Showing posts with label चंद लाइने. Show all posts
Showing posts with label चंद लाइने. Show all posts
एक smile की ही तो बात है... :)
दिवाली आई... छुट्टियाँ लिए, सब अपने घरों की और चलते हुए...
कई रंगों के साथ, रंगोली के साथ... दीयों की जगमगाहट, designer candles की रौशनी के साथ... घर की साफ़-सफाई और सजावट में माता लक्ष्मी के आगमन के साथ, पूजा-पाठ और प्रसाद के साथ, पटाखों की गूँज के साथ... और न जाने कितनी wishes और blessings ... फिर हर बार की तरह ढेर सारी खिलखिलाहट, हंसी, पुरानी यादों को ताज़ा करते किस्से... पारीबा का आराम, सारा शहर बंद, सब एक-दुसरे से मिलने में व्यस्त, कोई किसी के यहाँ की मिठाई की बात करता तो कोई किसी के यहाँ मिठाई न जाने पर थोडा-सा नाराज़ दिखा और कोई उस मिठाई को भेजवाने के इंतजाम में लग गया...
भाई-दूज भी आ गया, सुबह से बस नाना जी के घर जाने की तैय्यारी, कौन कितने बजे जायेगा, कौन किसको लेता आएगा... फिर वो पोनी खोसना, रोग-दोग, पूजा, ऐरी-बैरी की छाती कूटना, भाई को टीका करना, मुंह मीठा करना और हर कुंवारे बड़े भाई को धमकी देना की "अगले साल अकेले टीका नहीं करेंगे :) " फिर सबका खाना, फिर वही हंसी-ठिठोली,
वही मस्ती मजाक,
वही कोई पुरानी याद,
वही किसी एक की टांग
फिर दुसरे को फसाना
खुद फंस जाने पर
कोई बहाना बनाना,
या फिर अपनी उसी बात पर
खुद भी ठहाके लगाना...
कितना अच्छा लगता है
ये रिश्तों का खज़ाना...
अरे वाह!!! ये तो बैठे-बैठे कुछ और ही हो गया...
शायद यही होती है रिश्तों की मिठास, उनका अपनापन और प्यार... जो न तो कभी ख़त्म होता है, बल्कि बढ़ता ही जाता है... और ऐसे मौकों पे बिना परिवार-रिश्तेदार कैसे रह लेते हैं लोग...
मुझे तो हमेशा से ही ताज्जुब होता है, जब भी ऐसा कुछ सुनती हूँ, "यार! हमें तो अकेले/अलग रहना ही अच्छा लगता है" "अरे यार! ये परिवारवाले भी न, अच्छा सर-दर्द हैं"...
कई रंगों के साथ, रंगोली के साथ... दीयों की जगमगाहट, designer candles की रौशनी के साथ... घर की साफ़-सफाई और सजावट में माता लक्ष्मी के आगमन के साथ, पूजा-पाठ और प्रसाद के साथ, पटाखों की गूँज के साथ... और न जाने कितनी wishes और blessings ... फिर हर बार की तरह ढेर सारी खिलखिलाहट, हंसी, पुरानी यादों को ताज़ा करते किस्से... पारीबा का आराम, सारा शहर बंद, सब एक-दुसरे से मिलने में व्यस्त, कोई किसी के यहाँ की मिठाई की बात करता तो कोई किसी के यहाँ मिठाई न जाने पर थोडा-सा नाराज़ दिखा और कोई उस मिठाई को भेजवाने के इंतजाम में लग गया...
भाई-दूज भी आ गया, सुबह से बस नाना जी के घर जाने की तैय्यारी, कौन कितने बजे जायेगा, कौन किसको लेता आएगा... फिर वो पोनी खोसना, रोग-दोग, पूजा, ऐरी-बैरी की छाती कूटना, भाई को टीका करना, मुंह मीठा करना और हर कुंवारे बड़े भाई को धमकी देना की "अगले साल अकेले टीका नहीं करेंगे :) " फिर सबका खाना, फिर वही हंसी-ठिठोली,
वही मस्ती मजाक,
वही कोई पुरानी याद,
वही किसी एक की टांग
फिर दुसरे को फसाना
खुद फंस जाने पर
कोई बहाना बनाना,
या फिर अपनी उसी बात पर
खुद भी ठहाके लगाना...
कितना अच्छा लगता है
ये रिश्तों का खज़ाना...
अरे वाह!!! ये तो बैठे-बैठे कुछ और ही हो गया...
शायद यही होती है रिश्तों की मिठास, उनका अपनापन और प्यार... जो न तो कभी ख़त्म होता है, बल्कि बढ़ता ही जाता है... और ऐसे मौकों पे बिना परिवार-रिश्तेदार कैसे रह लेते हैं लोग...
मुझे तो हमेशा से ही ताज्जुब होता है, जब भी ऐसा कुछ सुनती हूँ, "यार! हमें तो अकेले/अलग रहना ही अच्छा लगता है" "अरे यार! ये परिवारवाले भी न, अच्छा सर-दर्द हैं"...
ऐसा क्यूं है???
