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जाने कहाँ गया वो दिन???


"आज कुछ special बना दो, Sunday है... "
... अभी तो परसों कढ़ाही पनीर बनी थी... 

"सुनो, मैं अपने दोस्तों से मिल कर आ रहा हूँ, वो आज Sunday है न..."
... हाँ, दोस्त कौन, सब Office वाले ही तो हैं... जैसे बाकी दिन तो उनका मुँह भी देखने नहीं मिलता...
"Please, आज shopping पर मत चलो, आज घर पर ही रहते हैं... Sunday बस तो मिलता है..."
... हाँ हमारे लिए तो छुट्टी अलग दिन मिलती है... आज market मत जाओ और बाकी के दिन time नहीं मिलता... 
ये जुबां और मन की बातों की बहस चल ही रहा था कि एक आवाज़ आती है...
"भाभी, आज शाम को काम पे नहीं आएँगे, Sunday हैं न, तो बाज़ार जाना है..."
"ठीक है... कल आ जाना..."
...ह्म्म्म, तुम्हारा ही ठीक है... जाओ, बाज़ार जाओ, Sunday है... 
इतना जी जलना कम था जो फ़ोन पर भी...
"तुम चाहो तो छुट्टी लेलो, पर पेट की छुट्टी तो नहीं होती न... कुछ तो बना लो"
"आज तो वी भी कुछ अच्छा बनाना चाहिए, Sunday है"
... हाँ, सही है, रोज़-रोज़ तो बेकार ही बनता है खाना की आज बना दो... तो क्यूँ न सिर्फ Sunday को ही अच्छा बनाऊं, बाकि दिनों में ऐसा ही खाना दे दिया करूँ? जैसा नाना जी कहते थे, "पनिहार दाल, गिल्कोचा भात, नोन-नोन भरी तरकारी, अस जिउनार रचिस महतारी..."
... अरे क्यूँ बना लूं??? मेरा भी Sunday है, मुझे भी तो छुट्टी मिलनी चाहिए... पर नहीं... I don't deserve it?
मुझे ये मानसिकता समझ नहीं आती... क्यूँ Sunday है तो अच्छा खाना बने, बाकि दिनों में न बने... या Sunday है, इसिलिये पकवान पकाओ, बाकि दिन क्या सिर्फ लौकी की उबली सब्जी खाएँ?
मैं उबली सब्जी खाने को गलत नहीं कह रही, बस मिसाल के टूर पर एक बात राखी है... जिन्हें उबली सब्जियां पसंद हैं वो बेशक खाएं... सबकी अपनी-अपनी पसंद है...
Mostly घरों की यही कहानी है... Thank God मेरा घर इसका सिर्फ 50% ड्रामा झेलता है... and all thanks to माननीय पतिदेव... जो ये तो समझते हैं की आज मेरे लिए भी Sunday है...
कैसे रह लेती हैं वो औरतें जो ये सब अपने अन्दर ही लडती हैं... और किससे लडती हैं, उन्हें भी नहीं पता... कई बार तो वो अपने ही अन्दर ये बातें बोलती हैं, और बाद में अपनी कुछ खास सहेलियों से, जिनसे वो अपनी feelings share करतीं हैं...
बहुत बार मैंने ये बातें अपने आस-पास सुनी हैं... और उस पर भी पति बेचारे हो जाते हैं जिन्हें Sunday की भी छुट्टी नहीं मिलती, जो ये कहते पाए जाते हैं कि "पूरे हफ्ते office और ले-देकर एक दिन मिलता है तो वो भी..."
और अभी-अभी, फिलहाल में ही मैंने एक video भी देखा था इसी मुद्दे पर...

आप ये मत सोचियेगा की मुझे पुरुष वर्ग की Sunday की छुट्टी लेने में कोई दिक्कत नहीं है... न न, हर किसी का हक़ है, कि कम-से-कम एक दिन तो मिलना चाहिए... पर क्या महिला वर्ग का उसमे कोई अधिकार नहीं???
खासतौर पर ऐसे घरों में, जहाँ एस तरह के हालात हों...
शायद आपके आस-पास ये न होता हो... और बहुत अच्छा है यदि न होता हो...

यदि मेरी मानें तो मुझे लगता है कि, औरतों को Sunday को और भी अच्छी तरह उपयोग करना चाहिए, अपने लिए... आप भी सुबह से salon जाएँ, spa जाएँ... और यदि आप कहें तो couple में भी जा सकते हैं... हमारा आजमाया हुआ नुस्खा है... shopping चाहें तो जाएँ या न जाएँ पर यूँ ही घूमने जाएँ... जानती हूँ आपको पढने में थोडा अजीब लगेगा, पर फ़ालतू भी घूमना चाहिए, try करके देखिये... बिना काम, बिना decide किये की कहाँ जाना है, यूं ही निकल जाइये, एक drive लेकर लौट आइये... कभी, चाहें तो, फ़ोन बंद करके घर पर ही रहें... साथ में खाना बनाएँ, मूवी देखें, बातें करें... सार ये है की बस एक-दुसरे को वक़्त दें... क्यूंकि पूरा हफ्त तो वैसे भी वक़्त नहीं मिलता...

आप भी बातें की आपका experience कैसा है Sunday को लेकर... Specially शादी के बाद...  

कल भी मंत्री, कल भी मंत्री...

कल मुख्यमंत्री और कल वनमंत्री...
अरे नहीं नहीं, ये किसी राजनीतिक दंगल की बात नहीं हो रही और न ही मैं किसी उलटफेर की खबर आप तक पहुंचा रही हूँ... ये तो बस हम "सरकारी बच्चों" का दर्द है जो आज बयाँ कर रही हूँ...
सरकारी बच्चों" से मेरा क्या तात्पर्य है ये तो आप सब समझ ही गए होंगें... वो सारे बेचारे बच्चे जिनके parents का job-title "Govt. Job" हो... सबसे पहले तो हमें लोगों की अजीब -सी नज़रें झेलनी पड़ती है... यदि हम किसी से बेढंग तरीके से बात करें तब तो लोगों को बड़ा अच्छा लगता है "की, हाँ तुम्हारे पापा/मम्मी तो govt job में हैं न!!!" और यदि हम अच्छे-से पेश आएं तब उन्हें आश्चर्य होता है "अरे! लगता ही नहीं की तुम्हारे पापा/मम्मी Govt job में हैं"... क्यों भाई! क्या सरकारी बच्चों की सींग निकली होती है??? या, उनके दो-चार एक्स्ट्रा दांत होते हैं???पता नहीं... हो सकता है आप में से कुछ लोग मेरी बातों से सहमत न हो, परन्तु ये मेरा personal experience है...
खैर!!! अभी मैं जिस बात को लेकर यहाँ आई थी, "कल मुख्यमंत्री और कल वनमंत्री"...
आजकल यहाँ, सीधी में, मंत्रियों का आना-जाना कुछ ज्यादा ही लगा हुआ है, चुनाव की तय्यारियाँ भी शुरू हो चुकी हैं... अभी कुछ दिनों पहले मुख्यमंत्री "शिवराज सिंह चौहान जी" आए, रातों-रात यहाँ से ट्रांस्फर्स, और पूरी मेडिकल टीम को सस्पेंड कर के चले गए, कल फिर आए, सभा की, रैली निकली और चले गए... अब कल वनमंत्री आ रहे हैं, बोनस वितरण करेंगें, कुछ भाषण देंगें, कहीं का plantation देखेंगें और चले जाएंगें...
परसों नीलाम है...
फिर उसके बाद P.S. को रिपोर्ट भेजनी है...
और साथ ही साथ वन-मेला की तय्यारी, और हाँ वहां पहुंचना भी ज़रूरी है...

