मानस...
कोऊ लिखिन रामायण
ते कोऊ महाभारत...

कोऊ अईसन लीन भा
के आपन घर-दुआर दीन्हिस छाँड़...
कोऊ बनीं दीवानी मूर्ति देख के
ते कोऊ चल दीन्हीहीं पूजै पहार...

बाह रे बड़े-बड़े रचियता
ते बाह रे ओन्खर गाथा...
सुन-सुन ओन्खर किस्सा कहानी
भैया चकराय लाग हमार माथा...

"अम्मा तैं दई दे हमहीं पूरी-तरकारी
जाहे मा पूर सार है"
हमसे बनत ही सीध-साध हिंदी
बाकी हमारे लाने सब बेकार है...


*ये हमारी क्षेत्रीय भाषा "बघेली" में मेरी पहली कोशिश थी... ये भाषा सरल एवं हिंदी से मिलती-जुलती है इसीलिए मैंने अर्थ नहीं लिखे, परन्तु यदि किसी को कहीं किसी शब्द का अर्थ समझने में दिक्कत हो तो कृपया बता दें... उम्मीद है की मेरी पहली कोशिश आपको पसंद आयेगी...
**मेरा किसी को कोई अघात पहुँचने का मकसद नहीं है... परन्तु यदि किसी को कोई बात ख़राब लगे तो क्षमा कीजियेगा...

मन छू लिया इस वीडियो ने... जरूर देखिये...

आप सभी को मेरा नमस्कार...
आज मैं कोई रचना या कोई और बात लेकर यहाँ लिखने नहीं आई हूँ... बल्कि आप सभी के साथ एक वीडियो शेयर करना चाहती हूँ... हो सकता है कई लोगों ने इसे देखा भी हो पर जिन्होंने नहीं देखा है, प्लीज़ देखिये और बताइए पसंद आया या नहीं...
पहले मन आप लोगों को इसके बारे में कुछ जानकारी दे दती हूँ... ये पाकिस्तान के एक T.V.Series से है... उस Series का नाम है "Coke Studio"... ये तीसरे सीजन का हिस्सा था... अब आप सोचेंगें कि ये कैसा प्रोग्राम है?
तो जैसा कि इसके नाम में studio है, ये लोग अलग-अलग जौनर के गायकों को बुलाते हैं, या फ़िर किसी एक गायक ने दूसरे को न्योता दिया साथ में गाने का, फ़िर कोई गाना डिसाइड होता है जिसका एक लाईव जैमिंग सेशन होता है...
इस वीडियो में जोश ग्रुप और शफ़क़त अमानत अली जी हैं... दोनों ही अपने जौनर में महारथी हैं...
एक और गुजारिश है कि आप बोल ध्यान से सुनें... बहुत ही प्यारे हैं...
हो सकता है कि कुछ लोगों को ये पसंद भी न आए... तो कृपया वो लोग भी बता दें... क्योंकिं जरूरी तो नहीं कि जो चीज़ मुझे पसंद हो वो हर किसी को पसंद हो...
हाँ एक और जरूरी बात... ये वीडियो मुझे मेरे भाई ने दिखाया था... पूरे भरोसे के साथ कि मुझे पसंद आएगा... क्योंकिं मेरी और उसकी पसंद में बहुत फर्क है...
तो आप वीडियो देखिये और एन्जॉय किजीये...


वीडियो के लिए प्लीज़ यहाँ पर क्लिक करें...

लम्हें...

कभी रूमानी
कभी बेईमानी
कभी धोखा
कभी ज़िन्दगानी...

कभी हँसते-गाते
कभी खाते-पीते
कभी पन्ने पलटाते
कभी कलम घिसते

कभी तेरी बाँहों में
कभी तेरी आँखों में
कभी तुझसे बतियाते
कभी तेरी यादों में

कभी खूबसूरत
कभी दर्द
कभी गुजारते-गुजारते थक गए
और कभी वो लम्हों में ही गुज़र गए...

पिछले दिनों...

