Showing posts with label समझ से परे. Show all posts
Showing posts with label समझ से परे. Show all posts

जाने कहाँ गया वो दिन???


"आज कुछ special बना दो, Sunday है... "
... अभी तो परसों कढ़ाही पनीर बनी थी... 

"सुनो, मैं अपने दोस्तों से मिल कर आ रहा हूँ, वो आज Sunday है न..."
... हाँ, दोस्त कौन, सब Office वाले ही तो हैं... जैसे बाकी दिन तो उनका मुँह भी देखने नहीं मिलता...
"Please, आज shopping पर मत चलो, आज घर पर ही रहते हैं... Sunday बस तो मिलता है..."
... हाँ हमारे लिए तो छुट्टी अलग दिन मिलती है... आज market मत जाओ और बाकी के दिन time नहीं मिलता... 
ये जुबां और मन की बातों की बहस चल ही रहा था कि एक आवाज़ आती है...
"भाभी, आज शाम को काम पे नहीं आएँगे, Sunday हैं न, तो बाज़ार जाना है..."
"ठीक है... कल आ जाना..."
...ह्म्म्म, तुम्हारा ही ठीक है... जाओ, बाज़ार जाओ, Sunday है... 
इतना जी जलना कम था जो फ़ोन पर भी...
"तुम चाहो तो छुट्टी लेलो, पर पेट की छुट्टी तो नहीं होती न... कुछ तो बना लो"
"आज तो वी भी कुछ अच्छा बनाना चाहिए, Sunday है"
... हाँ, सही है, रोज़-रोज़ तो बेकार ही बनता है खाना की आज बना दो... तो क्यूँ न सिर्फ Sunday को ही अच्छा बनाऊं, बाकि दिनों में ऐसा ही खाना दे दिया करूँ? जैसा नाना जी कहते थे, "पनिहार दाल, गिल्कोचा भात, नोन-नोन भरी तरकारी, अस जिउनार रचिस महतारी..."
... अरे क्यूँ बना लूं??? मेरा भी Sunday है, मुझे भी तो छुट्टी मिलनी चाहिए... पर नहीं... I don't deserve it?
मुझे ये मानसिकता समझ नहीं आती... क्यूँ Sunday है तो अच्छा खाना बने, बाकि दिनों में न बने... या Sunday है, इसिलिये पकवान पकाओ, बाकि दिन क्या सिर्फ लौकी की उबली सब्जी खाएँ?
मैं उबली सब्जी खाने को गलत नहीं कह रही, बस मिसाल के टूर पर एक बात राखी है... जिन्हें उबली सब्जियां पसंद हैं वो बेशक खाएं... सबकी अपनी-अपनी पसंद है...
Mostly घरों की यही कहानी है... Thank God मेरा घर इसका सिर्फ 50% ड्रामा झेलता है... and all thanks to माननीय पतिदेव... जो ये तो समझते हैं की आज मेरे लिए भी Sunday है...
कैसे रह लेती हैं वो औरतें जो ये सब अपने अन्दर ही लडती हैं... और किससे लडती हैं, उन्हें भी नहीं पता... कई बार तो वो अपने ही अन्दर ये बातें बोलती हैं, और बाद में अपनी कुछ खास सहेलियों से, जिनसे वो अपनी feelings share करतीं हैं...
बहुत बार मैंने ये बातें अपने आस-पास सुनी हैं... और उस पर भी पति बेचारे हो जाते हैं जिन्हें Sunday की भी छुट्टी नहीं मिलती, जो ये कहते पाए जाते हैं कि "पूरे हफ्ते office और ले-देकर एक दिन मिलता है तो वो भी..."
और अभी-अभी, फिलहाल में ही मैंने एक video भी देखा था इसी मुद्दे पर...

आप ये मत सोचियेगा की मुझे पुरुष वर्ग की Sunday की छुट्टी लेने में कोई दिक्कत नहीं है... न न, हर किसी का हक़ है, कि कम-से-कम एक दिन तो मिलना चाहिए... पर क्या महिला वर्ग का उसमे कोई अधिकार नहीं???
खासतौर पर ऐसे घरों में, जहाँ एस तरह के हालात हों...
शायद आपके आस-पास ये न होता हो... और बहुत अच्छा है यदि न होता हो...

यदि मेरी मानें तो मुझे लगता है कि, औरतों को Sunday को और भी अच्छी तरह उपयोग करना चाहिए, अपने लिए... आप भी सुबह से salon जाएँ, spa जाएँ... और यदि आप कहें तो couple में भी जा सकते हैं... हमारा आजमाया हुआ नुस्खा है... shopping चाहें तो जाएँ या न जाएँ पर यूँ ही घूमने जाएँ... जानती हूँ आपको पढने में थोडा अजीब लगेगा, पर फ़ालतू भी घूमना चाहिए, try करके देखिये... बिना काम, बिना decide किये की कहाँ जाना है, यूं ही निकल जाइये, एक drive लेकर लौट आइये... कभी, चाहें तो, फ़ोन बंद करके घर पर ही रहें... साथ में खाना बनाएँ, मूवी देखें, बातें करें... सार ये है की बस एक-दुसरे को वक़्त दें... क्यूंकि पूरा हफ्त तो वैसे भी वक़्त नहीं मिलता...

आप भी बातें की आपका experience कैसा है Sunday को लेकर... Specially शादी के बाद...  

कल भी मंत्री, कल भी मंत्री...

