समझदार या नासमझ???

कभी-कभी कुछ बातें बिलकुल ही समझ से परे होती हैं... समझ नहीं आता कि हम किस पाले में हैं, या वो हमें क्या समझते हैं... कभी हम उनके लिए दुनिया में सबसे ज़्यादा समझदार इंसान होते हैं और फ़िर कभी अचानक से पूरे बेवकूफ... कभी उन्हें हमारा कोई काम न करना बिलकुल अच्छा नहीं लगता और कभी वही काम करना पसंद नहीं आता... आख़िर हम करें भी तो क्या करें? और पूछें भी तो किससे कि हम उनकी नज़रों में हैं क्या... समझदार या नासमझ...?
जी हाँ... मेरा इशारा हमारे बड़ों की तरफ है, खासतौर पर हमारे माता-पिता... कभी-कभी लगता है कि हाँ, हम उन्हें कुच्छ तो समझते हैं, पर कभी-कभी वो, उनकी बातें कुछ भी समझ नहीं आती... कभी तो वो हमें किसी काम को करने या कोई निर्णय लेने पर कहते हैं कि, " हाँ, हमारा बेटी/बेटा अब समझदार हो गई/गया है" या "हमारे बच्चे अब बड़े हो गए हैं, अब वो सही फैसले ले सकते हैं" {तो क्या सही फैसले सिर्फ बड़े ले सकते हैं?}, खैर..., और कभी उन्ही बच्चों को अचानक से ये सुनने मिलता है कि, "अभी तुम इतने बड़े नहीं हुए कि ऐसे फैसले ले सको" या, "कभी तो बड़ों जैसी बात किया करो" या, "अब तो बड़े हो जाओ"... वगैरा-वगैरा... जब शाबाशी मिली तब तो फूल के गुप्पा हो गए पर जब फटकार हाँथ आई तब लग गए विश्लेषण करने में कि आख़िर गलती हुई कहाँ? पर गलती समझ ही नहीं आती... और ये किसी एक बच्चे की दास्ताँ नहीं है बल्कि घर घर कि कहानी है... न सिर्फ बच्चों को बल्कि यह बात हर छोटे को अपने बड़े से सुनने मिल जाती है...
बस इन्ही बातों ने परेशान किया था, कि आख़िर हमें कभी समझदार तो कभी एक नासमझ की पदवी क्यूं दे दी जाती है... और तो और ये तबादला बहुत ही जल्दी-जल्दी किया जाता है... तब मी इनकी बातों में ध्यान देना शुरू किया कि कौन-सी बातों के लिए हम होशियार और कौन-सी बातों के लिए नालायक होते हैं? और जो पाया वो तो और भी समझ से कोसों दूर था... जब हम कोई ऐसा काम करते हैं जो हमारे माता-पिता या बड़ों के मन का होता है तब तो हम समझदार और यदि धोखे से कोई ऐसा काम कर दिया जो उनके मन का नहीं होता तो हम नासमझ घोषित हो जाते हैं... और उससे भी बड़ी विडंबना यह कि कहते भी हैं कि, "भई, हमने तो तुम्हे पूरी आज़ादी दी कि तुम अपने मन से अपने काम करो और अपनी मर्जी से फैसले लो" या फ़िर, "हमने तुम आर कभी अपनी कोई मर्जी नहीं थोपी"... अरे! ये क्या बात हुई? एक तरफ तो आप कहते हैं कि आपको हमारा फैसला रास नहीं आया और दूसरी तरफ आप ही कहते हैं कि आप हम पर अपनी मर्जी नहीं थोपना चाहते... आख़िर हमारे लिए आपकी ख़ुशी सबसे ज़्यादा मायने रखती है, या फ़िर हम आपकी फिक्र करना छोड़ दें, पर ऐसा चाह कर भी नहीं क्र सकते... तो करें तो क्या करें?
हाँ, एक बात और, ऐसा लगता है कि वो जानबूज कर नहीं करते, ये हमारे समाज की मनोवैज्ञानिक समस्या है... हो सकता है कि कल को मै भी इसी समस्या से ग्रसित रहूँ, और मुझसे छोटे सोचें कि, वो ऐसा क्या करें कि हमेश ही मेरी नज़रों में वो समझदार रहें... आख़िर हर छोटा यही तो चाहता है कि उसके माता-पिता या बड़े उसे हमेशा ही समझदार माने... परन्तु, मेरी तरफ से मेरी पूरी-पूरी कोशिश रहेगी कि मैन अपने फैसले दूसरों पर न थोपूँ... चाहे छोटा हो या बड़ा... समझदार हो या नासमझ... ;-)

