कुछ लिखना चाहती हूँ...

कुछ लिखना तो चाहती हूँ,
पर... लिख नहीं पा रही हूँ...
कुछ कहना तो चाहती हूँ,
पर... कह नहीं पा रही हूँ...
न जाने ये चोर दिल के किस कोने में छुपा बैठा है?
उसे भगा अपने -आप से दूर कर देना चाहती हूँ...
पर...
भगा नहीं पा रही हूँ...

मै अपने बचपन की सखियाँ कहाँ से लाऊं???

आज एक बहुत-ही पुराना और प्यारा-सा गीत सुना... और जब से सुना है तब से ज़ुबां पर वही गीत है। हाँ, माँ जरूर खुश हैं कि शायद अब मै शादी के लिए तैयार हूँ। खैर, वो उनकी गलतफहमी मात्र है। गीत के बोल कुछ इस प्रकार हैं:-

अगले बरस भेज भैया को बाबुल
सावन में लीजो बुलाय रे...
लौतेम्गी जब मेरे बचपन की सखियाँ,
दीजो संदेसा बजाय रे...


फिल्म:- बंदिनी {1963}
गीतकार:- शैलेन्द्र
गायिका:- आशा भोंसले
संगीत निर्देशक:- एस. डी. बर्मन


{गीत सुननें के लिए गीत के बोलों को क्लिक करें}

मेरे लिए तो सावन भी आएगा, पापा बुलवा भी संदेस भी भेजवा देंगे और बुलवा भी लेंगे, पर मै अपने बचपन की सखियाँ कहाँ से लाऊँगी? क्योंकी वो सब तो कहीं खो गयीं हैं। मेरे पापा की सरकारी नौकरी है, और इसीलिए हम एक जगह से दूसरी जगह और तबादलों का सिलसिला यूँही चलता रहता है। पर आज यह गाना सुनकर अचानक सारी सहेलियों के चहरे आँखों के सामने आ गए, सबके नाम यूँही याद करने लगी। बड़ी अजीब-सी बात है कि कईयों के नाम भी नहीं याद। न जाने वो कैसी होंगी? उन्हें मै याद भी होऊँगी या नहीं?
खैर... हाँ पर इस तबादले के सिलसिलों में एक चीज़ अच्छी
है कि आपको दोस्त बहुत सारे और बहुत प्रकार के मिलते हैं। ये भी अपना अलग ही महत्त्वपूर्ण अनुभव है। परन्तु, आज के इस तकनीकी युग में इतना तो है कि किसी को भी खोजना इतना मुश्किल नहीं है, जैसे:- ऑरकुट या फेसबुक के ज़रिये आप बहुत सारे ओगों को खोज भी सकते हैं और नए लोगों से जुड़ भी सकते हैं, पर क्या है न, कि सभी लोग नहीं मिलते... और जो नहीं मिलते उनके मिलने की सिर्फ आस लगाई जा सकती है।
तो मै भी इसी आस में हूँ कि हो सकता है आज नहीं तो कल मै भी अपने बचपन के मीतों से मिलूंगी... बस जब तक नहीं मिल रही हूँ तब तक यहीं से उनकी खुशीयों की कामना कर सकती हूँ...

हम सुबह चार बजे क्यूं जागें?