कल मुख्यमंत्री और कल वनमंत्री...
अरे नहीं नहीं, ये किसी राजनीतिक दंगल की बात नहीं हो रही और न ही मैं किसी उलटफेर की खबर आप तक पहुंचा रही हूँ... ये तो बस हम "सरकारी बच्चों" का दर्द है जो आज बयाँ कर रही हूँ...
सरकारी बच्चों" से मेरा क्या तात्पर्य है ये तो आप सब समझ ही गए होंगें... वो सारे बेचारे बच्चे जिनके parents का job-title "Govt. Job" हो... सबसे पहले तो हमें लोगों की अजीब -सी नज़रें झेलनी पड़ती है... यदि हम किसी से बेढंग तरीके से बात करें तब तो लोगों को बड़ा अच्छा लगता है "की, हाँ तुम्हारे पापा/मम्मी तो govt job में हैं न!!!" और यदि हम अच्छे-से पेश आएं तब उन्हें आश्चर्य होता है "अरे! लगता ही नहीं की तुम्हारे पापा/मम्मी Govt job में हैं"... क्यों भाई! क्या सरकारी बच्चों की सींग निकली होती है??? या, उनके दो-चार एक्स्ट्रा दांत होते हैं???पता नहीं... हो सकता है आप में से कुछ लोग मेरी बातों से सहमत न हो, परन्तु ये मेरा personal experience है...
खैर!!! अभी मैं जिस बात को लेकर यहाँ आई थी, "कल मुख्यमंत्री और कल वनमंत्री"...
आजकल यहाँ, सीधी में, मंत्रियों का आना-जाना कुछ ज्यादा ही लगा हुआ है, चुनाव की तय्यारियाँ भी शुरू हो चुकी हैं... अभी कुछ दिनों पहले मुख्यमंत्री "शिवराज सिंह चौहान जी" आए, रातों-रात यहाँ से ट्रांस्फर्स, और पूरी मेडिकल टीम को सस्पेंड कर के चले गए, कल फिर आए, सभा की, रैली निकली और चले गए... अब कल वनमंत्री आ रहे हैं, बोनस वितरण करेंगें, कुछ भाषण देंगें, कहीं का plantation देखेंगें और चले जाएंगें...
परसों नीलाम है...
फिर उसके बाद P.S. को रिपोर्ट भेजनी है...
और साथ ही साथ वन-मेला की तय्यारी, और हाँ वहां पहुंचना भी ज़रूरी है...

और ये सब देखने के बाद मम्मी कहतीं हैं कि, मेरी शादी वो एक Govt Job वाले से ही करेंगीं...
तीन दिन से मैंने अपने पापा की शक्ल ठीक से नहीं देखी, और उनके काम का इतना ज्यादा pressure जानने और समझने के बाद सब चाहते हैं कि मैं किसी ऐसे ही इंसान से शादी कर लूं... जबकि सब जानते हैं कि मुझे ये सब बिल्कुल नहीं पसंद... ये भी कोई जॉब है जिसमें न संडे, न दिवाली, न होली... किसी की भी छुट्टी नहीं... :(
मैंने बचपन से अपने पापा को यूँही देखा है, कई बार तो उन्हें ये भी पता नहीं होता था कि उनके बच्चे कौन-सी क्लास में पहुँच गए हैं??? Means, this is height.
और लोगों को लगता है कि हम, सरकारी बच्चे, सबसे ज्यादा लकी होते हैं दुनिया में... :(
होते हैं, क्योंकि हमें ऐसे parents मिले हैं... मगर कई बार दुःख भी होता है, जब घुन के साथ गेंहू को भी पिसना पड़ता है... :(
But, let it be... who cares... :)

एक smile की ही तो बात है... :)

दिवाली आई... छुट्टियाँ लिए, सब अपने घरों की और चलते हुए...
कई रंगों के साथ, रंगोली के साथ... दीयों की जगमगाहट, designer candles की रौशनी के साथ... घर की साफ़-सफाई और सजावट में माता लक्ष्मी के आगमन के साथ, पूजा-पाठ और प्रसाद के साथ, पटाखों की गूँज के साथ... और न जाने कितनी wishes और blessings ...  फिर हर बार की तरह ढेर सारी खिलखिलाहट, हंसी, पुरानी यादों को ताज़ा करते किस्से... पारीबा का आराम, सारा शहर बंद, सब एक-दुसरे से मिलने में व्यस्त, कोई किसी के यहाँ की मिठाई की बात करता तो कोई किसी के यहाँ मिठाई न जाने पर थोडा-सा नाराज़ दिखा और कोई उस मिठाई को भेजवाने के इंतजाम में लग गया...
भाई-दूज भी आ गया, सुबह से बस नाना जी के घर जाने की तैय्यारी, कौन कितने बजे जायेगा, कौन किसको लेता आएगा... फिर वो पोनी खोसना, रोग-दोग, पूजा, ऐरी-बैरी की छाती कूटना, भाई को टीका करना, मुंह मीठा करना और हर कुंवारे बड़े भाई को धमकी देना की "अगले साल अकेले टीका नहीं करेंगे :) " फिर सबका खाना, फिर वही हंसी-ठिठोली,
वही मस्ती  मजाक,
वही कोई पुरानी याद,
वही किसी एक की टांग
फिर दुसरे को फसाना
खुद फंस जाने पर
कोई बहाना बनाना,
या फिर अपनी उसी बात पर
खुद भी ठहाके लगाना...
कितना अच्छा लगता है
ये रिश्तों का खज़ाना...