वैसे भी अब सब अलग ही रहने लगे हैं, कोई यहाँ जा रहा है पढ़ाई करने, तो किसी को उसकी नौकरी घर से दूर ले जा रही है... किसी लड़की की शादी हो गई {जो जॉब न करती हो}, उसे अपने पति के साथ जाना पड़ता है... तो क्या, यदि हम एक-दो या कुछ दिनों के लिए एकदुसरे से मिलते हैं, साथ बैठते हैं, खाते-पीते हैं, घुमते-फिरते हैं... तो हम हंस नहीं सकते, उन पलों में भी शिकाहय्तें करना ज़रूरी होता है क्या? मीन-मेख निकलना, किसी की गलतियां निकलना, खुद को अच्छा बताने के लिए सामनेवाले को नीचा दिखाना... आखिर क्यों???
वैसे भी अब सब अलग ही रहने लगे हैं, कोई यहाँ जा रहा है पढ़ाई करने, तो किसी को उसकी नौकरी घर से दूर ले जा रही है... किसी लड़की की शादी हो गई {जो जॉब न करती हो}, उसे अपने पति के साथ जाना पड़ता है... तो क्या, यदि हम एक-दो या कुछ दिनों के लिए एकदुसरे से मिलते हैं, साथ बैठते हैं, खाते-पीते हैं, घुमते-फिरते हैं... तो हम हंस नहीं सकते, उन पलों में भी शिकाहय्तें करना ज़रूरी होता है क्या? मीन-मेख निकलना, किसी की गलतियां निकलना, खुद को अच्छा बताने के लिए सामनेवाले को नीचा दिखाना... आखिर क्यों???
क्या ऐसा नहीं हो सकता की यदि हम सिर्फ कुछ पलों के लिए इकट्ठा हों तो बस मुस्कुराएं, हँसे और अच्छी-अच्छी यादें लेकर लौटें... जब भी किसी त्यौहार को याद करें तो अनायास ही एक प्यारी-सी मुस्कान हमारे चेहरे पर आ जाये... बजाय इसके की हमारा दिल दुखे की उसने हमें ऐसा कहा, या हमने उसे ऐसा कहा... कितनी छोटी-सी बात है... और हम जानते-समझते भी हैं... हमें याद भी रहती है... पर न जाने क्यों ऐन वक़्त पे हम इन्हें भूल जाते हैं...
तो क्यों न अब सिर्फ मुस्कुराहटें फैलाएं...
सारी दुनिया को अपना बनायें...
कोई किसी से बेगाना न हो
किसी का किसी से बैर न हो
सब आपस में एक हो जाएँ...
जानती हूँ की ऐसी बातें कहना जितना आसान है, करना और फिर उन्हीं में अडिग रहना उतन ही मुश्किल... पर कुछ मुश्किल करके भी देखते हैं... कभी-न-कभी तो वो भी आसान होगा... :)
तो क्यों न अब सिर्फ मुस्कुराहटें फैलाएं...
सारी दुनिया को अपना बनायें...
कोई किसी से बेगाना न हो
किसी का किसी से बैर न हो
सब आपस में एक हो जाएँ...
जानती हूँ की ऐसी बातें कहना जितना आसान है, करना और फिर उन्हीं में अडिग रहना उतन ही मुश्किल... पर कुछ मुश्किल करके भी देखते हैं... कभी-न-कभी तो वो भी आसान होगा... :)
आज इसे झेलिये... पहला रिलीज़...
आज न तो कोई कविता न ही कोई लेख...
बल्कि एक गुज़ारिश...
एक नया पत्ता खेला है...
नया हाँथ आज़माया है...
आपमें से कुछ को परेशान कर चुकी हूँ
कुछ को परेशान करना बाकी था..
कुछ को सुना दिया
कुछ के कान खाना बाकी था...
क्या है न, आज तक सिर्फ दिमाग खाती आयी हूँ सबका...
और बताया भी, की कुछ नया try किया है...
इसीलिए सोचा की अब कान खाऊँ...
पर प्लीज़ बताइयेगा ज़रूर...
की, लगा कैसा???
हाँ...
इसमें ऋषि, प्रतिभा और के.के. का बहुत बड़ा हाँथ है...
इसमी जो कुछ,
मिठास है...
वो सिर्फ ऋषि और प्रतिभा के कारण...
हाँ...
इसमें ऋषि, प्रतिभा और के.के. का बहुत बड़ा हाँथ है...
इसमी जो कुछ,
मिठास है...
वो सिर्फ ऋषि और प्रतिभा के कारण...
और सुन्दरता के.के के कारण...
और जी...
Sonore Unison Music का भी...
THANK YOU SO MUCH FRIENDS... :)
टीम के बारे में आप सबकुछ इस विडियो में ही पढ़ लेंगें...
हिंदी दिवस... भाषा उपयोग...
आज, 14 सितम्बर... हिंदी दिवस... हर तरफ सिर्फ हिंदी-हिंदी चिल्लाते लोग... इस भाषा का उपयोग करने के लिए ज़ोर-शोर से लगे हैं... बहुत अच्छा लगता है ये सब देखकर... सच है हम हिन्दुस्तानी कहलाए जाते हैं, और हिंदी हमारी भाषा है, उसका सम्मान करना चाहिए, उसका उपयोग करना चाहिए... सारी बातें एकदम सत्य एवं यदि हम ही इन बातों को न करेंगें तो कौन करेगा???