सुबह हुई नहीं कि दलीलें मिलनी शुरू हो जाती हैं, "हम तुम्हारी उम्र के थे तब चार बजे से उठ कर पढ़ते थे", "हम तो कभी नहीं सो सकते सात बजे तक, पता नहीं तुम लोग कैसे सो लेते हो", रात में जल्दी सो जाया करो तो सुबह भी जल्दी नींद खुले", क्यों जागते रहते हो रातभर, सुबह से उठ कर काम कर लिया करो"... वगैरा-वगैरा। और हम मन-ही-मन सोचते हैं कि हमसे नहीं होता दिन में काम, ऑफिस निपटाओ, घर आओ फ़िर वही, न बाबा न... और दिनभर घर फुटबाल का मैदान भी तो बना रहता है, और फ़िर स्कूल के वक़्त से ही आदत हो गयी है रात को पढने की, जागने की तो अब क्या करें? खैर...
और-तो-और वहीँ दूसरी ओर हमें महान वैज्ञानिकों, लेखकों, हस्तियों के नाम और काम से प्रेरित करने की कोशिश भी करते हैं... बताते हैं कि कैसे उन लोगों ने रात-रात भर जाग कर पढ़ाई की, चिंतन-मनन किया और तब जाकर अपने क्षेत्र में महारत और नाम हासिल किया। जैसे:- गैलिलियो रातभर मोमबत्ती के सहारे पढ़ते थे, शेक्सपीयर स्ट्रीट-लाइट में पढ़ते थे, और भी न जाने कौन-कौन क्या-क्या करते थे। पर एक तो ये बात समझ से परे है, ये लोग दिन में क्या करते थे जो सारे आविष्कार, लेख और बड़ी संरचनाएँ रात में ही गढ़ी गयीं। और फ़िर हमें जिसका उदाहरण देकर कुछ बनने और कुछ बड़ा कर गुजरने, नाम कमाने की प्रेरणा दी जाती है, हम तो उन्ही रास्तों पर चल रहे हैं। तो फ़िर हम क्यूं सुबह चार बजे से उठें? कभी सुना है कि कोई वैज्ञानिक ने कोई आविष्कार सुबह किया हो? या किसी बड़े साहित्यकार ने रात में ली पूरी नींद का वर्णन किया हो, किया भी होगा तो किसी और की नींद का, न कि अपनी।
तो फ़िर हमें भी रातभर जागने दीजिये। क्या पता किसी दिन हम भी कुछ ऐसा कर जाएँ और आनेवाली संतति के लिए एक और बोझ छोड़ जाएँ, जैसे हमारे लिएय कईयों ने छोड़ें। उन्हें क्या, उन्होंने तो नाम कमाया और चल दिए, अब हमसे पूछिए कि हमें कितना पढना पड़ता है, और वो भी जो कभी हमारे किसी काम नहीं आनेवाला। अरे नहीं, हो सकता है काम आए, जब हम अपने आनेवाली पीढी को पढ़ाएंगे या उनके साथ रोने में कुछ आंसू गिराएंगे। सही है तब तो काम आ ही जायेगा, आखिरकार अनुभव का अपना अलग ही स्थान है।

नहाने हो बाद में और खाने को पहले...