अरे वाह!!! ये तो बैठे-बैठे कुछ और ही हो गया...
शायद यही होती है रिश्तों की मिठास, उनका अपनापन और प्यार... जो न तो कभी ख़त्म होता है, बल्कि बढ़ता ही जाता है... और ऐसे मौकों पे बिना परिवार-रिश्तेदार कैसे रह लेते हैं लोग...
मुझे तो हमेशा से ही ताज्जुब होता है, जब भी ऐसा कुछ सुनती हूँ, "यार! हमें तो अकेले/अलग रहना ही अच्छा लगता है" "अरे यार! ये परिवारवाले भी न, अच्छा सर-दर्द हैं"... 
ऐसा क्यूं है???
वैसे भी अब सब अलग ही रहने लगे हैं, कोई यहाँ जा रहा है पढ़ाई करने, तो किसी को उसकी नौकरी घर से दूर ले जा रही है... किसी लड़की की शादी हो गई {जो जॉब न करती हो}, उसे अपने पति के साथ जाना पड़ता है... तो क्या, यदि हम एक-दो या कुछ दिनों के लिए एकदुसरे से मिलते हैं, साथ बैठते हैं, खाते-पीते हैं, घुमते-फिरते हैं... तो हम हंस नहीं सकते, उन पलों में भी शिकाहय्तें करना ज़रूरी होता है क्या? मीन-मेख निकलना, किसी की गलतियां निकलना, खुद को अच्छा बताने के लिए सामनेवाले को नीचा दिखाना... आखिर क्यों???
क्या ऐसा नहीं हो सकता की यदि हम सिर्फ कुछ पलों के लिए इकट्ठा हों तो बस मुस्कुराएं, हँसे और अच्छी-अच्छी यादें लेकर लौटें... जब भी किसी त्यौहार को याद करें तो अनायास ही एक प्यारी-सी मुस्कान हमारे चेहरे पर आ जाये... बजाय इसके की हमारा दिल दुखे की उसने हमें ऐसा कहा, या हमने उसे ऐसा कहा... कितनी छोटी-सी बात है... और हम जानते-समझते भी हैं... हमें याद भी रहती है... पर न जाने क्यों ऐन वक़्त पे हम इन्हें भूल जाते हैं...  

तो क्यों न अब सिर्फ मुस्कुराहटें फैलाएं...
सारी दुनिया को अपना बनायें...
कोई किसी से बेगाना न हो
किसी का किसी से बैर न हो
सब आपस में एक हो जाएँ...

जानती हूँ की ऐसी बातें कहना जितना आसान है, करना और फिर उन्हीं में अडिग रहना उतन ही मुश्किल... पर कुछ मुश्किल करके भी देखते हैं... कभी-न-कभी तो वो भी आसान होगा...  :)

हिंदी दिवस... भाषा उपयोग...

आज, 14 सितम्बर... हिंदी दिवस... हर तरफ सिर्फ हिंदी-हिंदी चिल्लाते लोग... इस भाषा का उपयोग करने के लिए ज़ोर-शोर से लगे हैं... बहुत अच्छा लगता है ये सब देखकर... सच है हम हिन्दुस्तानी कहलाए जाते हैं, और हिंदी हमारी भाषा है, उसका सम्मान करना चाहिए, उसका उपयोग करना चाहिए... सारी बातें एकदम सत्य एवं यदि हम ही इन बातों को न करेंगें तो कौन करेगा???
कल रात, या कह लीजिये की 12 .00 बजे, जैसे ही 14th लगी... वैसे ही हिंदी-दिवस ने अचानक से ज़ोर पकड़ा... फेसबुक पे बधाइयों का सिलसिला चल निकला... विश्व दीपक जी ने शुरुआत की... उनकी पंक्तियाँ कुछ यूं थीं...
"चलो आज आगे बढ़कर सभ्यता के माथे बिंदी दें,
संस्कृति का पुनुरुत्थान करें, भाषा को उसकी हिंदी दें... "
बस इसी सिलसिले को आगे बढ़ाते हुए मैंने भी एक छोटी-सी कोशिश की...
"अब हिंद को हिंदी का उत्थान चाहिए
हर युग की तरह, एक पूर्ण स्थान चाहिए
जो लोग अछूते हैं इस मिठास से, अभी भी
उन्हें इतिहास का ज़रा-सा ज्ञान चाहिए... "