कल रात, या कह लीजिये की 12 .00 बजे, जैसे ही 14th लगी... वैसे ही हिंदी-दिवस ने अचानक से ज़ोर पकड़ा... फेसबुक पे बधाइयों का सिलसिला चल निकला... विश्व दीपक जी ने शुरुआत की... उनकी पंक्तियाँ कुछ यूं थीं...
"चलो आज आगे बढ़कर सभ्यता के माथे बिंदी दें,
संस्कृति का पुनुरुत्थान करें, भाषा को उसकी हिंदी दें... "
बस इसी सिलसिले को आगे बढ़ाते हुए मैंने भी एक छोटी-सी कोशिश की...
"अब हिंद को हिंदी का उत्थान चाहिए
हर युग की तरह, एक पूर्ण स्थान चाहिए
जो लोग अछूते हैं इस मिठास से, अभी भी
उन्हें इतिहास का ज़रा-सा ज्ञान चाहिए... "
हिंदी-दिवस पे कई पोस्ट पढ़ें, और हिंदी-उत्थान के लिए हमेशा पढ़ती भी रहती हूँ... भाषा को लेकर हमेशा कुछ-न-कुछ लिखा जाता रहता है... जरूरी भी है... परन्तु जो बात मुझे खलती है वो ये की, एक भाषा के उपयोग को बढ़ावा देने के लिए हम दूसरी भाषाओँ को गलत ठहराते हैं... खासतौर पे इंग्लिश को, उसे ही ये दोष दिया जाता है की उसके उपयोग के कारण हम हिंदी को भूलते जा रहे हैं...
कल रात, या कह लीजिये की 12 .00 बजे, जैसे ही 14th लगी... वैसे ही हिंदी-दिवस ने अचानक से ज़ोर पकड़ा... फेसबुक पे बधाइयों का सिलसिला चल निकला... विश्व दीपक जी ने शुरुआत की... उनकी पंक्तियाँ कुछ यूं थीं...
"चलो आज आगे बढ़कर सभ्यता के माथे बिंदी दें,
संस्कृति का पुनुरुत्थान करें, भाषा को उसकी हिंदी दें... "
बस इसी सिलसिले को आगे बढ़ाते हुए मैंने भी एक छोटी-सी कोशिश की...
"अब हिंद को हिंदी का उत्थान चाहिए
हर युग की तरह, एक पूर्ण स्थान चाहिए
जो लोग अछूते हैं इस मिठास से, अभी भी
उन्हें इतिहास का ज़रा-सा ज्ञान चाहिए... "
हिंदी-दिवस पे कई पोस्ट पढ़ें, और हिंदी-उत्थान के लिए हमेशा पढ़ती भी रहती हूँ... भाषा को लेकर हमेशा कुछ-न-कुछ लिखा जाता रहता है... जरूरी भी है... परन्तु जो बात मुझे खलती है वो ये की, एक भाषा के उपयोग को बढ़ावा देने के लिए हम दूसरी भाषाओँ को गलत ठहराते हैं... खासतौर पे इंग्लिश को, उसे ही ये दोष दिया जाता है की उसके उपयोग के कारण हम हिंदी को भूलते जा रहे हैं...
बातें एक हद तक सही भी हैं, परन्तु इसमें गलती किसकी है... पोरा सिस्टम ही ऐसा है हमारा, तो क्या करियेगा??? और कई चीज़ें हैं इस सिस्टम में जो बदली भी नहीं जा सकती... और जो बात अखरती है वो "अपमान करना"... किसी भाषा या व्यक्ति या सभ्यता का अपमान करना कोई बहुत अच्छी बात तो नहीं, और ये हमें कभी सिखाया भी नहीं गया, की खुद को सही बताने के लिए हम दूसरों को गलत ठहराएं या दूसरों का अपमान करें... अब यदि मैं करेले की सब्जी नहीं खाती या हमारे घर में कोई उसे पसंद नहीं करता इसका मतलब ये तो नहीं की करेला एक बेकार सब्जी है... इसी तरह यदि हम हिंदी का उपयोग करते हैं, और दुसरे किसी और भाषा का, तो इसका मतलब ये नहीं की वो भाषा ख़राब है...
खैर!!! ये बातें हटाते हैं, कुछ सिस्टम की बात करते हैं... सब चाहते हैं की उनके बच्चे, भाई-बहन किसी बहुत अच्छे संस्थान में पढ़ें, उच्च शिक्षा ग्रहण करें, एक बहुत ही उच्च पद के अधिकारी हों... इस सबके लिए हमें एक कड़े परिक्षा-प्रक्रिया से गुज़ारना पड़ता है... जिसमें सबसे पहले एक प्रश्न-पत्र हल करना पड़ता है, और फिर साक्षात्कार की प्रक्रिया... अब यदि हम technical-studies की बात करें तो, वो पढाई ही पूरी-की-पूरी इंग्लिश में होती है, तो क्या हम पढाई छोड़ दें??? फिर आती हैं जॉब की बारी, तो technical-studies के बाद आपसे उम्मीद की जाती की आप इंग्लिश में ही बात करेंगें, न भी करें तो कोई दिक्कत वाली बात नहीं है... और हमारे देश की सबसे अच्छी सर्विसेस मानी जातीं हैं "पब्लिक सर्विसेस" {I.A.S.,I.P.S.,I.P.S,I.F.S.,I.Fo.S.,I.E.S., etc.} और इनके लिए तो आपको भाषा ज्ञान बहुत ही जरूरी है, फिर चाहे वो हिंदी हो, इंग्लिश हो या फिर आपकी क्षेत्रीय भाषा... परन्तु मुझे उसमें भी दिक्कत नहीं है... ये तो सभी जानते हैं... मेरा मेन प्रोब्लम है की हम किसी को गलत क्यों बोंले???