पिछले कुछ दिन बड़े अजीब बीते...
बहुत सारे परदे उठे,
बहुतों की सच्चाई सामने आई...
पहले तो यकीन नहीं हुआ,
कि ये वाकई सच है...
दिमाग ने मान भी लिया...
पर दिल को समझाना जरा मुश्किल था...
धीर-धीरे वो भी समझ गया

लगा जैसे किसी जोर का तमाचा मार
नींद से जगा दिया दिया हो मुझे...
और एक सुन्दर-सा ख्वाब
जो देख रही थी मैं
उसे तोड़ दिया हो
चकनाचूर कर दिया...
तिमिर से निकाल मुझे
अचानक
दोपहर कि चिचालती धुप में ला खड़ा किया हो...
आँखे भी मिलमिला गयीं थीं...

पर धीर-धीरे उन्होंने भी
साचा के उजाले को,
उसकी तपन को अपना लिया...

सबसे बड़े आश्चर्य की बात
न जाने कहाँ से मुझमें
ये सहनशक्ति आ गयी
कि मैं उन चेहरों को
देख मज़े ले रही थी
मुस्कुरा रही थी
मुझे खुद नहीं पता कि
मेरा comfort-zone
अचानक इतना बड़ा कैसे हो गया...

पर...
जो हुआ
बहुत खूब हुआ
अच्छा हुआ...
मुझे इस यथार्थ को जाने का संयोग प्राप्त हुआ...

उन सभी चेहरों को
उन मुखौटों को शुक्रिया...

बनारस...

ये है एक पावन धरती
यहाँ है गंगा, भोलेनाथ
और न जाने कितनी संस्कृतियों का मेल...
मत करो ये शोरगुल, ये धमाके
और ये लाश बिछाने का खेल...
कुछ और नहीं कर सकते
तो इतना ही कर दो
अपने नाम के आगे से ये "INDIAN" ही हटा दो...

चलो थोड़े स्वार्थी हो जांए...

आज की इस दुनिया और इस life style में इतने busy हो गए हैं की हमारे पास अपने लिए ही वक़्त नहीं रह गया है... जिसे देखो बस भाग रहा है या एक fixed life जी रहा है, सब कुछ time-table के हिसाब से... जिंदगी न होकर train हो गयी है, चढ़ा दिया पटरी पर, और फुरसत... बस चली जा रही है... हम सबका ख्याल रखते सिवाय खुद के... पर ऐसा क्यूँ? क्या वाकई अब हमें २४ घंटे भी कम पड़ने लगे हैं या जो भी हम करते है वो बस इस rat-race में बने रहने के लिए...
कितना मुश्किल है न आज की इस दुनिया में सफल होना... हर competition में अपने आप को prove करना , पहले school, फिर college, फिर job और फिर घर... सबसे पहले एक position बनाने की चिंता और फिर उसे maintain करने की... वाकई कितनी कठिन हो गयी है हमारी life... या कहे तो हमारी so called life...
और फिर जो भी वक़्त बचा इस rat-race से वो हम दे देते है अपनों को, वो जो हमारे करीब हैं... आख़िर उनका भी तो कुछ हक़ है हमारी ज़िन्दगी में... उनकी ख़ुशी, उनका दुःख... ये सब भी हमारी ही जिम्मेदारियों का ही एक हिस्सा है... और फिर ये keyboard, जहाँ हम web-pages में जहा हम कभी कोई रिश्ता निभा रहे होते है तो कभी ख़ुशी और शांति तलाश रहे होते हैं... पर इन सबके बीच हम कहाँ हैं? एक ऐसा पल जिसे हम पूरी तरह अपना कह सकें... क्या कभी यूँ ही बैठे-बैठे आप खुद miss नहीं करते, क्या कभी बस यूँ ही बिना बात के मुस्कुराना या यूँ ही खुश जाना या कोई अनजानी-सी या कोई भूली-बिसरी धुन गुनगुनाने का मन नहीं होता? होता है न... पर हम नहीं करते... क्यों??? क्योंकि उससे हम अपने लक्ष्य से भटक सकते हैं... हमारा time-waste हो सकता है...
क्या याद है की last-time आप कब खुश हुए थे, या क्या ऐसा किया था जिससे आपको ख़ुशी मिली हो? last-time कब किसी दोस्त को बिना काम के, बस यूँ ही हाल-चाल जानने के लिए phone किया था...
या कब e-mail forward करने की वजाय बस यूँ ही "hii" "how are you" . type करके भेजा था... कर सकते थे... पर नहीं किया... क्यों... time-waste... क्या वाकई अब हमारी खुशियाँ हमारे लिए सिर्फ time-wastage बन कर रह गयी है... यही रह गयी हमारी हमारी खुशियूं की पहचान...
नहीं न...
तो चलो एक शुरुआत करते हैं... थोड़े से selfish हो जाते हैं... हर दिन... यानी २४ घंटो से कुछ पल चुराते हैं... जो सिर्फ हमारे होंगे...