हिंदी-दिवस पे कई पोस्ट पढ़ें, और हिंदी-उत्थान के लिए हमेशा पढ़ती भी रहती हूँ... भाषा को लेकर हमेशा कुछ-न-कुछ लिखा जाता रहता है... जरूरी भी है... परन्तु जो बात मुझे खलती है वो ये की, एक भाषा के उपयोग को बढ़ावा देने के लिए हम दूसरी भाषाओँ को गलत ठहराते हैं... खासतौर पे इंग्लिश को, उसे ही ये दोष दिया जाता है की उसके उपयोग के कारण हम हिंदी को भूलते जा रहे हैं...
बातें एक हद तक सही भी हैं, परन्तु इसमें गलती किसकी है... पोरा सिस्टम ही ऐसा है हमारा, तो क्या करियेगा??? और कई चीज़ें हैं इस सिस्टम में जो बदली भी नहीं जा सकती... और जो बात अखरती है वो "अपमान करना"... किसी भाषा या व्यक्ति या सभ्यता का अपमान करना कोई बहुत अच्छी बात तो नहीं, और ये हमें कभी सिखाया भी नहीं गया, की खुद को सही बताने के लिए हम दूसरों को गलत ठहराएं या दूसरों का अपमान करें... अब यदि मैं करेले की सब्जी नहीं खाती या हमारे घर में कोई उसे पसंद नहीं करता इसका मतलब ये तो नहीं की करेला एक बेकार सब्जी है... इसी तरह यदि हम हिंदी का उपयोग करते हैं, और दुसरे किसी और भाषा का, तो इसका मतलब ये नहीं की वो भाषा ख़राब है... 
खैर!!! ये बातें हटाते हैं, कुछ सिस्टम की बात करते हैं... सब चाहते हैं की उनके बच्चे, भाई-बहन किसी बहुत अच्छे संस्थान में पढ़ें, उच्च शिक्षा ग्रहण करें, एक बहुत ही उच्च पद के अधिकारी हों... इस सबके लिए हमें एक कड़े परिक्षा-प्रक्रिया से गुज़ारना पड़ता है... जिसमें सबसे पहले एक प्रश्न-पत्र हल करना पड़ता है, और फिर साक्षात्कार की प्रक्रिया... अब यदि हम technical-studies की बात करें तो, वो पढाई ही पूरी-की-पूरी इंग्लिश में होती है, तो क्या हम पढाई छोड़ दें??? फिर आती हैं जॉब की बारी, तो technical-studies के बाद आपसे उम्मीद की जाती की आप इंग्लिश में ही बात करेंगें, न भी करें तो कोई दिक्कत वाली बात नहीं है... और हमारे देश की सबसे अच्छी सर्विसेस मानी जातीं हैं "पब्लिक सर्विसेस" {I.A.S.,I.P.S.,I.P.S,I.F.S.,I.Fo.S.,I.E.S., etc.} और इनके लिए तो आपको भाषा ज्ञान बहुत ही जरूरी है, फिर चाहे वो हिंदी हो, इंग्लिश हो या फिर आपकी क्षेत्रीय भाषा... परन्तु मुझे उसमें भी दिक्कत नहीं है... ये तो सभी जानते हैं... मेरा मेन प्रोब्लम है की हम किसी को गलत क्यों बोंले???
भारत एक बहुभाषी राष्ट्र है, हर भाषा को उतना ही सम्मान, उतना ही आदर जितना किसी दूसरी भाषा को... हर कदम में जहाँ पानी और भाषा बदलती हैं वो हमारा राष्ट्र है... अब उदाहरण के लिए, हमारी क्षेत्रीय भाषा "बघेली" है, परन्तु उसे भी लोगों ने मोडिफाई कर लिया... बघेली खासतौर पे विन्ध्य-क्षेत्र में बोली जाती है, जिसमें रीवा-सीधी-सिंगरौली-सतना-शहडोल शामिल हैं... यहाँ सभी जगह बघेली बोली जाती है, परन्तु हर जगह के हिसाब से उसमें मोडिफिकेशन है जैसे रीवा और सतना सिर्फ 52 km की दूरी पर है, भाषा कहने को बघेली ही है परन्तु लहज़ा और कुछ शब्दों का उपयोग बिलकुल अलग है... तो जहाँ इतनी सी दूरी में भी ऐसी भिन्नता पाई जाए, वहां आप कैसे कह सकते हैं की हर कोई एक भाषा का उपयोग कर रहा है... जी लिखने में बेशक सब एक जैसी ही हिंदी का उपयोग कर रहे हैं... और यदि बात क्षेत्र की हो तो केरल जैसी जगह में हम क्या करेंगे, क्योंकि वहां के तो कल्चर में ही इंग्लिश है... वो यदि अपने भगवान् को भी याद करते हैं तो इंग्लिश में ही करते हैं...
मेरी सोच मुझे एक बात और सोचने के लिए मजबूर कर देती है... जहाँ इतने लोग, इतनी भाषाएँ, इतनी भिन्नता पाई जाए वह यदि एक मंच ऐसा हो जहाँ हम सब एक-दुसरे से जुड़ें, अपनी भिन्नताओं को छोड़ सब एक जैसे ही हो जाएं तो क्या वो गलत है... क्योंकि मेरी नज़र में वो सारी बातें जो भेद-भावना को बढ़ावा दें या भेदभाव करें वो गलत हैं...  और हमें तो हमेशा ही मिलजुल के रहना सिखाया गया है... और यदि हिंदी को बढ़ावा देना है तो प्लीज़ उसके लिए किसी और भाषा का अपमान न करें...

एक बात और, मेरा मानना ये भी है की भाषा कोई भी हो, बस इतनी सरल हो की हर किसी के समझ में आ जाए... शब्द इतने क्लिष्ट न हो की हर शब्द के साथ शब्द-कोष खोलना पड़े... की पता चला, कुछ दिन तो ठीक परन्तु उसके बाद लोग हमें पढना और फिर हमसे बात करना भी छोड़ दें... इसीलिए बातें सरल भाषा में हों तो ज्यादा आसानी होती है... वरना litrature की कमी कम-से-कम हमारे देश में तो नहीं ही है...


P.S. कृपया मेरी इस पोस्ट को ये न समझा जाए की मेन इंग्लिश की पैरवी कर रही हूँ... मुझे कुछ बातें अखरी और मुझे लगा की आज सबसे अच्छा दिन है अपनी इस बात को आप सबके समक्ष रखने का...

खुद को लगता है, तभी दुखता है...

पिछले दिनों में सबकुछ अल-अलग सा समझ आ रहा है... पता नहीं क्यों, पर कभी-कभी अपनी ही सोच अजीब-सी लगती है... doubt होता है की क्या वाकई मैं ही ऐसा सोच रही हूँ? और यदि हाँ, तो क्यों?
और जो सोच रही हूँ वो सही भी है या नहीं...
खैर...
पिछले दिनों में लन्दन में हो रहे दंगों की खबर ज़ोरों पर है... हालात इतने बिगड़े हुए हैं कि ब्रिटेन के प्रधानमंत्री डेविड कैमरन को अपनी छुट्टियां cancel करके वापस आना पड़ा...
कल अचानक बर्मिंगम में दंगाइयों ने आग लगा दी... बहुत नुकसान हुआ है... हिंसा ऐसी फ़ैली है कि इसने लीड्स, ब्रिस्टल और नॉटिंगम को भी अपनी चपेट में ले लिया... पुलिस ने इसी सिलसिले में 400 लोगों को गिरफ्तार भी किया...
ये सारी खबरें सुनकर बुरा लग रहा था... ये दंगाई कहीं भी हों, किसी भी कोने में हों... हमेशा कुछ-न-कुछ उटपटांग करते ही रहते हैं...
यहाँ गलती पुलिस से भी हुई, जब उस बेचारे निर्दोष को गोली मार दी...
चलिए आज नहीं तो कल उनकी हालत सुधर जायेगी... पर मेरी चिंता कुछ और है... कहा जाये तो चिंता का विषय इस बार मैं खुद ही हूँ...
हुआ यूं कि कल जब मैं ये सारी खबरें देख रही थी तो अचानक मेरे मुंह से निकला, "हाँ आज बात खुद पर आई तो दर्द हो रहा है"
मम्मी ने डांट भी दिया कि ऐसा नहीं बोलते...
पर तब मन में कुछ पंक्तियाँ उठीं जो लिखे बिना और यहाँ बाँटें बिना रहा नहीं जा रहा...
जानती हूँ गलत है, ऐसे ख्याल मन में आने ही नहीं चाहिए... और कहते हैं कि गलत बातों को जितना जल्दी और जितने अधिक टुकड़ों में बाँट के अपने से दूर करदो, कर देना चाहिए...
--------------------

आज खुद पे पड़ी
तो दुख न!
सोचो, जब हमें लगा था
तब हमें भी तो दुख होगा न?