नानी की वो एनिमेटेड कहानियां...

याद है, बचपन में... चाहे गर्मी की छुट्टियों में या नाना के घर में कोई अवसर... बस पहुँच गए हम अपने ननिहाल... दिन-भर भाई-बहनों के साथ मस्ती, इधर दौड़ना उधर भागना, मौसी लोगों से ढेर सारी बातें करना, सब अपने-अपने स्कूल की, शहर की दोस्तों की बातें एक-दूसरे को बताना, नाना-मामा लोगों का वो मेहमाननवाजी करना, नानी का पूछना कि "क्या कहोगे? क्या बना दें?"... किसी भी माँ को ये टेंशन नहीं होता था कि उनका बच्चा कहाँ है, किसके साथ है, खाना खाया, नहीं खाया... बस पूरा का पूरा दिन कैसे कट जाता था, समझ ही नहीं आता था... और फ़िर आती थी रात, दिन-भर की दोस्ती रात में किसी के काम नहीं आती थी क्योंकि रात में तो नानी के बगल में कौन सोएगा, इस बात पर तो कोई भी बच्चा समझौता करने को तैयार ही नहीं होता था... सबको बस उनके बगल में ही सोना होता था, और हो भी क्यों न, एक नानी का वो ममत्व से भरा आँचल और उनकी वो कहानियाँ... बनी बात है कि जो बाजू में सोयेगा वो नानी के ज्यादा करीब रहेगा और उसे कहानी सबसे अच्छे से सुनाई देगी... यदि सच कहूँ नानी के बाजू में लेटकर कहानी सुनने का मज़ा कुछ और ही होता है... आज भी उस अहसास को भूला नहीं है ये मन...
वो कहानियाँ, जिनमे कभी एक रजा होता, उसकी तीन-चार रानियाँ होतीं, पर किसी को भी औलाद नहीं थी, फ़िर कोई संत-ग्यानी यज्ञ करते हैं और रजा को दक्षिण के जंगलों में जाना होता और वहां लगे किसी आम के पेड़ से 12 आमों का गुच्छा एक ही निशाने में तोडना होता और रानियों को लाकर देना होता, और उनमें से छोटी रानी वो आम मक्खन के घड़े में दाल देती और उसका बेटा उसी घड़े में जन्म लेता, बड़ा होता....................... या फ़िर एक राजकुमारी होती, जो रोती तो आंसू कि जगह मोती गिरते और हंसती तो फूल झड़ते, उसे एक दुष्ट जादूगर रजा अपने साथ ले जाता, फ़िर उसी रजा के महल के दासों में से एक दास, जिसे उस राजकुमारी पर दया आती और धीरे-धीरे वो उससे प्यार करने लगता,और उसे बचाता............... या फ़िर एक रजा के चार बेटे रहते, सबकी शादी हो जाती सिवाय छोटे राजकुमार के, वो जिससे शादी करना चाहते उसके महल तक पहुँचने का रास्ता जानने के लिए एक ऋषि-मुनि की सेवा करता और जब व्याह कर उसे घर ले जाने लगता तो बीच में एक भिखारिन उस राजकुमारी को कुँए में धकेल देती, और फ़िर वो राजकुमारी उस कुँए में कमल का फूल बनकर खिलती पर उसे कोई तोड़ नहीं पता, फ़िर वो कमल का फूल लोगों को कुछ संकेत देता, कोई पहेली बोलता जिसका जवाब वो राजकुमार होता और वो जैसे ही कमल का फूल तोड़ने के लिए आता, कमल का फूल अपने-आप कुँए से निकक उसके पाँव में आ जाता, फ़िर वो राजकुमार उसे घर ले जाता और फ़िर वो कमल का फूल कुछ कहता जिसे भिखारिन समझ जाती और उसे तोड़कर बागीचे में फेंक आती और वो कमल का फूल चने की भाजी बनाकर उग जाता............... या फ़िर कोई मूर्ख इंसान अपने ससुराल जा रहा होता तो उसकी माँ समझाती कि बेटा नाक की सिधाई में जाना और जहाँ रात हो वहीँ सो जाना, वो आदमी अपने ससुराल के पिछवाड़े तो पहुँच जाता है पर माँ ने कहा था इसीलिए वहीँ सो जाता है और ससुराल की सारी बातें सुन लेता है, दूसरे दिन ससुराल जाकर बिलकुल जानकार