और ये सब देखने के बाद मम्मी कहतीं हैं कि, मेरी शादी वो एक Govt Job वाले से ही करेंगीं...
तीन दिन से मैंने अपने पापा की शक्ल ठीक से नहीं देखी, और उनके काम का इतना ज्यादा pressure जानने और समझने के बाद सब चाहते हैं कि मैं किसी ऐसे ही इंसान से शादी कर लूं... जबकि सब जानते हैं कि मुझे ये सब बिल्कुल नहीं पसंद... ये भी कोई जॉब है जिसमें न संडे, न दिवाली, न होली... किसी की भी छुट्टी नहीं... :(
मैंने बचपन से अपने पापा को यूँही देखा है, कई बार तो उन्हें ये भी पता नहीं होता था कि उनके बच्चे कौन-सी क्लास में पहुँच गए हैं??? Means, this is height.
और लोगों को लगता है कि हम, सरकारी बच्चे, सबसे ज्यादा लकी होते हैं दुनिया में... :(
होते हैं, क्योंकि हमें ऐसे parents मिले हैं... मगर कई बार दुःख भी होता है, जब घुन के साथ गेंहू को भी पिसना पड़ता है... :(
But, let it be... who cares... :)

वो सीली-सीली यादें...

धो-पोंछ के रख दी थी न हर बात???
उलझी-बिखरी,
खट्टी-मीठी,
इधर-उधर की... हर याद
हर हंसी,
हर मज़ाक,
हर अठखेली,
हर फ़रियाद,
हर अहसास,
हर जज़्बात...
फिर क्यों, यूं अचानक???
वापस आ रहे हैं वो पल...
और क्यों सता आ रहीं हैं
उन पलों की वो सीली-सीली यादें...

एक smile की ही तो बात है... :)

दिवाली आई... छुट्टियाँ लिए, सब अपने घरों की और चलते हुए...
कई रंगों के साथ, रंगोली के साथ... दीयों की जगमगाहट, designer candles की रौशनी के साथ... घर की साफ़-सफाई और सजावट में माता लक्ष्मी के आगमन के साथ, पूजा-पाठ और प्रसाद के साथ, पटाखों की गूँज के साथ... और न जाने कितनी wishes और blessings ...  फिर हर बार की तरह ढेर सारी खिलखिलाहट, हंसी, पुरानी यादों को ताज़ा करते किस्से... पारीबा का आराम, सारा शहर बंद, सब एक-दुसरे से मिलने में व्यस्त, कोई किसी के यहाँ की मिठाई की बात करता तो कोई किसी के यहाँ मिठाई न जाने पर थोडा-सा नाराज़ दिखा और कोई उस मिठाई को भेजवाने के इंतजाम में लग गया...
भाई-दूज भी आ गया, सुबह से बस नाना जी के घर जाने की तैय्यारी, कौन कितने बजे जायेगा, कौन किसको लेता आएगा... फिर वो पोनी खोसना, रोग-दोग, पूजा, ऐरी-बैरी की छाती कूटना, भाई को टीका करना, मुंह मीठा करना और हर कुंवारे बड़े भाई को धमकी देना की "अगले साल अकेले टीका नहीं करेंगे :) " फिर सबका खाना, फिर वही हंसी-ठिठोली,
वही मस्ती  मजाक,
वही कोई पुरानी याद,
वही किसी एक की टांग
फिर दुसरे को फसाना
खुद फंस जाने पर
कोई बहाना बनाना,
या फिर अपनी उसी बात पर
खुद भी ठहाके लगाना...
कितना अच्छा लगता है
ये रिश्तों का खज़ाना...

अरे वाह!!! ये तो बैठे-बैठे कुछ और ही हो गया...
शायद यही होती है रिश्तों की मिठास, उनका अपनापन और प्यार... जो न तो कभी ख़त्म होता है, बल्कि बढ़ता ही जाता है... और ऐसे मौकों पे बिना परिवार-रिश्तेदार कैसे रह लेते हैं लोग...
मुझे तो हमेशा से ही ताज्जुब होता है, जब भी ऐसा कुछ सुनती हूँ, "यार! हमें तो अकेले/अलग रहना ही अच्छा लगता है" "अरे यार! ये परिवारवाले भी न, अच्छा सर-दर्द हैं"... 
ऐसा क्यूं है???
वैसे भी अब सब अलग ही रहने लगे हैं, कोई यहाँ जा रहा है पढ़ाई करने, तो किसी को उसकी नौकरी घर से दूर ले जा रही है... किसी लड़की की शादी हो गई {जो जॉब न करती हो}, उसे अपने पति के साथ जाना पड़ता है... तो क्या, यदि हम एक-दो या कुछ दिनों के लिए एकदुसरे से मिलते हैं, साथ बैठते हैं, खाते-पीते हैं, घुमते-फिरते हैं... तो हम हंस नहीं सकते, उन पलों में भी शिकाहय्तें करना ज़रूरी होता है क्या? मीन-मेख निकलना, किसी की गलतियां निकलना, खुद को अच्छा बताने के लिए सामनेवाले को नीचा दिखाना... आखिर क्यों???
क्या ऐसा नहीं हो सकता की यदि हम सिर्फ कुछ पलों के लिए इकट्ठा हों तो बस मुस्कुराएं, हँसे और अच्छी-अच्छी यादें लेकर लौटें... जब भी किसी त्यौहार को याद करें तो अनायास ही एक प्यारी-सी मुस्कान हमारे चेहरे पर आ जाये... बजाय इसके की हमारा दिल दुखे की उसने हमें ऐसा कहा, या हमने उसे ऐसा कहा... कितनी छोटी-सी बात है... और हम जानते-समझते भी हैं... हमें याद भी रहती है... पर न जाने क्यों ऐन वक़्त पे हम इन्हें भूल जाते हैं...  

तो क्यों न अब सिर्फ मुस्कुराहटें फैलाएं...
सारी दुनिया को अपना बनायें...
कोई किसी से बेगाना न हो
किसी का किसी से बैर न हो
सब आपस में एक हो जाएँ...

जानती हूँ की ऐसी बातें कहना जितना आसान है, करना और फिर उन्हीं में अडिग रहना उतन ही मुश्किल... पर कुछ मुश्किल करके भी देखते हैं... कभी-न-कभी तो वो भी आसान होगा...  :)

आज इसे झेलिये... पहला रिलीज़...