भारत एक बहुभाषी राष्ट्र है, हर भाषा को उतना ही सम्मान, उतना ही आदर जितना किसी दूसरी भाषा को... हर कदम में जहाँ पानी और भाषा बदलती हैं वो हमारा राष्ट्र है... अब उदाहरण के लिए, हमारी क्षेत्रीय भाषा "बघेली" है, परन्तु उसे भी लोगों ने मोडिफाई कर लिया... बघेली खासतौर पे विन्ध्य-क्षेत्र में बोली जाती है, जिसमें रीवा-सीधी-सिंगरौली-सतना-शहडोल शामिल हैं... यहाँ सभी जगह बघेली बोली जाती है, परन्तु हर जगह के हिसाब से उसमें मोडिफिकेशन है जैसे रीवा और सतना सिर्फ 52 km की दूरी पर है, भाषा कहने को बघेली ही है परन्तु लहज़ा और कुछ शब्दों का उपयोग बिलकुल अलग है... तो जहाँ इतनी सी दूरी में भी ऐसी भिन्नता पाई जाए, वहां आप कैसे कह सकते हैं की हर कोई एक भाषा का उपयोग कर रहा है... जी लिखने में बेशक सब एक जैसी ही हिंदी का उपयोग कर रहे हैं... और यदि बात क्षेत्र की हो तो केरल जैसी जगह में हम क्या करेंगे, क्योंकि वहां के तो कल्चर में ही इंग्लिश है... वो यदि अपने भगवान् को भी याद करते हैं तो इंग्लिश में ही करते हैं...
मेरी सोच मुझे एक बात और सोचने के लिए मजबूर कर देती है... जहाँ इतने लोग, इतनी भाषाएँ, इतनी भिन्नता पाई जाए वह यदि एक मंच ऐसा हो जहाँ हम सब एक-दुसरे से जुड़ें, अपनी भिन्नताओं को छोड़ सब एक जैसे ही हो जाएं तो क्या वो गलत है... क्योंकि मेरी नज़र में वो सारी बातें जो भेद-भावना को बढ़ावा दें या भेदभाव करें वो गलत हैं... और हमें तो हमेशा ही मिलजुल के रहना सिखाया गया है... और यदि हिंदी को बढ़ावा देना है तो प्लीज़ उसके लिए किसी और भाषा का अपमान न करें...
एक बात और, मेरा मानना ये भी है की भाषा कोई भी हो, बस इतनी सरल हो की हर किसी के समझ में आ जाए... शब्द इतने क्लिष्ट न हो की हर शब्द के साथ शब्द-कोष खोलना पड़े... की पता चला, कुछ दिन तो ठीक परन्तु उसके बाद लोग हमें पढना और फिर हमसे बात करना भी छोड़ दें... इसीलिए बातें सरल भाषा में हों तो ज्यादा आसानी होती है... वरना litrature की कमी कम-से-कम हमारे देश में तो नहीं ही है...
P.S. कृपया मेरी इस पोस्ट को ये न समझा जाए की मेन इंग्लिश की पैरवी कर रही हूँ... मुझे कुछ बातें अखरी और मुझे लगा की आज सबसे अच्छा दिन है अपनी इस बात को आप सबके समक्ष रखने का...
Labels:
अनुभव,
कुछ ख़ास,
चंद लाइने,
मेरी उल्टी बुद्धि,
लोग,
विषय,
समझ से परे,
सोच
मेरे शब्दों कि रूह... अनकहे अलफ़ाज़

तुमने कल
बातों ही बातों में...
कुछ दबे भाव थे
उनमें... जो शब्द सीचें थे
लेकर हाँथ मेरा अपने हाथों में...
न जाने क्या था उन छिपी छिपी सी बातों में
बहुत था फर्क बड़ा...
लफ़्ज़ों और ज़ज्बातों में
पर कुछ तो था
जो कहना चाहते थे तुम...
या चाहते थे समझाना मुझे... कुछ भी कहे बिना...
जानते हो न कि समझ जाउंगी उन धडकनों को मैं...
और समझूँ भी क्यों न...
मैं ही तो हूँ वहां...

या समझ में हो रही देर है
तुम जो कहते हो मैं सुन नहीं पाती
और इसीलिए शायद कुछ कह नहीं पाती
क्योंकि
मेरे शब्दों कि रूह तो तुम्हारे अनकहे अलफ़ाज़ ही है न...
और शिकायत तुम्हारी कि "मैं कुछ कहती नहीं"...
खुद को लगता है, तभी दुखता है...
पिछले दिनों में सबकुछ अल-अलग सा समझ आ रहा है... पता नहीं क्यों, पर कभी-कभी अपनी ही सोच अजीब-सी लगती है... doubt होता है की क्या वाकई मैं ही ऐसा सोच रही हूँ? और यदि हाँ, तो क्यों?
और जो सोच रही हूँ वो सही भी है या नहीं...