बन जाता है और पूरे शहर में "जानकार पांड़े" के नाम से मशहूर हो जाता है, फ़िर उससे मिलने लोग आने लगते हैं, भाग्य कुछ ऐसा साथ भी देता है कि उन्हें सब पहले से पता होता है, फ़िर रानी कि कोई चीज़ चोरी हो जाती है और रजा जानकार को बुलातें हैं, और इस बार जानकार को कुछ पता नहीं होता.................... और भी न जाने कितनी कहानियाँ... बच्चे तो बच्चे, बड़े भैया-दीदी भी आकर बैठ जाया करते थे इन कहानियों को सुनने, और कई बार तो कुछ लोग सुनते-सुनते सो जाते और दूसरे दिन किसी और से पूछते, और यदि धोखे से वो बच्चा सो जाता जिसकी बारी नानी के पास सोने की होती तब तो पूरी-पूरी सौदेबाजी होती थी, कि नानी के पास सोने दोगे तो बताएँगे... आज सोचो तो हंसी आती है, कि क्या-क्या नहीं किया नानी के पास सोने के लिए... और हाँ, यदि कभी ऐसा मौका आया कि सिर्फ हम लोग नानी के घर गए हैं तब तो शेर होते थे, और दूसरों को फ़ोन या मिलने पर बताते थे कि नानी ने कौन सी नयी कहानी सुनाई... पर कभी-कभी हम भी पहाड़ के नीचे आ जाते थे...
पर सच, कितना अच्छा लगता था, नानी सुनती जाती और हम सुनते रहते और उसे अपने ही रंगों से सजाते रहते... रजा कैसा दिखता होगा, रानिओ के कपडे जेवर, उसका बड़ा सा महल, राकुमारी कैसी होगी जिसके आँखों से मोती गिरते होंगे, बोलता हाउ कमल कैसा होगा, कढ़ाही पर फुदकती बोलती चने की भाजी कैसी दिखती होगी... हर किसी की अपनी सोच, अपने रंग और अपना आकार... कभी-कभी तो हम एक-दूसरे को चिढाने के लिए दुष्ट रजा के नाम से बुलाते और यहाँ तक कि "जानकार पांड़े" तो आजतक सबकी जुबां में हैं... वो सब भी तो एक तरह का एनीमेशन ही होता था... कभी कोई कमल बोलता नहीं, पर उन कहानियों में बोलता था... ये भी एक तरह का एनीमेशन ही हुआ... आजकल की फ़िल्में, अधिकतर, एनिमेटेड ही तो होती हैं... और पसंद भी वही की जातीं हैं... जहाँ शेर इंग्लिश बोलता है, आदमी हवा में उड़ते हैं... हनुमान, रिटर्न ऑफ़ हनुमान, अर्जुन, नीमो, हम हैं लाजवाब, बैटमैन, स्पाइडरमैन, अवतार, कोई मिल गया... न जाने कितनी ससरी फिल्में... कुछ पूरी एनिमेटेड और कुछ में इस तकनीक का इस्तेमाल...
आख़िर, एनीमेशन है क्या? एक तरह का प्रकाशीय भ्रम जो 2-D या 3-D आकृतियों से तैयार किया जाता है, और उसे चलचित्र के रूप में बड़ी स्क्रीन में दिखाया जाता है... वो सब कल्पना से परिपूर्ण होता है और सत्य से दूर-दूर तक वास्ता नहीं रखता... परतु यह तकनीक बहुत ही खर्चीली हैं, बहुत लागत आती है... उदहारण के तौर पर, अभी-अभी सुनने में आया कि शाहरुख़ खान अपने घर की छत पर खड़े होकर चिल्ला रहे थे, कि यदि उनकी "Ra.One" फिल्म नहीं चली तो वो सडकों पर आ जायेंगे, वैसे इस फिल्म में तकनीकी तौर पर एनिमेशन्स का इस्तेमाल किया गया है... इस बात में सच्चाई कितनी है पता नहीं पर सुनने को तो यही मिला... सही भी है, पहले 2-D, 3-D इमेजेस बनाना, फ़िर उन्हें एक क्रम से धीरे-धीरे ढालना... वक़्त और पैसा दोनों ही बहुत मात्र में लग जाता है... पर नानी की कहानियों कि लागत कुछ भी नहीं होती थी, और-तो-और उसमें मिलता ही था... नानी की वो ममता जो सिर्फ हमारे हिस्से की होती थी... आख़िर उन्हें भी तो "मूल से ज्यादा सूद प्यारा होता था"...