तो चलो ...
थोड़े स्वार्थी हो जाते हैं
कुछ पल चुराते हैं....
बहुत मुस्कुरा लिए औरों के लिए ,
चलो एक बार अपने लिए मुस्कुराते हैं...
बहुत हुआ दूसरों की धुन गुनगुनाना,
चलो अब अपनी एक धुन बनाते है...
चलो कुछ पल चुराते हैं...
थक गए ये हाथ कागज़ में sketch बनाते-बनाते,
चलो अब आसमाँ में उंगलिया चलाते हैं...
बहुत हुआ एक ही ढर्रे में चलना,
चलो अब कुछ नया आज़माते हैं...
चलो कुछ पल चुराते हैं...
जाने-पहचाने रास्तों पे चलना, बहुत हुआ,
चलो कुछ अनजान रातों की ओर कदम बढ़ाते हैं...
वही पुरानी recipes, वही पुराना स्वाद,
चलो कोई नया ज़ायका आज़माते हैं...
चलो कुछ पल चुराते हैं...
अपनों से अपनापन निभाते ज़माने हो गए,
चलो किसी अजनबी को अपना बनाते हैं...
थक कर चूर हो गए यूँ ही भागते-भागते...
चलो कुछ पल आराम के बिताते हैं...
चलो कुछ पल चुराते हैं...

P.S. :-
ये मेरी एक पुरानी पोस्ट है... न जाने क्यूं आज इसे पढ़कर फ़िर से आप लोगों के साथ बांटने का मन हुआ... सो पोस्ट कर दी...

लाली देखन मै भी चली...

"लाली मेरे लाल की, जित देखूं उत लाल...
लाली
देखन मै गयी, मैं भी हो गयी लाल..."


पंक्तियों को पढ़
सज-सँवर,

प्रेम-रस में डूब कर...
अपने नन्हें हाथों में
कुछ कोमल सपनों की पोटली ले
निकली थी

मैं भी अपने लाल को खोजने...

बाहर आकर देखा
तो मंज़र कुछ और ही था...

हर दरवाज़े पर एक लाल खोपड़ी टंगी थी...
और नीचे लिखा था... DANGER... खतरा...
प्यार के रास्ते में ख़तरा???

बात समझ के परे थी ...
मैं आगे चल पडी...


जो दिखा...
उसमें...
कहीं लडकी होने के कारण

बुरी नीयतों का खतरा...
कहीं जात-पात का खतरा
कहीं रिवाजों के टूट जाने का खतरा...
तो कहें ऊँच-नीच का खतरा

कहीं सह्गोत्री होने के कारण
ऑनर-किलिंग का खतरा...
तो कहीं नकास्ल्वाद,
आतंकवाद का खतरा...
या फ़िर,
प्रादेशिक अलगाव या भाषा अलग होने से
पहचाने जाने का खतरा...

कहीं धोखे-से किसी दरवाज़े को

छूने की कोशिश भी करती...
चरों ओर से खतरनाक आवाज़ गूंजती...
"खतरा... ख़तरा... खतरा..."
इतना सुन
ऐसा लगा मनो
फट पड़ेंगीं दिमाग की नसें...
पागल हो जाउंगी मै इस गर्जना से...
और टूट जायेंगे मेरे सपने सच होने से पहले...

इसी डर से समेट ली
अपनी पोटली अपने सीने में

और चीख पड़ी थी ज़ोर से...