नमस्ते...
आज अचानक पूजा करते वक़्त, भगवान के समक्ष एक बात याद आ गई। सोचा क्यूं न आप लोगो के साथ बांटी जाए। बात को कुछ वक़्त हो चुका है, यही कोई 2 साल, हमारे नाना के घर एक बड़ा-सा पूजाघर है, और यदि देवालय बड़ा है तो बनी बात है की भगवान की मूर्तियों और रूपों की संख्या भी ज्यादा ही होगी। तो हुआ यूं कि हम सब भई-बहन आँगन में बैठे कुछ हँसी-ठिठोली कर रहे थे और उस पुजहा की और भी देख रहे थे, {जी नाना के यहाँ पूजाघर को पुजहा बोलते हैं}, और धीरे-धीरे हंस भी रहे थे, बीच में यदि कोई बड़ा वहां से गुजरता तो एक-दूसरे को चुप होने भी कहते, पर नाना जी के कान हमारी बातों में ही थे श्स्यद क्योंकी वो वहीँ आँगन में तैयार हो रहे थे संध्या-आरती के लिए। अरे भई! पुराने पंडित हैं, राजगुरु-राजपुरोहितों का खानदान है, तो परंपरा भी वैसी ही चली आ रहीं हैं, सुबह-शाम पूजा होना, भगवान का दोनों टाइम का नहाना, भोग लगना, पुजहा की साफ़-सफाई... वगैरा-वगैरा... पनतु यदि धोखे-से हम भाई-बहनों में किसी को कह दिया जाए किसी भी एक टाइम की पूजा करने को तो बस, सभी एक-दूसरे का मुँह देखते और इशारे से बोलते की "तुम कर लो"। पर वहां हमारी माँ-मौसियों का सिखाया को-ओपरेटिव फुन्दा काम कर जाता और दो-तीन लोग मिलकर पूजा निपटा देते।
बस ऐसी ही बातें चल ही रहीं थीं की नानाजी ने संध्या-आरती के लिए घंटे-घंटियाँ, शंख बजने की आवाज़ लगाई "जो-जो बच्चे आरती में आना चाहते हैं तो आ जाओ, आरती शुरू होने वाली है"। हाँ एक बात और, हमारे नानाजी थे बहुत ही अच्छे, वो हमेशा जानते थे की उनके नातिन-नातियों को क्या पसंद है, तो कभी भी उनकी तरफसे कोई भी बाध्यता नहीं होती थी कि आरती में आना जरूरी है या नहीं, और शायद यही सबसे बड़ी खासियत थी कि बच्चे उनके पास अपने-आप चले जाते थे। हाँ तो जैसे ही उन्होंने आवाज़ लगाई सारे बच्चे पहुँच गए उनके पास, और हाँ, जब भी हम सब इक्कठा होते थे वो शाम का भोग कुछ ख़ास और ज्यादा ही लगाते थे, बाकी आम दिनों में तो दूध-शक्कर, दूध-मिश्री या दूध की जगह मलाई हो जाती थी। तो जैसे ही हम सब पुजहा में पहुँचते, पूरा-का-पूरा पुजहा भर जाता, {हम कुछ ज्यादा ही बच्चे हैं, बड़ा परिवार है न, मम्मी लोग सात बहनें हैं, और उन सभी के बच्चे... तो आप खुद ही सोच सकते हैं}। खैर आरती हुई, प्रसाद मिला और हम सब फ़िर से आँगन में, अपनी पंचायत में... कुछ देर बाद नाना भी वंही आकर बैठे और अपनी चाय का इंतज़ार करने लगे। हम लोगों ने जैसे नाना को देखा पहले तो थोडा-सा चुप हुए और फ़िर टॉपिक ही बदल दिया। पर शायद नाना भांप गए थे, सो वो खुद ही बोले... बोले, "बच्चों चलो एक बात बताओ, कि क्या ये सही है कि भगवान नहाते तो तब हैं जब हम नहा कर उन्हें नहलाएं, और खाने के लिए हमसे पहले ही खा लेते हैं?"। हम सब नाना को देखना लगे, जैसे हमारी बातें पकड़ लीं गईं हों। तब नाना फ़िर से बोले, "आख़िर यदि हम नहाते पहले हैं तो हमें खाना भी पहले ही मिलना चाहिए, या भगवान को नहाना पहले चाहिए?" हंस अब धीरे-धीरे मुस्कुराने लगे, इतने में हमारी एक प्यारी-सी छोटी बहन बोल पड़ी, "पता है नाना जी, हम लोग अभी यही बात कर रहे थे, और भैया लोग तो ये भी बोल रहे थे कि इतने सारे भगवान हैं क्यूं पुजहा में? किसी दिन हम लोगों को पूजा करने को कहेंगे तो हम इन्हें आधे कर देंगे।" नानाजी पहले तो हम लोगों की तरफ देखे, फ़िर हसने लगे, बोले... "मुझे भी ऐसा ही लगता था, जब मैं छोटा था, पर तब इतने भगवान नहीं थे और न ही वो हनुमान जी का मंदिर" {अरे हाँ! हमारे नाना के घर के सामने एक बहुत बड़ा-सा मैदान है फ़िर रोड है और उसके उस पार हमारा ही एक कुआँ और हनुमान जी का मंदिर भी, और वहां भी रोज़ पूजा और भोग लगता है। और तो और नाना का घर इतना छोटा है कि वहां 8 तो आँगन हैं वो भी बड़े-बड़े, तो बाकी आप अंदाजा लगा लीजिये}। और हम सब हंसने... ऐसा लगा जैसे नाना जी समझ गए थे कि हम बच्चे किस बात को लेकर इतनी गपशप कर रहे थे और मज़े-से हंस रहे थे... और यदि हम लोग धोखे-से मम्मी लोगों से कहते तो पक्के-से दांत पड़ती, कि "आख़िर हम लोग भी तो बच्चे थे, हम लोगों ने भी किया है ये सब"। पर नाना, नाना बिलकुल अलग थे... इन लोगों जैसे नहीं... हाँ हामारी एक मौसी जरूर बताती हैं कि, वो जब छोटी थीं और उन्हें पूजा करने को कहा जाता था तो वो पाँचों उँगलियों से चन्दन लगती थीं, कहती थी कि, "हम एक साथ चन्दन घिस लेते और सभी भगवानों को एक थाली में रखकर {शिव जी और सभी सालिग्राम जी को } पाँचों उँगलियों में चन्दन लगाकर सभी को शोर्ट-कट में निपटा देते थे...
बस आज भी मम्मी के पुजहे में पूजा करते में अचानक से ये यादें ताज़ा हो गयीं... पर जवाब आज तक नहीं मिला, कि भगवान खाने को पहले और नहाने को बाद में क्यूं होते हैं?
आप भी सोचिये और मुस्कुराइए...