उन पथराई आँखों को देखा...

ये बात कल की है, जब हम उस रास्ते से गुज़र रहे थे... तभी अचानक, उन आँखों पर नज़र गयी... मजबूर, लाचार, इंतज़ार करती हुईं, और ये सोचती हुई कि आज घर क्या लेकर जाना है?
ये सड़क किनारे किताब बेचनेवाले एक बूढ़े कि बात है... न जाने क्यूं अनायास ही उसने मेरा ध्यान आकर्षित किया और मैं बस उसकी आँखे देखती रह गयी, या शायद उसकी मजबूरी पढने और समझने की पूरी कोशिश कर रही थी... वो हर आने-जाने वाले को एक उम्मीद के साथ देखता और जब वो इंसान वहां से यूँही, बिना कुछ लिए गुज़र जाता तो उसकी आँखों को निराशा की परछाई घेर लेती... शायद वो कुछ पुरानी किताबे लिए था, कोई व्रत की थी तो कोई किसी भगवान की आरती, और कोई किसी भगवान का पूजन-संग्रह... वही पतली-पतली किताबों का ढेर, और एक दूकान के बाहर छोटा-सा कोना... अचानक से मौसम घिर आया, बादल छा गए, ऐसा लगा जैसे कितनी जोरों की बारिश होगी... तभी वो बुड्ढे बाबा ने उन साड़ी किताबों को एक बड़ी-सी पीली पोलिथीन में लपेटा और दुकानवाले को सहेज कर कहीं जाने लगे... जब देखा कि वो कहाँ जा रहे हैं, तो पता चला कि आगे एक चाय कि दूकान थी... चलो! किताबे नहीं बिकी, बदल घिर आये पर उन्हें चाय पीने का मौका तो मिल गया...
पर नहीं, वो वहां चाय पीने नहीं गए थे, बल्कि चाय के बर्तन धोने गए थे... हे! भगवान ये क्या हो रहा था?
जब मेरे ड्राइवर ने मुझे यूँ उन्हें घूरते देखा तो उसने पूरी कहानी बताई... कहा "दीदी जी, ये आदमी रोज़ यहीं किताबें बेचता है, और उसी चाय के ठेले में जाकर बर्तन भी साफ़ करता है... इसका ये रोज़ का नियम है... आप पहली आर देख रही हैं न, इसीलिए आपको अजीब लग रहा होगा..." मैंने उनसे कहा कि "क्यूं भैया, क्या इनके घर में और कोई नहीं जो काम करता हो?" उन्होंने कहा " हैं न, इनके दो लड़के हैं जिनकी शादी हो चुकी है, पर वो इन्हें अपने साथ नहीं रखते, बेटी भी थी पर उसे उसके ससुराल वालों ने दहेज़ के लिए मारडाला, और इनकी पत्नी तो बोहोत पहले ही ख़तम हो गयीं थीं"... मुझे बहुत ही जोर-से गुस्सा आया, कि कैसे बच्चे हैं, जिसने पला-पोसा, बड़ा किया , आज वही इन्हें अपने साथ नहीं रखते, बेचारे बाबा... मुझसे रहा नहीं गया और मैंने पूछा कि "इनके दोनों लड़के ऐसे हैं या उनकी पत्नियों ने नहे घर से निकलवा दिया?"... तब पता चला कि नहीं
, न तो लड़के ख़राब हैं और न ही उनकी पत्नियाँ, ख़राब यदि कुछ है तो वो नहीं नियति...