पर ध्यान आया अचानक
अपने नन्हें सपनों का
फटाफट खोली वो पोटली...

पर...
तब तक...
वो त्याग चुके थे अपने प्राण
और मैं नहा रही थी उनके लहू से...


तब याद आया कि...
लाल रंग केवल प्रेम का नहीं
"खतरे" का सूचक भी है...
और अब उन पंक्तियों का मतलब मैं समझ भी गयी थी
और उन्हें आज के युग में चरितार्थ भी कर रही थी...

वाकई...

"लाली मेरे लाल की, जित देखूं उत लाल... लाली देखन मै गयी, मैं भी हो गयी लाल..."

आ गया प्रीलिम का रिसल्ट... ;)

जैसा की मैंने आप सभी को अपने प्रीलिम इंटरव्यू के बारे में बताया था... तो बनी बात है की आज नहीं तो कल रिसल्ट भी आना ही था...
फ़ोन बजा, माँ ने उठाया...
चाचा का था...
"हाँ अरुण"... माँ न कहा, अरुण मेरे तीसरे नंबर के चाचा का नाम है, और वो ऐसे मामलों में हमारे सबसे करीब हैं...
तो चाचा और माँ की जो भी बात हुई हो। मुझे जो पता चला वो ये, कि लड़के की तरफ से हाँ है, न तो उसकी कोई डिमांड है और न ही और कोई मांग। बस वो मुझसे बात करना चाहता है और चाहता है कि मै शादी के बाद जॉब न करूँ।
जॉब करूँ? पर क्यूं? जॉब और शादी का क्या कनेक्शन है?
"कैसा बकवास लड़का है?" तुरंत मेरे मुंह से निकला... और माँ का पारा हाई...
मै समझ गयी माँ गुस्सा हो गयी हैं...और मुझे समझाया कि मैं एक बार उससे बात तो करून... खैर, माँ गुस्सा देख मैं तो चुपचाप वहां से खिसक गयी
उनका गुस्सा होना लाजमी भी था, आख़िर वो उनकी सहेली औए पापा के दोस्त का लड़का था, वो घर में सभी को पसंद था... आख़िर उसकी लम्बाई जो इतनी थी... मुझे मैच करता था।
मगर ये सोच... न बाबा न... मुझसे तो नहीं हो पाएगी ये शादी भई।
मैनें भी तुरंत अम्मा; अम्मा यानि मेरी बड़ी माँ, हमारे यहाँ ऐसे फैसले सभी की रजामंदी से होते हैं, वो घर के बड़े हैं और मैं उनकी लाडली; हाँ तो मैंने तुरंत अम्मा को फ़ोन किया और सीधे पूछा "और कोई गन्दा लड़का नहीं मिला था आपको मेरे लिए?" आवाज़ ज़रा-सी रोनी और लाड़ वाली कर ली थी... भई नौटंकी जो करनी थी और उन्हें पटाना जरूरी था...
अम्मा ने कहा "तुम चिंता मत करो, यही बात मुझे भी परेशान कर रही है। आने दो तुम्हारे बाबूजी को मैं बात करती हूँ"। बाबूजी यानि मेरे बड़े पापा, माँ कहती है कि मुझे उन्हीं के लाड़-प्यार ने बिगाड़ रखा है...
पर चलो... अम्मा न खुद भी यही सोचा... सो अब मै पूरी तरह से बेफिक्र हूँ... क्योंकि मुझे तो वो पहले से पसंद नहीं था... मैं क्या, मेरी बहनों न भी उसे रिजेक्ट कर दिया था... बस ये सोचिये कि मज़ा आ गया...

आगमन की खबर...

सुबह आँख मीचते हुए
नींद में ही करवट बदली जब,
किसी नन्हे उजाले ने
मेरा हाँथ थामा था...
जाने क्या...
किसी सफ़र में चलने को कह रहा था शायद...

बस मैं भी चल पड़ी थी
उसके पीछे-पीछे
एक अंजान रस्ते में...
पर यकीन था कि
रास्ता सही चुना है मैंने
आख़िर वो ख्वाब था मेरा
यकीन करना तो लाज़मी था...