खैर...
पिछले दिनों में लन्दन में हो रहे दंगों की खबर ज़ोरों पर है... हालात इतने बिगड़े हुए हैं कि ब्रिटेन के प्रधानमंत्री डेविड कैमरन को अपनी छुट्टियां cancel करके वापस आना पड़ा...
यहाँ गलती पुलिस से भी हुई, जब उस बेचारे निर्दोष को गोली मार दी...
चलिए आज नहीं तो कल उनकी हालत सुधर जायेगी... पर मेरी चिंता कुछ और है... कहा जाये तो चिंता का विषय इस बार मैं खुद ही हूँ...
हुआ यूं कि कल जब मैं ये सारी खबरें देख रही थी तो अचानक मेरे मुंह से निकला, "हाँ आज बात खुद पर आई तो दर्द हो रहा है"
मम्मी ने डांट भी दिया कि ऐसा नहीं बोलते...
पर तब मन में कुछ पंक्तियाँ उठीं जो लिखे बिना और यहाँ बाँटें बिना रहा नहीं जा रहा...
जानती हूँ गलत है, ऐसे ख्याल मन में आने ही नहीं चाहिए... और कहते हैं कि गलत बातों को जितना जल्दी और जितने अधिक टुकड़ों में बाँट के अपने से दूर करदो, कर देना चाहिए...
--------------------
आज खुद पे पड़ी
तो दुख न!
सोचो, जब हमें लगा था
तब हमें भी तो दुख होगा न?
तुम्हारे घर में आग लगी,
तो सभी दौड़ पड़े बुझाने के लिए...
fire-brigade बुलाई,
पुलिस बिठाई,
तैनाती करवाई,
कुछ को हवालात कि हवा खिलाई...
बात ऐसी बिगड़ी थी,
कि,
प्रधानमंत्री तक की छुट्टी कैंसल करवाई...
अब समझ आया
कि लगता है तो कितना दुखता है...
चलो बात कुछ पुरानी करें,
याद वो कहानी करें...
कुछ जुल्म-ओ-सितम जो
तुम्हारे पूर्वजों ने
हमारे पूर्वजों पर ढाए थे
जब तुम व्यापार करने का बहाना ले
हमारे देश में आये थे...
फ़िर-फ़िर धीरे-धीरे
तुमने अपना जाल फैलाया
हमें अपना गुलाम बनाया...
तरह-तरह कि कहानी बनाई
अजब लूट थी, जो तुमने मचाई...
तुम्हारे यहाँ कि आग
से तो सिर्फ कुछ नुकसान हुआ होगा
तुम्हारे ही दंगाइयों ने कुछ buildings को फूंका होगा
तुमने पानी छिड़क
सारी आग बुझा भी दी होगी
पर उस आग का क्या
जो तुमने यहाँ दिलों में लगाई
भाई-भाई की दुश्मनी कराई
कितना लहू बहाया हमने,
आज भी बहा रहे हैं
तुम्हारी लगाई आग
आज तक बुझा रहे हैं...
याद करो वो 100 साल
जब हम थे बेहाल
और तुम खुशहाल...
फ़िर कुछ सरफिरों का दिमाग चकराया
तुम्हें खदेड़ा, मार भगाया...
कुछ हिंसा के पुजारी
तो कुछ अहिंसा के दीवाने थे
सबका मकसद एक,
सिर्फ अलग-अलग बहाने थे...
कुछ के नाम पटल पे हैं
पर कुछ से तो हम अभी भी अन्जाने हैं...
तुमने जो किया वो गलत था,
जो funda अपनाया
पता है, उसका अंजाम
हम आज तक भुगत रहे हैं...
याद है वो, "divide and rule policy"
तुम्हारा rule तो ख़त्म हो गया
पर तुम्हारी कुछ policies अभी भी हमारे बीच हैं...
और,
हम आज भी DIVIDE हैं...
पिछले दिनों में लन्दन में हो रहे दंगों की खबर ज़ोरों पर है... हालात इतने बिगड़े हुए हैं कि ब्रिटेन के प्रधानमंत्री डेविड कैमरन को अपनी छुट्टियां cancel करके वापस आना पड़ा...
कल अचानक बर्मिंगम में दंगाइयों ने आग लगा दी... बहुत नुकसान हुआ है... हिंसा ऐसी फ़ैली है कि इसने लीड्स, ब्रिस्टल और नॉटिंगम को भी अपनी चपेट में ले लिया... पुलिस ने इसी सिलसिले में 400 लोगों को गिरफ्तार भी किया...
ये सारी खबरें सुनकर बुरा लग रहा था... ये दंगाई कहीं भी हों, किसी भी कोने में हों... हमेशा कुछ-न-कुछ उटपटांग करते ही रहते हैं... यहाँ गलती पुलिस से भी हुई, जब उस बेचारे निर्दोष को गोली मार दी...
चलिए आज नहीं तो कल उनकी हालत सुधर जायेगी... पर मेरी चिंता कुछ और है... कहा जाये तो चिंता का विषय इस बार मैं खुद ही हूँ...
हुआ यूं कि कल जब मैं ये सारी खबरें देख रही थी तो अचानक मेरे मुंह से निकला, "हाँ आज बात खुद पर आई तो दर्द हो रहा है"
मम्मी ने डांट भी दिया कि ऐसा नहीं बोलते...