तुम्हारे घर में आग लगी,
तो सभी दौड़ पड़े बुझाने के लिए...
fire-brigade बुलाई,
पुलिस बिठाई,
तैनाती करवाई,
कुछ को हवालात कि हवा खिलाई...
बात ऐसी बिगड़ी थी,
कि,
प्रधानमंत्री तक की छुट्टी कैंसल करवाई...
अब समझ आया
कि लगता है तो कितना दुखता है...

चलो बात कुछ पुरानी करें,
याद वो कहानी करें...
कुछ जुल्म-ओ-सितम जो
तुम्हारे पूर्वजों ने
हमारे पूर्वजों पर ढाए थे
जब तुम व्यापार करने का बहाना ले
हमारे देश में आये थे...
फ़िर-फ़िर धीरे-धीरे
तुमने अपना जाल फैलाया
हमें अपना गुलाम बनाया...
तरह-तरह कि कहानी बनाई
अजब लूट थी, जो तुमने मचाई...

तुम्हारे यहाँ कि आग
से तो सिर्फ कुछ नुकसान हुआ होगा
तुम्हारे ही दंगाइयों ने कुछ buildings को फूंका होगा
तुमने पानी छिड़क
सारी आग बुझा भी दी होगी
पर उस आग का क्या
जो तुमने यहाँ दिलों में लगाई
भाई-भाई की दुश्मनी कराई
कितना लहू बहाया हमने,
आज भी बहा रहे हैं
तुम्हारी लगाई आग
आज तक बुझा रहे हैं...

याद करो वो 100 साल
जब हम थे बेहाल
और तुम खुशहाल...

फ़िर कुछ सरफिरों का दिमाग चकराया
तुम्हें खदेड़ा, मार भगाया...
कुछ हिंसा  के पुजारी
तो कुछ अहिंसा के दीवाने थे
सबका मकसद एक,
सिर्फ अलग-अलग बहाने थे...
कुछ के नाम पटल पे हैं
पर कुछ से तो हम अभी भी अन्जाने हैं...

तुमने जो किया वो गलत था,
जो funda अपनाया
पता है, उसका अंजाम
हम आज तक भुगत रहे हैं...
याद है वो, "divide and rule policy"
तुम्हारा rule तो ख़त्म हो गया
पर तुम्हारी कुछ policies अभी भी हमारे बीच हैं...
और,
हम आज भी DIVIDE हैं...

शायद उनके परिवार में किसी को Cancer नहीं हुआ...

जी... सही है... जो कुछ मैंने पिछले दो-तीन दिनों में पढ़ा, उससे तो यही लगता है की उनके परिवार में किसी को cancer जैसी घातक बीमारी का सामना नहीं करना पड़ा... और इसिये शायद वो इसका दर्द नहीं जानते...
वैसे तो मुझे लगता है कि, ये बीमारी कभी किसी को न हो... दुश्मन को भी नहीं... क्योंकि मैंने इस बीमारी को बहुत करीब से देखा है और अपने दिल के बहुत करीब तीन जन खोये हैं... बब्बा{दादा जी}, नानी और बड़की अम्मा... 