आज न तो कोई कविता न ही कोई लेख...
बल्कि एक गुज़ारिश... 
एक नया पत्ता खेला है...
नया हाँथ आज़माया है...

आपमें से कुछ को परेशान कर चुकी हूँ
कुछ को परेशान करना बाकी था..
कुछ को सुना दिया
कुछ के कान खाना बाकी था...
क्या है न, आज तक सिर्फ दिमाग खाती आयी हूँ सबका...
और बताया भी, की कुछ नया try किया है...
इसीलिए सोचा की अब कान खाऊँ...


पर प्लीज़ बताइयेगा ज़रूर...
की, लगा कैसा???

हाँ...
इसमें ऋषि, प्रतिभा और के.के. का बहुत बड़ा हाँथ है...
इसमी जो कुछ,
मिठास है...
वो सिर्फ ऋषि और प्रतिभा के कारण... 
और सुन्दरता के.के के कारण...
और जी...
Sonore Unison Music का भी...

THANK YOU SO MUCH FRIENDS... :)

टीम के बारे में आप सबकुछ इस विडियो में ही पढ़ लेंगें...

हिंदी दिवस... भाषा उपयोग...

आज, 14 सितम्बर... हिंदी दिवस... हर तरफ सिर्फ हिंदी-हिंदी चिल्लाते लोग... इस भाषा का उपयोग करने के लिए ज़ोर-शोर से लगे हैं... बहुत अच्छा लगता है ये सब देखकर... सच है हम हिन्दुस्तानी कहलाए जाते हैं, और हिंदी हमारी भाषा है, उसका सम्मान करना चाहिए, उसका उपयोग करना चाहिए... सारी बातें एकदम सत्य एवं यदि हम ही इन बातों को न करेंगें तो कौन करेगा???
कल रात, या कह लीजिये की 12 .00 बजे, जैसे ही 14th लगी... वैसे ही हिंदी-दिवस ने अचानक से ज़ोर पकड़ा... फेसबुक पे बधाइयों का सिलसिला चल निकला... विश्व दीपक जी ने शुरुआत की... उनकी पंक्तियाँ कुछ यूं थीं...
"चलो आज आगे बढ़कर सभ्यता के माथे बिंदी दें,
संस्कृति का पुनुरुत्थान करें, भाषा को उसकी हिंदी दें... "
बस इसी सिलसिले को आगे बढ़ाते हुए मैंने भी एक छोटी-सी कोशिश की...
"अब हिंद को हिंदी का उत्थान चाहिए
हर युग की तरह, एक पूर्ण स्थान चाहिए
जो लोग अछूते हैं इस मिठास से, अभी भी
उन्हें इतिहास का ज़रा-सा ज्ञान चाहिए... "

हिंदी-दिवस पे कई पोस्ट पढ़ें, और हिंदी-उत्थान के लिए हमेशा पढ़ती भी रहती हूँ... भाषा को लेकर हमेशा कुछ-न-कुछ लिखा जाता रहता है... जरूरी भी है... परन्तु जो बात मुझे खलती है वो ये की, एक भाषा के उपयोग को बढ़ावा देने के लिए हम दूसरी भाषाओँ को गलत ठहराते हैं... खासतौर पे इंग्लिश को, उसे ही ये दोष दिया जाता है की उसके उपयोग के कारण हम हिंदी को भूलते जा रहे हैं...
बातें एक हद तक सही भी हैं, परन्तु इसमें गलती किसकी है... पोरा सिस्टम ही ऐसा है हमारा, तो क्या करियेगा??? और कई चीज़ें हैं इस सिस्टम में जो बदली भी नहीं जा सकती... और जो बात अखरती है वो "अपमान करना"... किसी भाषा या व्यक्ति या सभ्यता का अपमान करना कोई बहुत अच्छी बात तो नहीं, और ये हमें कभी सिखाया भी नहीं गया, की खुद को सही बताने के लिए हम दूसरों को गलत ठहराएं या दूसरों का अपमान करें... अब यदि मैं करेले की सब्जी नहीं खाती या हमारे घर में कोई उसे पसंद नहीं करता इसका मतलब ये तो नहीं की करेला एक बेकार सब्जी है... इसी तरह यदि हम हिंदी का उपयोग करते हैं, और दुसरे किसी और भाषा का, तो इसका मतलब ये नहीं की वो भाषा ख़राब है... 
खैर!!! ये बातें हटाते हैं, कुछ सिस्टम की बात करते हैं... सब चाहते हैं की उनके बच्चे, भाई-बहन किसी बहुत अच्छे संस्थान में पढ़ें, उच्च शिक्षा ग्रहण करें, एक बहुत ही उच्च पद के अधिकारी हों... इस सबके लिए हमें एक कड़े परिक्षा-प्रक्रिया से गुज़ारना पड़ता है... जिसमें सबसे पहले एक प्रश्न-पत्र हल करना पड़ता है, और फिर साक्षात्कार की प्रक्रिया... अब यदि हम technical-studies की बात करें तो, वो पढाई ही पूरी-की-पूरी इंग्लिश में होती है, तो क्या हम पढाई छोड़ दें??? फिर आती हैं जॉब की बारी, तो technical-studies के बाद आपसे उम्मीद की जाती की आप इंग्लिश में ही बात करेंगें, न भी करें तो कोई दिक्कत वाली बात नहीं है... और हमारे देश की सबसे अच्छी सर्विसेस मानी जातीं हैं "पब्लिक सर्विसेस" {I.A.S.,I.P.S.,I.P.S,I.F.S.,I.Fo.S.,I.E.S., etc.} और इनके लिए तो आपको भाषा ज्ञान बहुत ही जरूरी है, फिर चाहे वो हिंदी हो, इंग्लिश हो या फिर आपकी क्षेत्रीय भाषा... परन्तु मुझे उसमें भी दिक्कत नहीं है... ये तो सभी जानते हैं... मेरा मेन प्रोब्लम है की हम किसी को गलत क्यों बोंले???
भारत एक बहुभाषी राष्ट्र है, हर भाषा को उतना ही सम्मान, उतना ही आदर जितना किसी दूसरी भाषा को... हर कदम में जहाँ पानी और भाषा बदलती हैं वो हमारा राष्ट्र है... अब उदाहरण के लिए, हमारी क्षेत्रीय भाषा "बघेली" है, परन्तु उसे भी लोगों ने मोडिफाई कर लिया... बघेली खासतौर पे विन्ध्य-क्षेत्र में बोली जाती है, जिसमें रीवा-सीधी-सिंगरौली-सतना-शहडोल शामिल हैं... यहाँ सभी जगह बघेली बोली जाती है, परन्तु हर जगह के हिसाब से उसमें मोडिफिकेशन है जैसे रीवा और सतना सिर्फ 52 km की दूरी पर है, भाषा कहने को बघेली ही है परन्तु लहज़ा और कुछ शब्दों का उपयोग बिलकुल अलग है... तो जहाँ इतनी सी दूरी में भी ऐसी भिन्नता पाई जाए, वहां आप कैसे कह सकते हैं की हर कोई एक भाषा का उपयोग कर रहा है... जी लिखने में बेशक सब एक जैसी ही हिंदी का उपयोग कर रहे हैं... और यदि बात क्षेत्र की हो तो केरल जैसी जगह में हम क्या करेंगे, क्योंकि वहां के तो कल्चर में ही इंग्लिश है... वो यदि अपने भगवान् को भी याद करते हैं तो इंग्लिश में ही करते हैं...
मेरी सोच मुझे एक बात और सोचने के लिए मजबूर कर देती है... जहाँ इतने लोग, इतनी भाषाएँ, इतनी भिन्नता पाई जाए वह यदि एक मंच ऐसा हो जहाँ हम सब एक-दुसरे से जुड़ें, अपनी भिन्नताओं को छोड़ सब एक जैसे ही हो जाएं तो क्या वो गलत है... क्योंकि मेरी नज़र में वो सारी बातें जो भेद-भावना को बढ़ावा दें या भेदभाव करें वो गलत हैं...  और हमें तो हमेशा ही मिलजुल के रहना सिखाया गया है... और यदि हिंदी को बढ़ावा देना है तो प्लीज़ उसके लिए किसी और भाषा का अपमान न करें...