पर तब मन में कुछ पंक्तियाँ उठीं जो लिखे बिना और यहाँ बाँटें बिना रहा नहीं जा रहा...
जानती हूँ गलत है, ऐसे ख्याल मन में आने ही नहीं चाहिए... और कहते हैं कि गलत बातों को जितना जल्दी और जितने अधिक टुकड़ों में बाँट के अपने से दूर करदो, कर देना चाहिए...
--------------------
आज खुद पे पड़ी
तो दुख न!
सोचो, जब हमें लगा था
तब हमें भी तो दुख होगा न?
तुम्हारे घर में आग लगी,
तो सभी दौड़ पड़े बुझाने के लिए...
fire-brigade बुलाई,
पुलिस बिठाई,
तैनाती करवाई,
कुछ को हवालात कि हवा खिलाई...
बात ऐसी बिगड़ी थी,
कि,
प्रधानमंत्री तक की छुट्टी कैंसल करवाई...
अब समझ आया
कि लगता है तो कितना दुखता है...
चलो बात कुछ पुरानी करें,
याद वो कहानी करें...
कुछ जुल्म-ओ-सितम जो
तुम्हारे पूर्वजों ने
हमारे पूर्वजों पर ढाए थे
जब तुम व्यापार करने का बहाना ले
हमारे देश में आये थे...
फ़िर-फ़िर धीरे-धीरे
तुमने अपना जाल फैलाया
हमें अपना गुलाम बनाया...
तरह-तरह कि कहानी बनाई
अजब लूट थी, जो तुमने मचाई...
तुम्हारे यहाँ कि आग
से तो सिर्फ कुछ नुकसान हुआ होगा
तुम्हारे ही दंगाइयों ने कुछ buildings को फूंका होगा
तुमने पानी छिड़क
सारी आग बुझा भी दी होगी
पर उस आग का क्या
जो तुमने यहाँ दिलों में लगाई
भाई-भाई की दुश्मनी कराई
कितना लहू बहाया हमने,
आज भी बहा रहे हैं
तुम्हारी लगाई आग
आज तक बुझा रहे हैं...
याद करो वो 100 साल
जब हम थे बेहाल
और तुम खुशहाल...
फ़िर कुछ सरफिरों का दिमाग चकराया
तुम्हें खदेड़ा, मार भगाया...
कुछ हिंसा के पुजारी
तो कुछ अहिंसा के दीवाने थे
सबका मकसद एक,
सिर्फ अलग-अलग बहाने थे...
कुछ के नाम पटल पे हैं
पर कुछ से तो हम अभी भी अन्जाने हैं...
तुमने जो किया वो गलत था,
जो funda अपनाया
पता है, उसका अंजाम
हम आज तक भुगत रहे हैं...
याद है वो, "divide and rule policy"
तुम्हारा rule तो ख़त्म हो गया
पर तुम्हारी कुछ policies अभी भी हमारे बीच हैं...
और,
हम आज भी DIVIDE हैं...
Labels:
चंद लाइने,
मेरी उल्टी बुद्धि,
यादें,
लोग,
विषय,
समझ से परे,
सोच
मृत्यु के पहले... मृत्यु...
मृत्यु के बाद जीवन है???
है या नहीं है?
पता नहीं...
यदि है...
तो कैसा है? क्या है ?
पुनर्जन्म होगा???
होगा या नहीं?
पता नहीं...
यदि होगा...
तो की होगा? कहाँ होगा?
--------------------------------------------------------
ये सवाल...
और इनसे घिरे हम
हमारा समाज
हमारा दिल
हमारा दिमाग़
हमारा कर्म
हमारा अस्तित्व...
अभी मिले इस जीवन को मृत्यु की संज्ञा क्यों दे रहा है???
क्या अभी मिली इन साँसों को जीने की जगह
हम इन्हें भोग रहे हैं???
इन मिले पलों को बिना गवाएं
क्या हम नहीं जी सकते???
उस पार की चिंता छोड़
हम इस पार नहीं जी सकते???
...
है या नहीं है?
पता नहीं...

यदि है...
तो कैसा है? क्या है ?
पुनर्जन्म होगा???
होगा या नहीं?
पता नहीं...
यदि होगा...
तो की होगा? कहाँ होगा?
--------------------------------------------------------
ये सवाल...
और इनसे घिरे हम
हमारा समाज
हमारा दिल

हमारा दिमाग़
हमारा कर्म
हमारा अस्तित्व...
अभी मिले इस जीवन को मृत्यु की संज्ञा क्यों दे रहा है???
क्या अभी मिली इन साँसों को जीने की जगह
हम इन्हें भोग रहे हैं???
इन मिले पलों को बिना गवाएं
क्या हम नहीं जी सकते???

उस पार की चिंता छोड़
हम इस पार नहीं जी सकते???
...
सीध-साध हिंदी...
या ऊँ लिखिन दोहा
या फेर लिखिन चौपाई...
भक्तिरस मा लीन रहें
ता कईसन करतें बुराई?
अईसन डूबे देउता मा
रचि डारिन मानस...
कोऊ लिखिन रामायण
ते कोऊ महाभारत...
कोऊ अईसन लीन भा
के आपन घर-दुआर दीन्हिस छाँड़...
