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आत्मपरिचय... हरिवंश राय बच्चन {कुछ अंश}

आज मैं यहाँ अपनी कोई राचन लेकर नहीं बल्कि प्रसिद्द कवि, और जो प्रसिद्द रचनाकार भी हैं, जी, "हरिवंश राय बच्चन जी" की ही बात कर रही हूँ. शायद ही आज संपूर्ण भारतवर्ष में इनके नाम से कोई अछूता हो। खैर... पर आज मैं उनकी एक रचना "आत्मपरिचय" की कुछ अंश लेकर प्रस्तुत हुई हूँ, जिन्होंने मुझे बहुत अन्दर तक छुआ... और शायद हर लिखनेवाले की व्यथा यही है...

मैं रोया, इसको तुम कहते हो गाना,
मैं फूट पड़ा, तुम कहते हो, छंद बनाना;
क्यों कवि कहकर संसार मुझे अपनाए,
मैं दुनिया का हूँ एक नया दीवाना!

मैं दीवानों का वेश लिए फिरता हूँ,
मैं मादकता निःशेष लिए फिरता हूँ;
जिसको सुनकर जग झूम, झुके, लहराए,
मैं मस्ती का सन्देश लिए फिरता हूँ!

आशा करती हूँ आपको भी इन पंक्तियों न छुआ होगा... और इन्हें प्रस्तुत कर मै सफल हुई होंगी।
इन्हें पढ़ मेरे मन में जो आया वो कुछ इस प्रकार था...

"जो गीत तुमने गुनगुनाया, ऐसा लगा मनो
मेरा हाल-ऐ-दिल गा रहे हो
अभी जो तुमने राग सुनाया, ऐसा लगा मनो
मेरा ही तो रुदन सुना रहे हो
कैसे यूं समझ लेते हो, यूं लिख लेते हो तुम
मेरे ह्रदय की पीड़ा को
अभी जो तुमने करुण चित्र दिखाया, ऐसा लगा मनो
मुझे मेरा ही अक्स दिखा रहे हो..."