आज की बारिश... और यादें


आज बारिश में बच्चों को को भीगता देख,
मन फ़िर से यादों के गलियारों में भटकने चला गया...

वो स्कूल से घर आते में,
जानबूझ कर भीग जाना,
वो रेन-कोट न होने का बहाना बनाना...
ड्रेस गीली हो जाने पर,
मम्मी की भारी भरकम डांट खाना...
और,
यदि धोखे से बीमार पड़े तो,
सारे रिश्तेदारों, दोस्त-यारों के वो अजीबो-गरीब नुस्खे बताना...
और दुबारा ये बचपना न करूँ, ये भी समझाना...

ऐसा नहीं है कि अब भीग नहीं सकती,
या बहाने नहीं बनाऊँगी...
भीगूँगी, बहाने बनाऊँगी...
और मम्मी की ढेर सारी डांट खाऊँगी
रिश्तेदारों, दोस्त-यारों के भी फ़ोन आयेंगे,
फ़िर से सब अपने-अपने तरीकों से समझायेंगे...
पर...
अब बात ड्रेस गीली होने की नहीं,
बात होगी कि मै बड़ी हो गई हूँ...
बात मेरे बचपने की नहीं,
बात होगी की अब इतनी तो समझदार हो ही गई हूँ...

हाँ सही ही तो है...बड़ी तो सिर्फ मै हुई हूँ,
बाकी सब का यौवन तो वैसा ही है...
सावन तो सिर्फ मेरे लिए बदला है,
बाकी सब के लिए तो मौसम वैसा ही है...
खैर...
हाँ तो हम कहाँ थे...
उन बच्चों को देख,
उनके बीच खुद को खोज रही थी...
अपने भविष्य को, यूँही
भीगते, मस्ती करते सोच रही थी...
तभी अचानक, मम्मी की आवाज़ का कानों में आना...
"खिड़की बंद करो वरना पाने अन्दर आयेगा"
और हमेशा की तरह मेरी एक और सोच, एक और सपने का टूट जाना...

मेरी अपनी-सी तमन्ना...

धुंधली-सी रोशनी में
जागी-सी तमन्ना
रात की तन्हाई में
एक हमदम -सी तमन्ना
उमड़ती भावनाओं को किसी मंजिल की तलाश थी शायद...
चारों और पसरे सन्नाटे में
एक सिसकी-सी तमन्ना

सुलझे बालों के बीच
उलझी-सी तमन्ना
सजे-संवरे बिस्तर पर
बिखरी-सी तमन्ना
बहते दर्द को किसी मंजिल की थी शायद...
सूखी तकिया के किसी कोने में
गीली-सी तमन्ना

इस भीड़ के किसी कोने में
वो शांत-सी तमन्ना
कांच के टुकड़ों से भरी पोटली में
नाज़ुक ख्वाब-सी तमन्ना
भटकती आँखों को किसी मंजिल की तलाश थी शायद...
अनजानों के हुजूम में
मेरी अपनी-सी तमन्ना

अनकही बातों में
इशारों-सी तमन्ना
अनछुई चाहतों में
अहसासों-सी तमन्ना
बिखरते मोतियों को किसी मजिल तलाश थी शायद...
कुछ पूरी, कुछ अधूरी कविता में
लफ़्ज़ों-सी तमन्ना...