एक बात और, मेरा मानना ये भी है की भाषा कोई भी हो, बस इतनी सरल हो की हर किसी के समझ में आ जाए... शब्द इतने क्लिष्ट न हो की हर शब्द के साथ शब्द-कोष खोलना पड़े... की पता चला, कुछ दिन तो ठीक परन्तु उसके बाद लोग हमें पढना और फिर हमसे बात करना भी छोड़ दें... इसीलिए बातें सरल भाषा में हों तो ज्यादा आसानी होती है... वरना litrature की कमी कम-से-कम हमारे देश में तो नहीं ही है...


P.S. कृपया मेरी इस पोस्ट को ये न समझा जाए की मेन इंग्लिश की पैरवी कर रही हूँ... मुझे कुछ बातें अखरी और मुझे लगा की आज सबसे अच्छा दिन है अपनी इस बात को आप सबके समक्ष रखने का...

मेरे शब्दों कि रूह... अनकहे अलफ़ाज़

यूँ ही एक बात कही थी
तुमने कल
बातों ही बातों में...
कुछ दबे भाव थे
उनमें... जो शब्द सीचें थे
लेकर हाँथ मेरा अपने हाथों में...
न जाने क्या था उन छिपी छिपी सी बातों में
बहुत था फर्क बड़ा...
लफ़्ज़ों और ज़ज्बातों में
पर कुछ तो था
जो कहना चाहते थे तुम...
या चाहते थे समझाना मुझे...
कुछ भी कहे बिना...
जानते हो न कि समझ जाउंगी उन धडकनों को मैं...
और समझूँ भी क्यों न...
मैं ही तो हूँ वहां...
पर इस बार ज़रा-सा फेर है
या समझ में हो रही देर है
तुम जो कहते हो मैं सुन नहीं पाती
और इसीलिए शायद कुछ कह नहीं पाती
क्योंकि
मेरे शब्दों कि रूह तो तुम्हारे अनकहे अलफ़ाज़ ही है न...
और शिकायत तुम्हारी कि "मैं कुछ कहती नहीं"...  

माना कि ये मेरा बचपना है...

अपनी हर अच्छी-बुरी, ख़राब-नायब बात लेकर यहाँ आ जाती हूँ... इसीलिए आज भी आ गई... 
सब कहते हैं कि अभी भी मुझमें बचपना है...
जब tiger ख़तम हुआ तब मैं छोटी थी तो मान लिया, कि रोना जायज़ था... kity के ख़तम होने में भी सभी ने मान लिया क्योंकि उसे मेरी best-friend {शिखा} ने gift किया था... पर जब tony ख़तम हुआ तब जरूर सभी ने ज़रा-सा कहा... पर सिर्फ ज़रा-सा... क्योंकि उसे भी शिखा ने ही गिफ्ट किया था... पर अब... अब जब वो गई... और मेरा उदास चेहरा सबने देखा तो कुछ मुझे समझाने लगे और कुछ ने मज़ाक भी उड़ाया कि "अभी भी बच्ची है... बड़ी हो जा... तुझे और दिला देंगें... अब तो खुद ही खरीद सकती है..." और भी न जाने कितनी बातें और कितने तरह की बातें... यहाँ तक कि ये भी कहा कि चिंता मत करो, तुम्हारी शादी में तुम्हें कुछ और नहीं देंगे, वही गिफ्ट कर देंगें"...
माना कि मैं खुद भी खरीद सकती हूँ, या कोई नई और भी ज्यादा अच्छी आ जायेगी, पर क्या वो सारी यादें आयेंगीं जो उसके साथ जुडी हैं... कहते हैं teen-age सबसे ख़ास और बड़ी ही अजीब age होती है... उसमें सब-कुछ अच्छा ही लगता है, और मेरी उस उम्र की सबसे ख़ास और करीबी वही तो थी... मेरे सारे राज़, घूमना-फिरना, बदमाशियां-शैतानियाँ... all-in-all सबकुछ वो जानती थी... यहाँ तक कि मेरे कई ख्वाब जो मैंने कभी किसी के साथ नहीं share किये वो भी उसे पता थे...
अरे sorry sorry ... पूरी राम-कथा पढ़ दी मगर वो है कौन ये तो बताया ही नहीं... वो है मेरी प्यारी-सी kinetic honda... zx... white colour... MP20 JA 7513... मेरे सारे दोस्त उसे मेरी उड़न-खटोला कहते थे... मेरे भाई का नाम भी लिखा था उसमें... PRINCE
sorry... है नहीं थी... :(
कहीं उसकी एक फोटोग्राफ भी है... मिली तो पोस्ट जरूर करूंगी...
सच ऐसा लग रहा है जैसे ज़िंदगी का एक हिस्सा चला गया...  :(
पता है... आप लोग भी पढ़ कर यही कहेंगें कि ये मेरा बचपना है...
मेरी और मेरे भाई की दोस्ती बढ़ने में भी उसने बहुत मदद की... हमारे घूमने का राज़ भी वही जानती थी... कई गोल और गोल-गप्पे की कहानियाँ, ice-cream, पेस्ट्री, और भी न जाने क्या-क्या... सब जानती थी वो...
और जबलपुर की सड़कों में कहाँ कितने चक्कर मारे हैं... सदर, गोरखपुर, जलपरी से लेकर घंटाघर, कमनीय गेट तक की सड़कें नापी हैं मैंने उससे... उसने सबसे ज्यादा साथ निभाया था जब हम जबलपुर में ही थे, मम्मी को अटैक आया था, और तभी पापा का ट्रान्सफर हो गया था... और सरकारी नौकरी की हालत तो बस... यदी आपकी जगह में आनेवाला अधिकारी अच्छा है तब तो ठीक वर्ना फ़िर न तो वो खुद support करता है और न ही किसी को करने देता है... तभी शैली; मेरी छोटी बहन, अरे हाँ कल {8 सितम्बर} उसका जन्मदिन भी है,; उसे स्कूल ले जाना-ले आना पड़ता था... भाई के लिए बस थी... उसने बहुत support किया था... और उसी समय था जब मुझे अपने दोस्तों की पहचान हुई थी... और एक बात, उस समय मेरी प्रिंसिपल "प्रकाशम मैडम" मेरे teachers ने बहुत support किया था... सब कहते थे, तुम मम्मी को देख लो, यहाँ कि चिंता मत करो... ये सब मेरे 10th क्लास की बात है... स्कूल से पूरी permission थी, क्योंकि CBSE बोर्ड था तो टेस्ट वगैरा की झंझट नहीं थी... और ये भी था कि मैं कभी भी झूठ नहीं बोलती थी अपने teachers से... और वो सब मुझपे भरोसा भी करते करते और मानते बहुत थे...  Thank you so much all... :)
पर सच उसका जाना बहुत अखरा... जब तक नहीं गई थी, तब एक उम्मीद थी, पर कहते हैं न कि कभी किसी से कोई उम्मीद मत करो वर्ना तकलीफ होती है...जब वो जा रही थी तब मैं उसे जाते भी नहीं देख पाई... अन्दर आके अपने रूम में जाकर खूब रोई... लगा कि जाऊं, जो ले गए हैं उनके सामने विनती करके उनसे मांग लूं... पर फ़िर लगा कि नहीं, पापा लोगों ने उन्हें दे दी है... उनकी बात का मान ज्यादा है... इसीलिए ये भी नहीं कर पाई... शायद इस बात का भी दुःख उस दुःख को बढ़ा रहा था कि पहली बार मैं उसके लिए कुछ नहीं कर पाई...
MISS YOU SO MUCH DARLING... :(