भैया ने बताया कि, "पहले इनके खुद के चाय-भजिया का एक होटल था, होटल बहुत बड़ा तो नहीं था, पर मशहूर बहुत था, पूरे शहर में नाम था और बड़े-बड़े घरों के लोग भी इनके यहाँ के पर्मानेंट कस्टमर भी थे... तीनो बच्चों कीशादी भी अच्छे घरों में हुई, पर न जाने अचानक कहाँ से काल ने आकर इन्हें घेर लिया... इनकी लड़की के ससुराल वालों की मांगे शुरू होने लगी, पहले तो साड़ी मांगे पूरी कर दी इन्होने पर जा मांगी जाने वाली चींजो की कीमते बढ़े लगीं तो इन्होने और इनकी लडकी ने विरोध किया, तो लडकी के साथ मार-पीट हुई, पहले तो उसने अपने मायके में कुछ नहीं बताया, पर एक दिन वो अपने मायके आई और भाभियों से उसने अपनी व्यथा सुनाई, सब परेशान हो गए थे... बहुओं ने कहा कि पुलिस में रिपोर्ट दर्ज करा देते हैं, पर बाप ने मन कर दिया कि कहीं आगे जाकर उनकी लड़की को कोई दिक्कत न हो, और उन्होंने लड़की के ससुरालवालों कि मांग पूरी कर दी, और लड़की को ससुराल भेज दिया, इस उम्मीद के साथ कि अब उनकी लड़की खुश रहेगी, पर एक हफ्ते बाद ही अचानक से खबर आई कि उनकी लड़की ने आत्महत्या कर ली... सभी के पैरों के नीचे-से जैसे ज़मीं ही खिसक गयी हो... लाख कोशिशि की ये साबित करने कि ये आत्महत्या नहीं क़त्ल है, पर कोई फायद नहीं हुआ... कुछ महीनों बाद पता चला कि लड़का बाहर किसी लड़की को पसंद करने लग गया था, और ये दहेज़-प्रताड़ना, मार-पीट सब सिर्फ बहाना था कि लड़की अपने पति को तलाख दे दे, और वो दूसरी शादी करने को आज़ाद हो जाये... और-तो-और उसके माँ-बाप भी इस कृत्य में शामिल थे क्योंकि वो दूसरी लड़की के घरवाले ज्यादा दहेज़ देने को बोल रहे थे... और तब से ये बाबा अपनी लड़की की मौत का ज़िम्मेदार खुद को मानते हैं... इन्होने उसकी मौत के बाद खुद घर भी छोड़ दिया, लड़के और बहुओं ने बहुत कोशिश की कि ये घर वापस चले जाएँ, पर ये नहीं गए... रोज़ यहीं किताबें बेचेंगे और उस दूकान में बर्तन, कभी-कभी तो कुछ दुकानों में झाड़ू-कटका भी करते हैं, जो पैसे मिलते हैं उनसे रात में कुछ भी खाते और शराब पीते हैं... और फ़िर यहीं-कहीं फुटपाथ में सो जाते हैं... बस ऐसे ही चल रही है इनकी ज़िन्दगी..."
ये सब सुनने के बाद समझ नहीं आया कि क्या कहूँ, या करूँ? आखिर इनके भी लड़के हैं, ये भी बहुएँ लेकर आये... लड़की कि मृत्यु के दुःख ने उन्हें तोड़ दिया... शायद, इन्हें लगता है कि यदि ये पुलिस में रिपोर्ट दज करा देते तो ठीक था, या शायद ये कि उन्होंने अपनी लड़की के लिए सही लड़का नहीं चुना? न जाने क्या... पर शराब का सहारा लेना क्या उचित हैं?
कभी-कभी कुछ बातों का निष्कर्ष निकालना कितना मुश्किल हो जाता है...?