दो मिनट का मौन... आज़ादी-दिवस के नाम

जी हाँ, सही पढ़ा आपने... दो मिनट का मौन, आज़ादी-दिवस के नाम...
मेरे कहने का मतलब यह नहीं कि मुझे भारतीय होने पर या स्वतंत्रता-दिवस जैसे शुभ दिन पर गर्व या इसे मानाने कि ख़ुशी नहीं है... बल्कि अब स्कूल छोड़ने का दुःख सताता है, क्योंकि स्कूल में हम ये दिन बड़े ही चाव से मानते थे... पर न जाने क्यों इस बार अपने इस गौरवपूर्ण दिवस पर दो मिनट का मौन; जो हम शोक व्यक्त करने और किसी की आत्मा की शांति के लिए रखते हैं; करने का मन हो रहा है... शोक से यह मत समझ लीजियेगा कि मै उन शहीदों की आत्मा या उनके बलिदान का शोक मनन चाहती हूँ, क्योंकि...
"शहीदों कि चिताओं पर लंगेगे हर बरस मेले, वतन पर मिटने वालों का बाकी यही निशाँ होगा"
और मै उन्हें कुछ कह सकूँ इतनी मेरी हस्ती नहीं...
परन्तु यह शोक उन्ही से जुड़ा होगा, उन्ही की शहादत में होगा, क्योंकि ये मौन होगा उन सपनों के लिए जो उन्होंने देखे थे और उस एक सपने के लिए अपना हर सपना कुर्बान कर दिया, ये मौन होगा उस भविष्य के लिए जो उन्होंने इस देश के लिए चाहा था और उस एक चाहत के लिए अपनी हर चाहत देश के नाम कर दी, उस मकसद के लिए जिसके उनके रास्ते भले ही अलग-अलग थे पर मंजिल एक ही थी, उस एक तमन्ना के लिए जो उनके सीने में धड़कन की तरह धड़कती थी और उसी तमन्ना के लिए उन्होने अपनी हर धड़कन उन्ही हँसते-हँसते रोक दी, उस एक भारत के लिए जिसके लिए उन्होंने अपनी हस्ती ही मिटा दी... इससे ज्यादा मोहब्बत और क्या होगी किसी की अपने वतन से... पर आज, आज देखो तो वैसे कुछ भी नहीं जो उन्होंने चाहा था, जो उन्होंने अपनी हर दुआ में माँगा था। पर तब भी हम भारतीय अपने-आप को तसल्ली देने से नहीं चूकते, अपने-आप में ही खुश रहते हैं की हमने ये किया वो किया, तरक्की की विज्ञानं के क्छेत्र में, शिक्छा के छेत्र में, और भी न जाने क्या-क्या। पर ऐसी तरक्की किस काम की हमें जो हमें एक दूसरे के खिलाफ खड़ा कर दे? और अपनी गलती दूसरों पे मढ़ देना जो जैसे हमें बचपन से सिखाया गया हो... वो हमें सिखा गए थे अपनों के लिए लड़ना और हम, हम अपनों के लिए का तो पता नहीं पर हाँ अपनों से ज़रूर लड़ रहे हैं। न जाने क्या हो गया उनके सपनों का भारत? और इसीलिए कल, यानी १५ अगस्त, स्वतंत्रता दिवस पर मै रखूंगी दो मिनट का मौन... उनकी हर चाह, हर सपने और हर प्रार्थना के लिए।

आज होते गर तुम, तो देखते
कैसा है तुम्हारे सपनों का भारत
मै क्या कहूँ, कि
क्या से क्या हो गया तुम्हारे अपनों का भारत
तुमने चाही थी एकता, अखंडता और शांती...
यदि कहीं से देख सकते हो तो बताओ
क्या वकाई वैसा ही है तुम्हारे सपनों का भारत...

सोच

यूँ न पूछो...

न पूछो हमसे बीती रात का आलम...
बिस्तर की सिलवटें सारा हाल बयाँ करतीं हैं...




कोशिशों को पूरा होते देखने कि ख्वाइश थी शायद...

उन्नीदीं आँखों में जागते सपने संजोने की कोशिश थी शायद,
पंखे को चलता देख, थक कर सो जाने की कोशिश थी शायद,
मेरी करवटों से शायद ये बिस्तर भी थककर चूर हो गया...
बार-बार यूँ घड़ी वक़्त देखना...
आज पूर्व से किरणों को जल्दी बुलाने की कोशिश थी शायद...

टी.व़ी. के चैनल्स यूँ बदलने की वजह,
कोई आवाज़ सुनने की ख्वाइश थी शायद
कागज़ पर यूँ कलम चलने की वजह,
दिल की हर बात लिख देने की ख्वाइश थी शायद
कुछ खास ही होगा
जिसने मेरी नींद को यूँ मुझसे दूर कर दिया
ऐसे ही ढेर सवालों को लिखते-लिखते
ज़वाब खोज लेने की ख्वाइश थी शायद...