वापस आ ही रही थी कि...

आज फ़िर से आ गई... ये नहीं कहूँगी कि आ पाई... क्योंकि ये तीन महीने बहुत से अनुभवों से गुज़री और बहुत कुछ सीख भी गई...
और वापस तो 3 दिन पहले ही आ जाती... मगर ये गूगल रूपी काली बिल्ली ने रास्ता काट दिया तो बस... हुआ ये कि इतने दिन बाद जब ब्लॉग लिखने पहुँची तो उससे हिंदी फ़ॉन्ट ही गायब... मुझे लगा कोई सेट्टिंग बदल गई... सब छाना-खंगाला, पर कुछ समझ नहीं आया... "help zone" भी ट्राई किया, मगर कोई फायदा नहीं... फ़िर मासूम अंकल को परेशान किया, तब उन्होंने बताया कि ये मेरे बस नहीं बल्कि सभी में यही दिक्कत आ रही है... और गूगल हिंदी टाईपिंग का रास्ता सुझाया... thank you so much uncle ... :)
हाँ अब अनुभवों की बात... और इन तीन महीनों की बात...
सीखना पड़ता ही, आज नहीं तो कल... बस कुछ हालत अलग होते... सबसे ज्यादा मेरी प्यारी-सी माँ खुश हैं... उनका कहना है कि "चलो अच्छा हुआ, भले ही मेरा हाँथ-पैर टूटा पर तुम इतना मैनेज करना सीख गई"... पर उन्हें या परिवार में बड़ी माँ, बुआ या चाचा लोगों को यकीन नहीं होता कि मैं ये सब मैनेज कर रही हूँ, क्योंकि उनकी नज़र में मैं आज भी वही छोटी सी पूजा हूँ... पर अब अचंभित और खुश... सबसे ज़्यादा माँ और मौसियाँ, क्योंकि उन्हें मैं नानी के यहाँ कि लड़कियों में एक लगती ही नहीं थी और दादा जी के घर में सब यही कह रहे हैं कि "हमें तो पता था कि जब भी वक़्त आएगा ये सब संभाल लेगी"...
खैर!!! ये हो गई घरवालों की बात, पर यदि अब मैं सच कहूं तो मैं खुद समझ नहीं पा रही कि ये सब मैंने कैसे संभाल लिया??? क्योंकि एक टाईम पे हमेशा एक ही मोर्चा संभाला है... पर इस बार तो बाबा रे बाबा... सब कुछ...
और हाँ एक सबसे जरूरी बात... वो सारी महिलायें जो "हाऊसवाईव्स" हैं, मेरा नतमस्तक प्रणाम स्वीकार करें...
मतलब, आप लोग कैसे सब कुछ इतने अच्छे से संभाल लेतीं हैं???
सच कितना मुश्किल होता है न... घर के फईनेंसस, खाना-पीना, मेन्यू, सबकी पसंद-नापसंद याद रखना, व्यवहार-रिश्तेदार, बच्चे... ये तो हो गए कुछ बड़े-बड़े काम... पर छोटे-छोटे काम जो दिखाई नहीं देते, जैसे किस कमरे में कौन-सी चादर, कैसे परदे... और भी पता नहीं क्या-क्या... सच में... तीन महीने में रोज़ मैं सारी हाऊसवाईव्स को सलाम करती थी... और मेरी माँ महान... जिनके कारण शायद मुझसे ये सब हैंडल हो गया... वर्ना पता नहीं मैं क्या करती और माँ की जमी-जमाई गृहस्थी का क्या होता???
पर सच कहूं... इन सारे उलझनों के बीच बस एक ही चीज़ अच्छी लगती थी, और वो थी माँ के चेहरे कि मुस्कराहट... जिसमें ज़रा-सी चिंता, ज़रा-सी मस्ती, ज़रा-सा भरोसा, ज़रा-सा चैन, ज़रा-सा आराम और ज़रा-सा गर्व होता है... और शायद में माँ के मन को ज़रा-सा समझ भी पाई हूँ... क्योंकि हमेशा मैं और मेरी बहन PAPA's Girls रहे... और लगता भी यही था कि माँ भाई को ज्यादा प्यार करती हैं, उसकी और माँ कि ज्यादा बनती है... पर नहीं... उनका असली ध्यान तो बेटियों के ऊपर रहता है... क्योंकि हम उनका गर्व होते हैं... ये बात माँ ने पहली बार मुझसे कही... कि माँ लड़कियों पे ज्यादा भरोसा कर सकती हैं और उन्ही पे ज्यादा डिपेंड भी हो सकती हैं... :)
और सच ये बात जानकर बहुत ही आश्चर्य हुआ... जो हम सोचते थे उससे बिल्कुल उल्टा... और बहुतhi सारी ख़ुशी...
आज के लिए इतना ही... बाकी ढेर सारी बातें धीरे-धीरे अलग-अलग पोस्ट्स में...

पिछले कुछ ख़ास दिन...