कोऊ बनीं दीवानी मूर्ति देख के
ते कोऊ चल दीन्हीहीं पूजै पहार...
बाह रे बड़े-बड़े रचियता
ते बाह रे ओन्खर गाथा...
सुन-सुन ओन्खर किस्सा कहानी
भैया चकराय लाग हमार माथा...
"अम्मा तैं दई दे हमहीं पूरी-तरकारी
जाहे मा पूर सार है"
हमसे बनत ही सीध-साध हिंदी
बाकी हमारे लाने सब बेकार है...
*ये हमारी क्षेत्रीय भाषा "बघेली" में मेरी पहली कोशिश थी... ये भाषा सरल एवं हिंदी से मिलती-जुलती है इसीलिए मैंने अर्थ नहीं लिखे, परन्तु यदि किसी को कहीं किसी शब्द का अर्थ समझने में दिक्कत हो तो कृपया बता दें... उम्मीद है की मेरी पहली कोशिश आपको पसंद आयेगी...
**मेरा किसी को कोई अघात पहुँचने का मकसद नहीं है... परन्तु यदि किसी को कोई बात ख़राब लगे तो क्षमा कीजियेगा...
या फेर लिखिन चौपाई...
भक्तिरस मा लीन रहें
ता कईसन करतें बुराई?
अईसन डूबे देउता मा
रचि डारिन मानस...
कोऊ लिखिन रामायण
ते कोऊ महाभारत...
कोऊ अईसन लीन भा
के आपन घर-दुआर दीन्हिस छाँड़...
कोऊ बनीं दीवानी मूर्ति देख के
ते कोऊ चल दीन्हीहीं पूजै पहार...
बाह रे बड़े-बड़े रचियता
ते बाह रे ओन्खर गाथा...
सुन-सुन ओन्खर किस्सा कहानी
भैया चकराय लाग हमार माथा...
"अम्मा तैं दई दे हमहीं पूरी-तरकारी
जाहे मा पूर सार है"
हमसे बनत ही सीध-साध हिंदी
बाकी हमारे लाने सब बेकार है...
*ये हमारी क्षेत्रीय भाषा "बघेली" में मेरी पहली कोशिश थी... ये भाषा सरल एवं हिंदी से मिलती-जुलती है इसीलिए मैंने अर्थ नहीं लिखे, परन्तु यदि किसी को कहीं किसी शब्द का अर्थ समझने में दिक्कत हो तो कृपया बता दें... उम्मीद है की मेरी पहली कोशिश आपको पसंद आयेगी...
**मेरा किसी को कोई अघात पहुँचने का मकसद नहीं है... परन्तु यदि किसी को कोई बात ख़राब लगे तो क्षमा कीजियेगा...
Labels:
Poem,
अनुभव,
कुछ देखा,
चंद लाइने,
प्रयोग,
मेरी उल्टी बुद्धि,
समझ से परे
लम्हें...
काश मुहब्बत कुछ आसाँ होती... तो...

काश मोहब्बत को पढ़ पाना
इतना आसाँ होता... तो...
एक-आध लाईब्रेरी हम भी बना लेते...
काश मोहब्बत को समझ पाना
इतना आसाँ होता... तो...
दो-चार गुरुओं को ख़ास हम भी बना लेते...

काश मोहब्बत को देख पाना
इतना आसाँ होता... तो...
टेलिस्कोप/माईक्रोस्कोप हम अपनी आँखों में लगवा लेते...
काश मोहब्बत को लिख पाना
इतना आसाँ होता... तो...
दो-चार महफ़िलें हम अकेले ही सजा लेते...
बनारस...
ये है एक पावन धरती
यहाँ है गंगा, भोलेनाथ
और न जाने कितनी संस्कृतियों का मेल...
मत करो ये शोरगुल, ये धमाके
और ये लाश बिछाने का खेल...
कुछ और नहीं कर सकते
तो इतना ही कर दो
अपने नाम के आगे से ये "INDIAN" ही हटा दो...
यहाँ है गंगा, भोलेनाथ
और न जाने कितनी संस्कृतियों का मेल...
मत करो ये शोरगुल, ये धमाके
और ये लाश बिछाने का खेल...
कुछ और नहीं कर सकते
तो इतना ही कर दो
अपने नाम के आगे से ये "INDIAN" ही हटा दो...
आज की पोस्ट यहाँ नहीं है...
जी हाँ सही पढ़ा आपने, आज मेरी पोस्ट प्रकाशित तो हुई है, परन्तु यहाँ, मेरे ब्लॉग पर नहीं...
आज मेरी लिखी एक कविता प्रकाशित हुई है S.M.Masoom ji के ब्लॉग "अमन का पैगाम" में...
सच कहूँ तो जब मासूम जी ने मुझसे इस विषय पर लिखने को कहा, तब बुद्धि काम ही नहीं कर रही थी... समझ नहीं आया कि मैं क्या लिखूं इस परा क्योंकि बड़े-बड़े लोग इस विषय पर लिख रहे थे, और मासूम जी उनकी रचनाएँ पोस्ट भी कर रहे थे... और इस लोगों के सामने मैं तो एक विद्यार्थी हूँ... और मेरी बुद्धि, गज़ब है... हमेशा उल्टी ही चलेगी... उन्होंने लिखने को कहा था कुछ और मैं लिख रही थी कुछ... {आप पढियेगा, तो खुद ही समझ जाएगें} ...