तेरा ख्याल... और फ़िर वही सवाल...


जब भी लिखना कुछ चाहा, सबसे पहले तेरा ही ख्याल आया...
"और क्या लिखूं तुझ पर?"
फ़िर यही सवाल आया...


लिखना जब भी चाहा कागज़ पर...
तो रुक गयी कलम वहीँ, जहाँ तेरा नाम आया
सोचा, लिख दें दिल पर...
तो बढ़ गयी धड़कन, जैसे ही रूह को तेरा ख्याल आया
लिखना तो आसमान पर भी चाहा...
पर लिख सकूँ तेर बारे में, ये सोच आसमाँ को भी छोटा पाया
लिख देते तेरा नाम इस ज़मीं पर...
पर मैला न हो जाए, इसलिए ज़मीं को बी ठुकराया
"हवाओं पर लिखना कैसा होग?"
पर छू जायेगा तू किसी और को, सोच कर दिल सिहर आया
हम तो चला देते पानी पर भी कलम...
पर बहकर कहीं दूर न चला जाए मुझसे?, सो, हाँथ वहां भी चल न पाया

चल...
लिख देते हैं तेरा नाम अपने दिल में... धड़कन में... रूह की परछाइयों में...
अपनी साँसों में... जिस्म में... अपनी अंगड़ाइयों में...
जिससे...
जब भी चाहूँ तुझे पाऊं खुद में ही समाया...
लोग देखकर पूछें मुझसे...
कि मैं हूँ या तेरी मोहब्बत का साया...

आखिर, आज तुम आ ही गए...