आज बहुत दिनों बाद लिखने आई हूँ... या कहूँ कि आ पाई हूँ...
याद भी नहीं कि कितने दिन चाह कर भी नहीं लिख पाई...
पहले घड़ी - नक्षत्र जैसी बातों पर यकीन नहीं होता था, पर अब लगने लगा है कि ऐसी चीज़ें होती हैं... इनके भी मायने होते हैं...
जिस दिन "वर्ल्ड कप" का फाईनल था, २ अप्रैल, उस दिन हमारी यात्रा शुरू हुई भोपाल के लिए, और बस तभी से सब-कुछ शुरू हो गया... मेरा मोबाईल चोरी होना, भोपाल-इंदौर का सफ़र इतना हेक्टिक होना, मेरी रिपोर्ट्स, पहली बार एम.आर.आई. होने में इतनी दिक्कत, डॉ. से डांट, सरवाईकल, और भी न जाने क्या-क्या??? परन्तु जहाँ इन सब का अंत हुआ वो सबसे ज्यादा ख़राब, जब लौटना था, ६ अप्रैल, हबीबगंज स्टेशन में माँ का पैर ट्विस्ट होना, उनका गिरना और हाथ-पाँव दोनों में फ्रैक्चर... :(
बस माँ का हाथ-पैर फ्रैक्चर हुआ नहीं कि सारे काम बंद, एट-लीस्ट मेरा तो सब काम ही रुक जाता है... बड़े होने का इतना फायदा तो होता ही है कि आप अपने छोटे भाई-बहन को इतना कह सकते हो... भाई से बहस भी हो गयी पर जीती मैं ही... खैर, दो दिन हुए पक्का प्लास्टर चढ़े, और तभी से माँ के पास से थोडा-सा वक़्त भी मिल जाता है... वर्ना, पहली बार माँ को बच्चों जैसे जिद करते देखा, और जो कभी शांत नहीं रहती थीं, लगातार लेटे रहने के कारण थोड़ी-सी चिडचिडी भी हो गईं थीं... पर अब सब मस्त मिजाज़ में वापस...
पर एक कहावत उनकी ज़ुबांपर रहती है, नोटिस पापा ने किया और माँ ने याद कर लिया... कहती हैं जो बड़े- बुजुर्ग कह गए हैं वो एकदम सही है...
"पारीबा, चौथ, चौदस, नवमी.... ये रिक्ता तिथियाँ हैं... इन दिनों यात्रा करने से पहले देख-भाल लो... और पारीबा यदि मंगल को पड़े तो बिल्कुल भी यात्रा शुरू न करें..."
हर बार की तरह हमारा महान परिवार फ़िर एक साथ... सब परेशान थे, पर साथ रहते दिन कैसे बीत रहें हैं पता ही नहीं रहा... लगता है जैसे कल-परसों ही घर लौटे हों... और हैं भी इस समय रीवा में, माँ-पापा दोनों के मायके और रिश्तेदार यहीं बसे हैं, तो सुबह से आने-जाने वाले भी... और उनके अजीब से किससे कहानियों के साथ हमारा मनोरंजन भी... सबसे मज़ा तो रात में ११-१२ के बाद आता है, जब खाना-वाना खा कर हम सब दिनभर की बातें और अपने-अपने अनुभव शेयर करते हैं, कुछ मोनोएक्टिंग एक्सपर्ट्स तो मस्त कॉपी भी करते हैं, और बाउजी या चाचा लोगों की नींद ख़राब न हो इसीलिए हम लोग उन्हें सबसे ऊपर वाले फ्लोर में सोने भेज देते हैं, तो बस फ़िर क्या सोते-सोते ३-४ तो आराम से बजते हैं... और हमेशा की ही तरह इस परिवार की खासियात, हर मुसीबत यूँहीं हंसते-हंसते निकल जाती है, और हम सब कुछ-न-कुछ सीख रहे हैं... यदि मैं अपनी बात कहूँ तो मैं आजकल दुनियादारी सीख रही हूँ... रिश्तेदारी निभाना तो हमें बोलने से पहले ही सिखा दी जाती है... और इस बार तो सबसे ख़ास, मैं और माँ, एक-दूसरे के और ज्यादा करीब आ गए... :)
और सबसे ख़ास तो तब लगता है जब लोगों के ई-मेल्स पढ़ती हूँ, माँ के लिए शुभकामनाएं और मेरे लिए चिंता... और मजेदार तो वो जिन्हें मेरा मोबाईल चोरी होने की खबर नहीं थी, और न ही उनके पास मेरा कोई दूसरा नंबर... कुछ लोग तो पुलिस-स्टेशन में गुमशुदा की रिपोर्ट लिखवाने जा रहे थे...
चलिए आज की मोहलत समाप्त... कुछ पढ़ना भी है...
तो चलती हूँ... फ़िर मिलूंगी जिस दिन वक़्त मिलेगा...

मृत्यु के पहले... मृत्यु...

मृत्यु के बाद जीवन है???
है या नहीं है?
पता नहीं...
यदि है...
तो कैसा है? क्या है ?

पुनर्जन्म होगा???
होगा या नहीं?
पता नहीं...
यदि होगा...
तो की होगा? कहाँ होगा?

--------------------------------------------------------

ये सवाल...
और इनसे घिरे हम
हमारा समाज
हमारा दिल
हमारा दिमाग़
हमारा कर्म
हमारा अस्तित्व...

अभी मिले इस जीवन को मृत्यु की संज्ञा क्यों दे रहा है???
क्या अभी मिली इन साँसों को जीने की जगह
हम इन्हें भोग रहे हैं???
इन मिले पलों को बिना गवाएं
क्या हम नहीं जी सकते???
उस पार की चिंता छोड़
हम इस पार नहीं जी सकते???
...

ये एक साल...

21 फरवरी 2010...
1st post... :- DESIRES FROM THE ONE YOU LOVE...
जब मैनें इस ब्लोगिंग की दुनिया में कदम रखा...
न रास्ते पता, न मंज़िल...
न ही यहाँ के तौर-तरीके...
न लोगों से पहचान...
न ही कोई बैकग्राउंड...
न लिखना आता था, न ही कोई बतानेवाला की कैसे लिखा जाता है...
बस एक पेन, कुछ सपने और
लिखने का शौक लेकर आई थी...

एक डर था की कैसे लोग होंगें...
अपनायेंगें या नहीं???
मुझे इस दुनिया में अपनी जगह बनाने देंगें या नहीं???
पर दोस्त थे...
एक आदित्य और एक शैलेश...
वो इस दुनिया में कदम रख चुके थे...
आदित्य जी ने तो मुकाम भी बना लिया था...
यहाँ आकर लिखने की सलाह भी कुछ दोस्तों ने ही दी थी...
सो मैं अपना बोरिया-बिस्तर उठा चली आई...

जब यहाँ पहुँची...
जितना सोचा था उससे कहीं बड़ी थी ये दुनिया...
सोच थी की लिखनेवाले तो सभी अच्छे ही होते हैं...
पर वो भ्रम भी टूटा...
पर...
उसकी एवज मैं बहुत से अच्छे और अच्छे लोग मिले...
जिनसे साथ माँगा...
उन्होंने पूरा साथ दिया
जिनसे समय माँगा...
दिन-रात दे दिए...
कुछ अन्जाने से लोग मेरे अपने हो गए...
एक अलग ही रिश्ता कायम हो गया इस दुनिया से...
यहाँ एक छोटा सा आशियाना मेरा भी हो गया...