खैर, डरते-डराते उन्हें अपनी रचना भेज दी... और साथ में ये भी लिख दिया कि, "आप पहले देख लें, ठीक लगे तभी प्रकाशित करें"... कल{1/dec} उनका मेल आया कि आज मेरी रचना को प्रकाशित किया जा रहा है... यकीन मानिये, लगा था कि हो गया बेटा पूजा जितनी भी image बनी है आज सबका कचरा होना है... लगा था कि लोग न जाने क्या सोचेंगें??? कहेंगें... "अच्छी उल्टी खोपड़ी की लडकी है"
पर आज जो हुआ... unbelievable... सच... यकीन नहीं हो रहा कि लोगो को पसंद आ रहा है... लोग तारीफ कर रहे हैं... शायद किस्मत है कि लोग और मेरी ऐसी उल्टी-पुलटी रचनाओं को भी पसंद कर रहे हैं...
सबसे पहले मासूम जी को धन्यवाद, जिन्होंने मुझे लिखने का अवसर प्रदान किया... और फ़िर उन सभी लोगों को धन्यवाद जिन्होंने यूं मुझपर अपना आशीष बनाया और मेरी ऐसी रचना को भी पसंद किया...
बहुत-बहुत शुक्रिया...
रचना यहाँ है...
कौन-सा पैगाम... और किसके नाम...???
आज मेरी लिखी एक कविता प्रकाशित हुई है S.M.Masoom ji के ब्लॉग "अमन का पैगाम" में...
सच कहूँ तो जब मासूम जी ने मुझसे इस विषय पर लिखने को कहा, तब बुद्धि काम ही नहीं कर रही थी... समझ नहीं आया कि मैं क्या लिखूं इस परा क्योंकि बड़े-बड़े लोग इस विषय पर लिख रहे थे, और मासूम जी उनकी रचनाएँ पोस्ट भी कर रहे थे... और इस लोगों के सामने मैं तो एक विद्यार्थी हूँ... और मेरी बुद्धि, गज़ब है... हमेशा उल्टी ही चलेगी... उन्होंने लिखने को कहा था कुछ और मैं लिख रही थी कुछ... {आप पढियेगा, तो खुद ही समझ जाएगें} ...
खैर, डरते-डराते उन्हें अपनी रचना भेज दी... और साथ में ये भी लिख दिया कि, "आप पहले देख लें, ठीक लगे तभी प्रकाशित करें"... कल{1/dec} उनका मेल आया कि आज मेरी रचना को प्रकाशित किया जा रहा है... यकीन मानिये, लगा था कि हो गया बेटा पूजा जितनी भी image बनी है आज सबका कचरा होना है... लगा था कि लोग न जाने क्या सोचेंगें??? कहेंगें... "अच्छी उल्टी खोपड़ी की लडकी है"
पर आज जो हुआ... unbelievable... सच... यकीन नहीं हो रहा कि लोगो को पसंद आ रहा है... लोग तारीफ कर रहे हैं... शायद किस्मत है कि लोग और मेरी ऐसी उल्टी-पुलटी रचनाओं को भी पसंद कर रहे हैं...
सबसे पहले मासूम जी को धन्यवाद, जिन्होंने मुझे लिखने का अवसर प्रदान किया... और फ़िर उन सभी लोगों को धन्यवाद जिन्होंने यूं मुझपर अपना आशीष बनाया और मेरी ऐसी रचना को भी पसंद किया...
बहुत-बहुत शुक्रिया...
रचना यहाँ है...
कौन-सा पैगाम... और किसके नाम...???
इन्ही पन्नों पर...
अपनी हर मुलकात की,
हर बात,
अपनी हर रात का,
हर अहसास,
यूंही कैद कर लेना चाहती हूँ...
इन्हीं पन्नों पर...
हर वो खुशी,
जब भी आई हंसी,
हर वो गम,
जब आँखें हुईं नाम,
यूंही लिख देना चाहती हूँ कलम से...
इन्हीं पन्नों पर...
हर वो सदा,
जो याद आ गयी,
हर वो अदा,
जो इस मन को भा गयी,
यूंही सरे पल समेट लेना चाहती हूँ...
इन्हीं पन्नों पर...
हमेशा के लिए...
हर बात,
अपनी हर रात का,
हर अहसास,

यूंही कैद कर लेना चाहती हूँ...
इन्हीं पन्नों पर...
हर वो खुशी,
जब भी आई हंसी,
हर वो गम,
जब आँखें हुईं नाम,
यूंही लिख देना चाहती हूँ कलम से...
इन्हीं पन्नों पर...
हर वो सदा,
जो याद आ गयी,
हर वो अदा,
जो इस मन को भा गयी,
यूंही सरे पल समेट लेना चाहती हूँ...
इन्हीं पन्नों पर...
हमेशा के लिए...
मेरी खता...
न जाने खता क्या हुई थी थी मुझसे...
मेरी तमन्नाएँ बढ़ गयीं थीं...
या
उनके पूरे होने की आरज़ू...
मेरी तमन्नाएँ बढ़ गयीं थीं...
या
उनके पूरे होने की आरज़ू...
Subscribe to:
Posts (Atom)