बहुत ही दर्द होता है जब आपका कोई अपना आपको छोड़ के चला जाता है... और खासतौर पर जब वो आपकी ज़िंदगी में बहुत ख़ास स्थान रखते हों... दादा-दादी या नाना-नानी का साथ, आशीर्वाद, प्यार-दुलार छोट जाए न, तो सिर्फ यादें और आंसूं रह जाते हैं... I love you all so much... miss you too...  :(
खैर... आप लोग सोच रहे होंगें कि आज अचानक ये बातें कहाँ से आ गईं... इतनी पोस्ट्स में मैंने कभी ये बातें नहीं कहीं, और आज अचानक...
जी, अचानक...
हुआ यूं कि, दो दिन नेट-कनेक्शन ख़राब होने के कारन मैं ऑनलाइन नहीं आ पाई, और जब कल आई तो gmail , facebook etc एक्सेस किया... ढेर सारे मेल्स और ढेर सारे notifications ,...  सब देख रही थी... तभी नज़र गई सोनिया गांधी जी के ऑपरेशन की खबर की details के बारे में... खासतौर पर "Times of India  और economic -times की रिपोर्टिंग पर, क्योंकि ऑपरेशन के लिए बाहर जाने की खबर तो T.V. पर मिल गई थी... जहाँ उन्होंने बताया था कि सोनिया गांधी जी को New York`s Memorial Sloan-Kettering Cancer Center, में एडमिट किया गया है, और एक बहुत ही अच्छे oncologist उनका इलाज करेंगें... इन सब का मतलब तो यही निकला कि उनके cancer -treatment दिया जा रहा है... पहली नज़र में तो यही समझ में आता है... और उसके नीचे ढेर सारे likes और कमेंट्स... न रहें होंगें तब भी करीबन 175 -200  तो पक्के थे... ख़ुशी हुई कि चलो कम-से कम हम अभी भी लोगों की केयर करना जानते हैं... मन हुआ कि पढ़ा जाए कि कैसी शुभकामनाएं दीं हैं लोगों ने, कभी-कभी ऐसे ही कमेंट्स में लोग कुछ बहुत अच्छी बातें सिखा देते हैं... और कमेंट्स पे क्लिक किया... और जो पढ़ा, वाह जी वाह... बहुत खूब... वाकई बहुत कुछ सीख लिया...
कमेंट्स देनेवालों में कुछ महानुभावों ने सोनिया जी के बाहर जाने के कयास लगे थे कि pregnant हैं, उन्हें AIDS हो गया है, कुछ ने शोक जताया था कि वो मर क्यों नहीं जातीं... हाँ कुछ लोगों ने जरूर कहा था "all the luck" "get well soon" पर ऐसे लोगों की संख्या सिर्फ चार या छः थी... बाकी तो सभी एक ही राग गा रहे थे... यहाँ तक कि लडकियां भी... और इनमें से कई लडकियां राहुल गांधी जी पे फ़िदा भी थीं, क्योंकि वो वहां उनके handsome होने के गुणगान कर रहीं थीं...
वाह... मानना पड़ेगा हमें... कितने महान हैं हम सब...
सच मानिये, मैंने सारे कमेंट्स पढ़े, और पढ़ते-पढ़ते रोई भी... हमारे यहाँ किसी को कैंसर होने की खबर भी आती है तो सभी के मुंह से एक ही बात निकलती है "भगवान ये बीमारी दुश्मन को भी न दे"... शायद इसीलिए, क्योंकि हमनें अपने खोये हैं... और न सिर्फ इसी बीमारी के लिए बल्कि कहीं की कोई भी बुरी खबर सुनते हैं तो यही कहते हैं... और माना कि उन्होनें किसी अपने को नहीं खोया,{ भगवान करे कि सभी के अपने सभी के पास रहें पर समय-चक्र का कुछ नहीं किया जा सकता परन्तु कोई इस तरह न जाए} पर क्या किसी के दर्द को समझने के लिए उस दर्द से गुजरना जरूरी है? या संवेदना, भावना नाम की चीज़ें हमारे अन्दर से ख़त्म हो गईं हैं? या हम अन्दूरनी तौर से पाषाण युग में पहुँच गए हैं?
सच... बहुत ही ज्यादा ख़राब लगा...
कुछ ही दिनों में हम अपना स्वतंत्रता-दिवस मानाने वाले हैं... यानी एक और साल आज़ादी के नाम...
वाकई हम कुछ ज्यादा ही आज़ाद हो गए हैं... किसी को कुछ भी बोलने की आज़ादी ही नहीं, बल्कि बुरा, गन्दा, ख़राब और घटिया बोलने में हम पीछे नहीं हटते... 
पर क्या हमारे अन्दर से आत्मीयता ख़त्म हो चुकी है? 
मन तो हो रहा था कि उन सब को सामने बिठा कर चिल्लाऊं और पूछूं कि क्या यही हमारे संस्कार हैं या यही तालीम मिली है हमें? इन्हीं सब लिए हमें गर्व होता है कि हम भारतीय हैं?
अच्छा चलिए एक बात मान भी लें कि सोनिया जी हमारे भारत की नहीं हैं, मेहमान है, विदेशी महिला हैं... और भी ऐसे ही मिलते-जुलते तथ्य... तो फिर "अथिति देवी भवः" भूल गए या आजकल हम भगवान को भी उल्टा-सीधा बोलने में भी नहीं चूकते... और यदि इस बात को किनारे भी कर दिया जाए, तब तो जिन विदेशी महिलाओं के साथ बलात्कार या ठगी की घटनाओं को अंजाम देने वालों को हमें राष्ट्रीय पुरस्कार देना चाहिए, ब्रवेरी अवार्ड से सम्मानित करना चाहिए, उनके सम्मान में उनके जन्मदिवसों में छुट्टियां घोषित होनी चाहिए...

क्या हो गया है हमें???
ये कहाँ आ गएँ है हम???
या शायद मेरे घरवालों की गलती है जिन्होंने हमें नए और मोडर्न ज़माने का नहीं बनाया... समय के साथ चलना तो सिखाया परन्तु यूं बे-ग़ैरत होना नहीं सिखाया... हमें उन्होंने हमेशा यही सिखाया कि "बेटा, जो तुमसे बड़ा है वो बड़ा है, उसे सम्मान देना ही तुम्हारा कर्तव्य है" कितने पुराने विचारों के हैं ये लोग... और हमें भी वही बना दिया... पर हम खुश हैं क्योंकि आज हमें खुद से नज़रें चुरानी पड़ती, और न ही कभी हमारे घरवालों को हमारी वजह से सर झुकाना पड़ता है... हम पुराने विचारों के ही सही, और दूसरों की तरह कूल" न सही पर सर उठा कर जीते हैं और खुश हैं...

हो सकता है कि आप लोगों में कई लोग मुझसे सहमत न हों... कोई बात नहीं... वो आपके अपने विचार हैं... आप अपनी असहमती बतलाने के लिए आज़ाद हैं... हो सकता है कि मैं कहीं गलत हूँ, सुधार की जरूरत हो तो जरूर बताएं...

वापस आ ही रही थी कि...