जब चल रही थी उस रास्ते पर
कुछ नर्म-सी घांस और ओस का
अहसास हुआ था पैरों को,
ठंडी-सी हवा न छुआ था मुझे,
कुछ पत्तों की सरसराहट भी पड़ी थी
कानों में मेरे,
बहते पानी का शोर भी
समझ आया था,
जैसे कहीं दूर कोई नदी हो,
चिड़ियों की चहचहाहट भी सुनाई दी थी
जैसे उड़ा हो कोई झुण्ड आसमाँ में
एक पेड़ से दूसरे में जा बैठने के लिए....

फ़िर धीरे से करवट बदली जब दुबारा...
और आँखे हल्की-सी खोलीं थीं...
दरवाज़े से एक धुंधली-सी परछाईं
झाँक रही थी,
खिड़की से पर्दा हटाया
लगा जैसे कोई यूँही निकला हो वहां से

जिज्ञासा बढ़ी
बिस्तर छोड़ा
दरवाज़ा खोला
बाहर झाँका
जिसे पाया
वो
हल्की धुंध में लिपटी
गुलाबी ठण्ड थी
ठण्ड के आगमन की खबर के साथ...

आज छोटी दिवाली है...

देव-उठनी ग्यारस कहिये
या फ़िर कहिये तुलसी विवाह...
हमारे लिए तो ये छोटी दिवाली है...

आँगन धुलवाया है
आखिर वहां कुछ रंगों को सजाना जो है
दिए भी निकल आए धूप में
आख़िर उन्हें शाम को जगमगाना जो है...
सिंघाड़े, शकरकंद उबल गए
बेर, गन्ना, चने की भाजी, गेंहू की बाल...
लगभग हो गया सारा इंतजाम
शाम को भगवान को मनाना जो है...

दिवाली पर अपने घर पर थी
अम्मा-बाउजी, माँ-पापा
चाचा-चाची, भैया-भाभी
और सारे भाई-बहन...
और-तो-और, सारे मोहल्ले की रौनक...
पर आज,
कुछ नहीं,
कोई नहीं,
सिर्फ वही रंग, दिए और यादें...
शायद इसीलिए आज हमारी छोटी दिवाली है...

आप सभी को दिवाली एवं ईद-उल-जुहा की हार्दिक शुभकामनाएं...

कल प्रिलिम इंटरव्यू था...

जी हाँ... सही कह रही हूँ, कल मेरा प्रीलिम इंटरव्यू था, यानि प्रथम चरण...
अब आप सोचेंगे की कैसा इंटरव्यू और कैसा प्रथम चरण???
तो जैसा कि मैंने अपनी पिछली पोस्ट में मैनें "पूजा की शादी" वाली चर्चा का ज़िक्र किया था... तो कुछ लोग कुछ ज्यादा ही तेज़ निकले, अभी बात भी नहीं हुई कि घर ही पहुँच गए... उनका कहना था की उन्हें दिवाली की शुभकामनाएं देने आना है। माँ-पापा को सबकुछ पता था कि वो लोग क्यूं आ रहे हैं, पर मुझसे किसी न कुछ नहीं कहा। वो लोग ये तो कह नहीं सकते थे की मुझे देखने आ रहे हैं, क्योंकि देख तो मुझे कई बार चुके थे, आए तो बस मेरा मंतव्य जानने थे। मुझे यहाँ से इतनी दूर; 180 किमी बुलाया, सोचिये ज़रा रात में, म.प्र. की सड़कें और दूसरे दिन अचानक पता चले की लड़के के माँ-बाप आपको देखने आ रहे हैं, क्या हालत होगी? सबसे ज्यादा गुस्सा तो माँ-पापा पर आया कि "आप लोग तो मुझे बता सकते थे न?" खैर...
पर जैसा मैंने सोचा था वैसा तो कुछ हुआ ही नहीं... न मुझसे कोई सवाल न जवाब... बस आए, बैठे, गप्पे मारी, खाना खाए और चले गए। बस एक लडकी; जो लड़के की चचेरी बहन थी; वो मुझे घूर-घूर कर देख रही थी... न जाने क्या खोज रही थी, या मैं उसे दूसरे गृह की लग रही थी...
अब आप सोचेंगे कि जब कोई सवाल-जवाब हुआ ही नहीं तो मैंने इसे प्रीलिम इंटरव्यू क्यूं कहा? वो इसलिए क्योंकी अभी लड़के के माँ-पापा आए हैं, जो प्रीलिम स्टेज थी, फ़िर लड़का और उसकी बहन आयेंगे, जो मेन्स यानि सेकोन्दरी एंड फिनाल इंटरव्यू होगा। ऐसा लगता है जैसे शादी न हो गयी "लोक सेवा आयोग" के एक्साम्स हो गए.
क्या प्रोब्लम है इन लोगों का? एक बार में नहीं आ सकते क्या? खैर जो होगा देखा जायेगा... अभी तो मैं बस अपने काम पर और थोडा-सा लिखने पर ध्यान देना चाहती हूँ...