आप सभी का बहुत-बहुत शुक्रिया, जिन्होंने मुझे ये सफ़र यहाँ तक तय करने में हमेशा ही सहयोग प्रदान किया...
इस आशीर्वाद की हमेशा जरूरत रहेगी...
और बहुत ज्यादा रहेगी... :)












जानती हूँ मुझे ये पोस्ट 21 तारिख को ही लिखनी चाहिए थी... पर सीढियों से गिरजाने के कारण असमर्थ थी...
इसीलिए... आज कुछ ठीक लगा... हिम्मत जुटा कर लिख दी...

सफ़ेद आसमाँ...

जब भी परेशान होती हूँ
और कुछ सूझता नहीं...
तब आ जाती हूँ
इस सफ़ेद दुनिया में
और भरने लग जाती हूँ
अपना पसंदीदा रंग इसमें...


जिधर दिल कहता है
उसी दिशा में चलती हूँ...
जो मन में आता है
वही चित्र बनाती हूँ...
और तब तक अपना paint-brush चलाती हूँ
जब तक
दिल-दिमाग़ शांत न हो जाए
और वो बोझ न हट जाए,
भीतर से निकल न जाए...

जो लेकर मैं
इस सफ़ेद आसमाँ के पास आई थी...

मन छू लिया इस वीडियो ने... जरूर देखिये...

आप सभी को मेरा नमस्कार...
आज मैं कोई रचना या कोई और बात लेकर यहाँ लिखने नहीं आई हूँ... बल्कि आप सभी के साथ एक वीडियो शेयर करना चाहती हूँ... हो सकता है कई लोगों ने इसे देखा भी हो पर जिन्होंने नहीं देखा है, प्लीज़ देखिये और बताइए पसंद आया या नहीं...
पहले मन आप लोगों को इसके बारे में कुछ जानकारी दे दती हूँ... ये पाकिस्तान के एक T.V.Series से है... उस Series का नाम है "Coke Studio"... ये तीसरे सीजन का हिस्सा था... अब आप सोचेंगें कि ये कैसा प्रोग्राम है?
तो जैसा कि इसके नाम में studio है, ये लोग अलग-अलग जौनर के गायकों को बुलाते हैं, या फ़िर किसी एक गायक ने दूसरे को न्योता दिया साथ में गाने का, फ़िर कोई गाना डिसाइड होता है जिसका एक लाईव जैमिंग सेशन होता है...
इस वीडियो में जोश ग्रुप और शफ़क़त अमानत अली जी हैं... दोनों ही अपने जौनर में महारथी हैं...
एक और गुजारिश है कि आप बोल ध्यान से सुनें... बहुत ही प्यारे हैं...
हो सकता है कि कुछ लोगों को ये पसंद भी न आए... तो कृपया वो लोग भी बता दें... क्योंकिं जरूरी तो नहीं कि जो चीज़ मुझे पसंद हो वो हर किसी को पसंद हो...
हाँ एक और जरूरी बात... ये वीडियो मुझे मेरे भाई ने दिखाया था... पूरे भरोसे के साथ कि मुझे पसंद आएगा... क्योंकिं मेरी और उसकी पसंद में बहुत फर्क है...
तो आप वीडियो देखिये और एन्जॉय किजीये...


वीडियो के लिए प्लीज़ यहाँ पर क्लिक करें...

लम्हें...

कभी रूमानी
कभी बेईमानी
कभी धोखा
कभी ज़िन्दगानी...

कभी हँसते-गाते
कभी खाते-पीते
कभी पन्ने पलटाते
कभी कलम घिसते

कभी तेरी बाँहों में
कभी तेरी आँखों में
कभी तुझसे बतियाते
कभी तेरी यादों में

कभी खूबसूरत
कभी दर्द
कभी गुजारते-गुजारते थक गए
और कभी वो लम्हों में ही गुज़र गए...

आ गया नया साल...

लीजिये जी आ गया नया साल...
नई उम्मीदों
नए सपनों
नए आसमाँ
नए अरमान
नई पहचान के साथ...

और पुराना साल दे गया
हमें ढेर सारी यादें
ढेर सारी
देर सारी सीख...

कितना अजीब है न ये समय-चक्र...
आज फ़िर हम 1 तारीख पर हैं,
पहले महीने में
बस वर्ष बदला हुआ है...

फ़िर कुछ नई चाहतें
फ़िर कुछ ख्वाब पूरे करने की उम्मीद...
कुछ नए वादे खुद से...
कुछ नई आदतें...
अच्छी अपनाने की
ख़राब छोड़ने की...

मैंने तो सोच लिया है...
थोड़ा और punctuality अपनानी है
थोड़ा और serious होना है काम के लिए
थोड़ा और परिधि बढ़ानी है अपनी सोच की
थोड़ा और खुद को मजबूत करना है...

और एक बात ठानी थी...
इस साल के आते ही अपना उपनाम छोड़ दूंगीं...
सो छोड़ दिया...

आपने क्या सोचा करने को???
और क्या किया???

मेरी तरफ से आप सभी को हार्दिक शुभकामनाएं...

आज कल बड़े मज़े हैं...

ह्म्म्म...
इन दिनों मिजाज़ ही अलग है
मौसम ही शायद बदल गया है

एक पुरानी कविता याद आती है...
"कहो जी बेटा राम सहाय
इतने जल्दी कैसे आए?
अभी तो दिन के दो ही बजे हैं
कहो आजकल बड़े मज़े हैं"