आज फ़िर से आ गई... ये नहीं कहूँगी कि आ पाई... क्योंकि ये तीन महीने बहुत से अनुभवों से गुज़री और बहुत कुछ सीख भी गई...
और वापस तो 3 दिन पहले ही आ जाती... मगर ये गूगल रूपी काली बिल्ली ने रास्ता काट दिया तो बस... हुआ ये कि इतने दिन बाद जब ब्लॉग लिखने पहुँची तो उससे हिंदी फ़ॉन्ट ही गायब... मुझे लगा कोई सेट्टिंग बदल गई... सब छाना-खंगाला, पर कुछ समझ नहीं आया... "help zone" भी ट्राई किया, मगर कोई फायदा नहीं... फ़िर मासूम अंकल को परेशान किया, तब उन्होंने बताया कि ये मेरे बस नहीं बल्कि सभी में यही दिक्कत आ रही है... और गूगल हिंदी टाईपिंग का रास्ता सुझाया... thank you so much uncle ... :)
हाँ अब अनुभवों की बात... और इन तीन महीनों की बात...
सीखना पड़ता ही, आज नहीं तो कल... बस कुछ हालत अलग होते... सबसे ज्यादा मेरी प्यारी-सी माँ खुश हैं... उनका कहना है कि "चलो अच्छा हुआ, भले ही मेरा हाँथ-पैर टूटा पर तुम इतना मैनेज करना सीख गई"... पर उन्हें या परिवार में बड़ी माँ, बुआ या चाचा लोगों को यकीन नहीं होता कि मैं ये सब मैनेज कर रही हूँ, क्योंकि उनकी नज़र में मैं आज भी वही छोटी सी पूजा हूँ... पर अब अचंभित और खुश... सबसे ज़्यादा माँ और मौसियाँ, क्योंकि उन्हें मैं नानी के यहाँ कि लड़कियों में एक लगती ही नहीं थी और दादा जी के घर में सब यही कह रहे हैं कि "हमें तो पता था कि जब भी वक़्त आएगा ये सब संभाल लेगी"...
खैर!!! ये हो गई घरवालों की बात, पर यदि अब मैं सच कहूं तो मैं खुद समझ नहीं पा रही कि ये सब मैंने कैसे संभाल लिया??? क्योंकि एक टाईम पे हमेशा एक ही मोर्चा संभाला है... पर इस बार तो बाबा रे बाबा... सब कुछ...
और हाँ एक सबसे जरूरी बात... वो सारी महिलायें जो "हाऊसवाईव्स" हैं, मेरा नतमस्तक प्रणाम स्वीकार करें...
मतलब, आप लोग कैसे सब कुछ इतने अच्छे से संभाल लेतीं हैं???
सच कितना मुश्किल होता है न... घर के फईनेंसस, खाना-पीना, मेन्यू, सबकी पसंद-नापसंद याद रखना, व्यवहार-रिश्तेदार, बच्चे... ये तो हो गए कुछ बड़े-बड़े काम... पर छोटे-छोटे काम जो दिखाई नहीं देते, जैसे किस कमरे में कौन-सी चादर, कैसे परदे... और भी पता नहीं क्या-क्या... सच में... तीन महीने में रोज़ मैं सारी हाऊसवाईव्स को सलाम करती थी... और मेरी माँ महान... जिनके कारण शायद मुझसे ये सब हैंडल हो गया... वर्ना पता नहीं मैं क्या करती और माँ की जमी-जमाई गृहस्थी का क्या होता???
पर सच कहूं... इन सारे उलझनों के बीच बस एक ही चीज़ अच्छी लगती थी, और वो थी माँ के चेहरे कि मुस्कराहट... जिसमें ज़रा-सी चिंता, ज़रा-सी मस्ती, ज़रा-सा भरोसा, ज़रा-सा चैन, ज़रा-सा आराम और ज़रा-सा गर्व होता है... और शायद में माँ के मन को ज़रा-सा समझ भी पाई हूँ... क्योंकि हमेशा मैं और मेरी बहन PAPA's Girls रहे... और लगता भी यही था कि माँ भाई को ज्यादा प्यार करती हैं, उसकी और माँ कि ज्यादा बनती है... पर नहीं... उनका असली ध्यान तो बेटियों के ऊपर रहता है... क्योंकि हम उनका गर्व होते हैं... ये बात माँ ने पहली बार मुझसे कही... कि माँ लड़कियों पे ज्यादा भरोसा कर सकती हैं और उन्ही पे ज्यादा डिपेंड भी हो सकती हैं... :)
और सच ये बात जानकर बहुत ही आश्चर्य हुआ... जो हम सोचते थे उससे बिल्कुल उल्टा... और बहुतhi सारी ख़ुशी...
आज के लिए इतना ही... बाकी ढेर सारी बातें धीरे-धीरे अलग-अलग पोस्ट्स में...

मृत्यु के पहले... मृत्यु...

मृत्यु के बाद जीवन है???
है या नहीं है?
पता नहीं...
यदि है...
तो कैसा है? क्या है ?

पुनर्जन्म होगा???
होगा या नहीं?
पता नहीं...
यदि होगा...
तो की होगा? कहाँ होगा?

--------------------------------------------------------

ये सवाल...
और इनसे घिरे हम
हमारा समाज
हमारा दिल
हमारा दिमाग़
हमारा कर्म
हमारा अस्तित्व...

अभी मिले इस जीवन को मृत्यु की संज्ञा क्यों दे रहा है???
क्या अभी मिली इन साँसों को जीने की जगह
हम इन्हें भोग रहे हैं???
इन मिले पलों को बिना गवाएं
क्या हम नहीं जी सकते???
उस पार की चिंता छोड़
हम इस पार नहीं जी सकते???
...

सीध-साध हिंदी...

या ऊँ लिखिन दोहा
या फेर लिखिन चौपाई...
भक्तिरस मा लीन रहें
ता कईसन करतें बुराई?

अईसन डूबे देउता मा
रचि डारिन मानस...
कोऊ लिखिन रामायण
ते कोऊ महाभारत...

कोऊ अईसन लीन भा
के आपन घर-दुआर दीन्हिस छाँड़...
कोऊ बनीं दीवानी मूर्ति देख के
ते कोऊ चल दीन्हीहीं पूजै पहार...

बाह रे बड़े-बड़े रचियता
ते बाह रे ओन्खर गाथा...
सुन-सुन ओन्खर किस्सा कहानी
भैया चकराय लाग हमार माथा...

"अम्मा तैं दई दे हमहीं पूरी-तरकारी
जाहे मा पूर सार है"
हमसे बनत ही सीध-साध हिंदी
बाकी हमारे लाने सब बेकार है...