तो हम वापस आ गए...

हाँ जी...
तो दिवाली भी आ कर चली गयी, दिए भी स्टोर-रूम पहुँच गए, मिठाइयाँ भी ख़तम हो गईं, सब अपने-अपने काम में वापस लग गए... बस झालर की सजावट अभी भी वहीँ है, वो भी सिर्फ छोटी दिवाली यानी एकादशी तक... उसके बाद वो भी स्टोर में चली जाएगी... और हम भी घर से वापस कार्यस्थल आ गए...
जब मेल बॉक्स चेक किया, बड़ा अच्छा लगा... ढेर सारी बढ़ियाँ आईं थीं... मुझे बड़ी ख़ुशी होती है जब लोग मुझे याद रखते हैं... उन सभी लोगों को ढेर सारा शुक्रिया...
इस दिवाली कुछ नया करने की सोची थी, बहुत कुछ किया भी... जैसे, मिठाइयों की जगह फलों का उपयोग, मोमबत्तियों की जगह दीयों का उपयोग, और भी बहुत कुछ... लोगों को भी समझाने की कोशिश की, कुछ न सुनी, कुछ न समझी और कुछ वही पुराने, न सुनना न समझना" वाले फंडे में चले... खैर... उनसे मुझे ज्यादा फर्क भी नहीं पड़ता... पर कुछ लोगों के ऊपर गुस्सा भी आया, उनका टॉपिक ही नहीं बदला। जबसे घर आए, और जब तक चले नहीं गए, तब तक सिर्फ एक ही राग अलापते रहे... "पूजा की शादी"। मन तो आया कि पूछ लूं, कि उन्हें क्यूं इतनी चिंता है, उनके घर में भी तो लडकियां हैं उन्हें देखें... लग ही नहीं रहा था कि दिवाली मानाने आए हैं, लग रहा था जैसे मेट्रीमोनिअल वाले घर आ गए हों... और होड़ लगी हो कि ये कांट्रेक्ट किसे मिलता है... एक महाशय तो एक कदम और आगे, कहने लगे "न हो तो एक बार लड़का-लडकी मिल लें फ़िर देखा जाएगा, लड़का अभी घर आया हुआ है, कल ही मिलवा देते हैं दोनों को"... अरे, अच्छी जबरजस्ती है...
हे भगवन!!! कुछ लोग वाकई "इम्पोसिबल" होते हैं... खैर, बच गयी मैं, जिसने अपने-आप पर काबू रखा, "अतिथी देवो भवः" जहाँ में रखा... वरना अच्छी खासी इमेज का तो कचड़ा होना पक्का था...
पर समझ नहीं आता, कि लोगों को दूसरों की लड़कियों की इतनी चिंता क्यूं होती है?? भई, तुम्हारे घर में भी बच्चे हैं, उन्हें देखो, उनकी चिंता करो... और क्या शादी ही एक काम बचा है करने को... जब होनी होगी तब हो जाएगी...
हटाइए... जो होगा देखा जाएगा...
पर अच्छा तो ये था कि जो कुछ नया करने को सोचा था, उसमे बहुत कुछ सफल हुए... और आशा करती हूँ, आप सभी की भी दीपावली बहुत अच्छी हुई होगी...