क्या Google हिंदी से डरता है???

जय हिंदी, जय हिन्दुस्तान
सभी हिंदी हिंदीभाषियों और हिंदी-प्रेमियों को जय-जय...
ये बात बहुत दिनों से मुझे, मेरे विचारों, और मेरे मन को खाए जा रही थी, पर आज न जाने क्यूं बिना लिखे रहा नहीं गया... क्या वाकई ये सच है कि गूगल जैसी बड़ी साईट हिंदी लेखकों से डरती है? क्या है, गूगल की अलग-अलग सुविधाओं द्वारा मेरा ध्यान आकर्षित किया और जब मैंने सही में ध्यान दिया तो ये एक बात पकड़ में आई...
हुआ यूँ, कि मेरे एक ब्लॉगर मित्र ने कहा कि, जब मै ब्लोगिंग कि दुनिया में प्रवेश कर ही चुकीं हूँ तो मुझे इससे कुछ लाभ भी उठाना चाहिए, आख़िर मेहनत तो मेरी ही है और यदि यूँही अपनी बात लिखने में कुछ कमी हो तो हर्ज़ ही क्या है? मुझे भी लगा कि सही ही है, आख़िर माँ-पापा को भी तो लगना चाहिए कि नहीं लड़की वक़्त जायर नहीं कर रही, कुछ भी यूँ ही कीबोर्ड पर खटर-पटर नहीं कर कर रही... और तो और आज तक मेरे परिवार में किसी ने लेखन के इस बड़े अखाड़े को देखा तक नहीं था, तो उन्हें भी लगा कि चलो किसी नए क्षेत्र में शुरुआत तो कर रही है... इसीलिए, मैंने माउस के ज़रिये गूगल की अलग-अलग सर्विसेस में हाथ-पाँव मारने शुरू कर दिए... और गूगल का बहुत-बहुत धन्यवाद जो उन्होंने हम जैसे लिखनेवालों के लिए सुविधाए उपलब्ध कराई है, परन्तु भेद-भाव के साथ... अब एक तरफ एक सर्विस है गूगल-एडवर्ड्स {Google-adwords}, जिसके लिए हमें गूगल को कुछ भुगतान करना पड़ता है, तो उसके लिए हिंदी की कोई रोक-टोक या किसी भी और भाषा की कोई पाबंदी नहीं है, परन्तु वही एक सर्विस है गूगल-एडसेंस {Google-adsence}, जिसके लिए गूगल लेखकों को भुगतान करता है... और यही आता है कहानी में मोड़, गूगल-एडसेंस के नियमों और शर्तों में हिंदी भाषा को अनुमति ही नहीं है... मतलब यदि आप हिंदी में लिख रहे हैं तो गूगल आपके उस अकाउंट को अनुमोदित नहीं करता है...
तो हम इसका अर्थ क्या निकाले, कि गूगल हिंदी-लेखकों से डरता है?
कि कहीं, हिंदी भाषा को अनुमति देदी, तो न जाने उसे किसे कितना भुगतान करना पड़े???
आप क्या सोचते हैं...

इतनी तेज़ बारिश और ये मन...

उफ़ ये बारिश... वो भी इतनी तेज़...
ये सर्द हवाएँऔर उस पर पानी की फुहार
न जाने क्यों है इतनी गर्जन
शायद हमसे कुछ कहना चाहता है ये मौसम
ये मौसम,
बढाताहै मेरी तन्हाई
कातिल उसकी याद, फ़िर खंजर ये जुदाई
पिघलना चाहती हूँ उसकी बांहों में
पढ़ना चाहती हूँ अपनी चाहत को उसकी आँखों में...

क्या होगा वो भी यूँ ही मेरे इंतज़ार में
"हम मिलेंगे कभी" इसी ऐतबार में...
न जाने कैसा होगा वो, कहाँ होगा?
कैसी होंगी उसकी आँखें, उसकी बाँहें?

ये सपना सच होगा या रहेगा सिर्फ धोखा
न जाने कब एक होंगी हमारी जुदा रांहें...