*ये हमारी क्षेत्रीय भाषा "बघेली" में मेरी पहली कोशिश थी... ये भाषा सरल एवं हिंदी से मिलती-जुलती है इसीलिए मैंने अर्थ नहीं लिखे, परन्तु यदि किसी को कहीं किसी शब्द का अर्थ समझने में दिक्कत हो तो कृपया बता दें... उम्मीद है की मेरी पहली कोशिश आपको पसंद आयेगी...
**मेरा किसी को कोई अघात पहुँचने का मकसद नहीं है... परन्तु यदि किसी को कोई बात ख़राब लगे तो क्षमा कीजियेगा...

काश मुहब्बत कुछ आसाँ होती... तो...


काश मोहब्बत को पढ़ पाना
इतना आसाँ होता... तो...
एक-आध लाईब्रेरी हम भी बना लेते...

काश मोहब्बत को समझ पाना
इतना आसाँ होता... तो...
दो-चार गुरुओं को ख़ास हम भी बना लेते...

काश मोहब्बत को देख पाना
इतना आसाँ होता... तो...
टेलिस्कोप/माईक्रोस्कोप हम अपनी आँखों में लगवा लेते...

काश मोहब्बत को लिख पाना
इतना आसाँ होता... तो...
दो-चार महफ़िलें हम अकेले ही सजा लेते...

पिछले दिनों...

पिछले कुछ दिन बड़े अजीब बीते...
बहुत सारे परदे उठे,
बहुतों की सच्चाई सामने आई...
पहले तो यकीन नहीं हुआ,
कि ये वाकई सच है...
दिमाग ने मान भी लिया...
पर दिल को समझाना जरा मुश्किल था...
धीर-धीरे वो भी समझ गया

लगा जैसे किसी जोर का तमाचा मार
नींद से जगा दिया दिया हो मुझे...
और एक सुन्दर-सा ख्वाब
जो देख रही थी मैं
उसे तोड़ दिया हो
चकनाचूर कर दिया...
तिमिर से निकाल मुझे
अचानक
दोपहर कि चिचालती धुप में ला खड़ा किया हो...
आँखे भी मिलमिला गयीं थीं...

पर धीर-धीरे उन्होंने भी
साचा के उजाले को,
उसकी तपन को अपना लिया...

सबसे बड़े आश्चर्य की बात
न जाने कहाँ से मुझमें
ये सहनशक्ति आ गयी
कि मैं उन चेहरों को
देख मज़े ले रही थी
मुस्कुरा रही थी
मुझे खुद नहीं पता कि
मेरा comfort-zone
अचानक इतना बड़ा कैसे हो गया...

पर...
जो हुआ
बहुत खूब हुआ
अच्छा हुआ...
मुझे इस यथार्थ को जाने का संयोग प्राप्त हुआ...

उन सभी चेहरों को
उन मुखौटों को शुक्रिया...

और माई चली गई...

सुबह ही तो ज़रा-सी तबियत बिगड़ी थी... सिर्फ सर ही घूमा, थोड़ी-दी उल्टी हुई... पर रात में तो खाना खाई थी... अचानक... रात को 11 बजे... वो हम सब को छोड़ कर चली गई...
न जाने और क्या-क्या अचानक होगा???
पूरी तरह plan बनाया था कि, इस बार उनसे मिलने ज़रूर जाउंगी... और मन भी बहुत था उनसे मिलने का...
वैसे तो वो मेरे दोस्तों की "दादी" थी, पर वो दोनों भी उन्हें माई बोलते थे इसीलिए वो सबकी माई बन गई थीं...
परसों रात से न तो किसी काम में मन लग रहा है और न ही उन दोस्तों से बात करने की हिम्मत हो रही है...
वो कुछ दिन और रुक जाती तो मिल तो लेती मैं...
सब न कहा कि कुछ लिख, पर मन ही नहीं हुआ... सोचा मन हटाने के लिए पुरानी कविताओं को पूरा करने की कोशिश करूँ, पर जो शब्द लिखे थे वो भी समझ नहीं आ रहे थे, आगे लिखती कैसे???
सच कहूँ तो यहाँ भी यूँही लिखे जा रही हूँ जो भी मन में आ रहा है... जाने कौन-सा शब्द किससे मिल रहा है, या नहीं... कोई चिंता नहीं... कुछ नहीं...
परसों रात ही लग रहा था भाग कर जाऊं और उनसे ऐसे ही लिपट कर रो लूं... पर शायद बदकिस्मती ये ही कहलाती है... और मन, वो तो इतना पापी है कि क्या कहूँ???
पहली बार अपनी intuitions पर इतना गुस्सा आ रहा है, चिढ हो रही है... सुबह जब उनकी तबियत कि खबर मिली थी तभे मन में आया था कि बोल दूं कि, "देखे रहना"... फ़िर लगा नहीं यार, ऐसा नहीं सोचते... अपने-आप को समझाया, और रात में...
रिकोर्ड है कि जब भी मेरी और माँ कि कमर दर्द होती है, वो एक अजीब-सा दर्द होता है जो न तो दवाई से ठीक होता है और न ही मालिश से, तब कुछ-न-कुछ अभशगुन होता है...
अभी भी ऐसा ही हो रहा था...
मेरा चचेरा भाई भी नाडियाट में admit है, उसके दोनों kidney fail हो गई हैं, उसकी भी तबिओयत रोज़ खराव्ब होती है... इसीलिए doctors transplant करने की process आगे नहीं बढ़ा पा रहे हैं... बस उसी का डर लगता है रोज़... जब भी फ़ोन आता है, किसी का भी हो, बस भगवान से अर्जी लगाना पहले शुरू कर देते हैं कि सब ठीक रखना...
कहाँ हम उसे ताक कर बैठे थे और कहाँ ये खबर...
हे भगवान!!! वाकई तुम्हारी लीला समझ से बाहर है...
We will miss you MAAI...