बस यही हाल आजकल अपना है... सुबह देर से उठाना, रात में देर तक जग सकना, bed-tea उठते ही हाँथ में होना... आहा... लगता है जैसे बरसों की कैद ख़त्म कर किसी holiday पर आ गयी हूँ...
बोले तो पूरी ऐश... no झंझट... सब कुछ फटाफट...
शायद इसीलिए एक बुरी आदत भी लग रही है... आलस की...
खैर... आजकल पापा के यहाँ हूँ... resignation letter पटक ही आई हूँ, तो टेंशन भी नहीं है...
पापा अच्छे-खासी govt. post पर हैं तो किसी चीज़ की कमी है ही नहीं... सुबह से "बड़ी दीदी जी, चाय" का राग शुरू होता है... मैं हूँ भी teaholic तो चाय के बिना तो काम ही नहीं चलता, बस taste बदलता रहता है... हाँ मम्मी जरूर कहती रहती हैं कि आदत बिगड़ जाएगी... पर हो गया यार, बड़े दिनों बाद ये आराम का वक़्त मिल रहा है... और वो भी न जाने कितने दिनों के लिए...
इस समय तो बस पुराने बचे, आधे-अधूरे novels ख़त्म करने में लगी हूँ... अपनी खुद की कुछ कवितायेँ जो यूँहीं लिखी फ़िर बीच में ही छोड़ दी उन्हें पूरा करने में जुट गयी हूँ...
आख़िर वक़्त मिला है, भले ही अपने मन का हो... तो करना भी चाहिए वही जो दिल चाहे...
सुबह भी बड़े दिनों बाद continuous गाने सुने... वर्ना बस पसंद आया, download किया पर सुन नहीं पाते थे, या फ़िर शुरू की कुछ लाईन्स... या फ़िर एक-दो बार बस...
पर आजकल... बस ऐश ही चल रही है...
हाँ मम्मी-पापा को जरूर कुछ ख़ास बना कर खिलाया... वो भी मेरा मन हुआ इसीलिए, वर्ना पापा ने मन किया था...
बस एक साल में ऐसे ही कुछ दिन मिल जाएं... और क्या चाहिए...
पर तब भी न जाने क्यूं कुछ रिश्तों में शायद कुछ ग्रहण सा लग गया है... जब देखो बहस... और इस समय में load लेने के मूड में नहीं हूँ... और न ही लड़ने-झगड़ने में... इसीलिए कन्नी काट लेती हूँ और निकल लेती हूँ पतली गली से... बस शायद बचने की कोशिश करती हूँ अभी इस सब चीज़ों से... वर्ना, short-tempered तो मैं हूँ ही...
ये भी जानती हों कि वो लोग अभी इस पोस्ट को पढ़ भी रहे होंगें... कुछ गुस्सा और कुछ हंसी, दोनों मूड में होंगे... छोडो न यार... ख़त्म करो... फिलहाल में मूड में नहीं हूँ लड़ने के... बाद में निपटेंगें...
खैर...

आप सभी को आनेवाले वर्ष की ढेर सारी हार्दिक शुभकामनाएं...

बाकी मैं पहली तारीख को तो आउंगी ही...

काश मुहब्बत कुछ आसाँ होती... तो...


काश मोहब्बत को पढ़ पाना
इतना आसाँ होता... तो...
एक-आध लाईब्रेरी हम भी बना लेते...

काश मोहब्बत को समझ पाना
इतना आसाँ होता... तो...
दो-चार गुरुओं को ख़ास हम भी बना लेते...

काश मोहब्बत को देख पाना
इतना आसाँ होता... तो...
टेलिस्कोप/माईक्रोस्कोप हम अपनी आँखों में लगवा लेते...

काश मोहब्बत को लिख पाना
इतना आसाँ होता... तो...
दो-चार महफ़िलें हम अकेले ही सजा लेते...

पिछले दिनों...

पिछले कुछ दिन बड़े अजीब बीते...
बहुत सारे परदे उठे,
बहुतों की सच्चाई सामने आई...
पहले तो यकीन नहीं हुआ,
कि ये वाकई सच है...
दिमाग ने मान भी लिया...
पर दिल को समझाना जरा मुश्किल था...
धीर-धीरे वो भी समझ गया

लगा जैसे किसी जोर का तमाचा मार
नींद से जगा दिया दिया हो मुझे...
और एक सुन्दर-सा ख्वाब
जो देख रही थी मैं
उसे तोड़ दिया हो
चकनाचूर कर दिया...
तिमिर से निकाल मुझे
अचानक
दोपहर कि चिचालती धुप में ला खड़ा किया हो...
आँखे भी मिलमिला गयीं थीं...

पर धीर-धीरे उन्होंने भी
साचा के उजाले को,
उसकी तपन को अपना लिया...

सबसे बड़े आश्चर्य की बात
न जाने कहाँ से मुझमें
ये सहनशक्ति आ गयी
कि मैं उन चेहरों को
देख मज़े ले रही थी
मुस्कुरा रही थी
मुझे खुद नहीं पता कि
मेरा comfort-zone
अचानक इतना बड़ा कैसे हो गया...

पर...
जो हुआ
बहुत खूब हुआ
अच्छा हुआ...
मुझे इस यथार्थ को जाने का संयोग प्राप्त हुआ...

उन सभी चेहरों को
उन मुखौटों को शुक्रिया...

और माई चली गई...

सुबह ही तो ज़रा-सी तबियत बिगड़ी थी... सिर्फ सर ही घूमा, थोड़ी-दी उल्टी हुई... पर रात में तो खाना खाई थी... अचानक... रात को 11 बजे... वो हम सब को छोड़ कर चली गई...
न जाने और क्या-क्या अचानक होगा???
पूरी तरह plan बनाया था कि, इस बार उनसे मिलने ज़रूर जाउंगी... और मन भी बहुत था उनसे मिलने का...
वैसे तो वो मेरे दोस्तों की "दादी" थी, पर वो दोनों भी उन्हें माई बोलते थे इसीलिए वो सबकी माई बन गई थीं...
परसों रात से न तो किसी काम में मन लग रहा है और न ही उन दोस्तों से बात करने की हिम्मत हो रही है...
वो कुछ दिन और रुक जाती तो मिल तो लेती मैं...
सब न कहा कि कुछ लिख, पर मन ही नहीं हुआ... सोचा मन हटाने के लिए पुरानी कविताओं को पूरा करने की कोशिश करूँ, पर जो शब्द लिखे थे वो भी समझ नहीं आ रहे थे, आगे लिखती कैसे???
सच कहूँ तो यहाँ भी यूँही लिखे जा रही हूँ जो भी मन में आ रहा है... जाने कौन-सा शब्द किससे मिल रहा है, या नहीं... कोई चिंता नहीं... कुछ नहीं...
परसों रात ही लग रहा था भाग कर जाऊं और उनसे ऐसे ही लिपट कर रो लूं... पर शायद बदकिस्मती ये ही कहलाती है... और मन, वो तो इतना पापी है कि क्या कहूँ???
पहली बार अपनी intuitions पर इतना गुस्सा आ रहा है, चिढ हो रही है... सुबह जब उनकी तबियत कि खबर मिली थी तभे मन में आया था कि बोल दूं कि, "देखे रहना"... फ़िर लगा नहीं यार, ऐसा नहीं सोचते... अपने-आप को समझाया, और रात में...
रिकोर्ड है कि जब भी मेरी और माँ कि कमर दर्द होती है, वो एक अजीब-सा दर्द होता है जो न तो दवाई से ठीक होता है और न ही मालिश से, तब कुछ-न-कुछ अभशगुन होता है...
अभी भी ऐसा ही हो रहा था...
मेरा चचेरा भाई भी नाडियाट में admit है, उसके दोनों kidney fail हो गई हैं, उसकी भी तबिओयत रोज़ खराव्ब होती है... इसीलिए doctors transplant करने की process आगे नहीं बढ़ा पा रहे हैं... बस उसी का डर लगता है रोज़... जब भी फ़ोन आता है, किसी का भी हो, बस भगवान से अर्जी लगाना पहले शुरू कर देते हैं कि सब ठीक रखना...
कहाँ हम उसे ताक कर बैठे थे और कहाँ ये खबर...
हे भगवान!!! वाकई तुम्हारी लीला समझ से बाहर है...
We will miss you MAAI...