"आखिर... आज... इतने दिनों का इंतज़ार ख़त्म हो ही गया...
आखिर... आज, तुम आ ही गए...
न जाने कितना इंतज़ार करना पड़ा था इस दिन का... लगता था कि न जाने तुम आओगे भी या नहीं...
रोज़ T.V. पर खबरें सुनते थे, और रोज़ तुम्हारे आने का इंतज़ार करते थे... तुम्हारे आने, न आने कि बातें करते थे... बस, सोचा करते थे कि जिस दिन तुम आओगे वो दिन कैसा होगा, उस दिन हम क्या करेंगे... भगवान् से प्रार्थना करते थे कि तुम जल्दी आ जाओ... पर आज सारा इंतज़ार ख़त्म हो गया, आज तुम आ गए...
पता है, ऐसा लगता था कि तुम्हारे इंतज़ार में आँखे भी पथरा जायेंगी, तन जल जायेगा, सब बंजर हो जायेगा...बीच में तुम आये तो थे, पर सिर्फ एक-दो दिनों के लिए बस... तब एक बार लगा तो था कि तुम आ गए, पर तब तुम जल्दी ही वापस भी चले गए... तब सब यही कहते थे, कि "अब यदि आना तो जाने के लिए मत आना..."
पर आज... आज फिर से सब तरफ ख़ुशी का माहौल है... तुम आये क्या, ऐसा लगा जैसे सभी की खुशियाँ लौट आयीं... बड़े-बूढ़े, जवान-किसान, यहाँ तक कि बच्चे भी... सब खुश हैं... तुम्हरी एक फुहार ने सबका इंतज़ार ख़त्म कर दिया... अब सबको यकीन हो गया कि तुम इस बार जाने के लिए नहीं आये... सभी ने भगवान को ढेर सारा धन्यवाद दिया..."
हाँ, आज हमारे शहर में बारिश हुई... बरसात के इस मौसम कि शुरुआत आखिर हो ही गयी... रोज़-रोज़ बस आसमान कि तरफ देख कर सभी इसका इंतज़ार कर रहे थे, गर्मी के कारण सब बस सुलझे ही जा रहे थे, परेशान थे कि न जाने इस साल कि बारिश कब आएगी... पर आखिरकार आज भगववान ने सभी की दुआएँ कबूल कर लीं... पर चलो देर से ही सही पर बारिश आई तो...

बड़ा अच्छा लगा जब मिट्टी की वो सौंधी खुशबू आई,
चारों तरफ के माहौल में ज़रा सी ठंडक लाई,
सड़कें धूलिं, पेड़-पत्ते धुले
सभी को छाते की ज़रुरत समझ आई...
सबके चेहरे खिल उठे, अचानक
तापमान नें भी कुछ कमी आई...
बारिश आई... देखो बारिश आई...

जाने क्या तूने कही... जाने क्या मैंने सुनी... *

जाने क्या तूने कही... जाने क्या मैंने सुनी...
बात कुछ बन ही गयी...
जाने क्या तूने कही....

वाकई... कितना प्यारा, खूबसूरत और शरारतों से भरा गीत है ये...
सिर्फ कुछ बोल पढ़ते ही अपने-आप गुनगुनाने लगते हैं इस गीत को... और वहीदा जी वो प्यारा-सी, खूबसूरत-सी, मासूम-सी अदाएं जैसे आँखों के सामने आ जाती हैं... जैसे सबकुछ बस उनकी शक्ल पर लिखा हो... उनकी खूबसूरती के तो लोग कसीदे पढ़ते हैं... और तारीफ कितनी भी करो कम है...
और गीता दत्त जी कि आवाज़ ने इस गाने में जैसे चार-चाँद लगा दिए हों... बिलकुल जैसे ये गीत लिखा ही गया हो गीता जी कि आवाज़ और वहीदा जी पर फिल्माए जाने के लिए...
फिर एस.डी. बर्मन जी का संगीत और गुरु दत्त जी का निर्देशन...
कमाल... क्या बात, क्या बात, क्या बात...
पर कितना अच्छा होता था, कि जो आपने कहा वो सामने वाले ने हु-ब-हु समझ लिया...
पर अ वो बात कहाँ? अब तो हम कहते कुछ और हैं, और सुनने वाला समझता कुछ और ही है... और फिर गलतफहमी... फिर बैठो, और समझाओ कि आप वाकई में कहना क्या चाहते थे...
कितना अजीब लगता है न... कि कभी-कभी आपकी हर बात को समझनेवाला आपकी कोई छोटी-सी बात नहीं समझ पता... या, आप कहते कुछ हैं, आपकी बात का मतलब कुछ और ही निकाल लिया जाता है... और उन गलत मायनों के चलते आपको भी गलत समझ लिया जाता है... और-तो-और, लोग सिर्फ आपको गलत समझें, वहां तक तब भी ठीक है, इन्ही बातों के चलते लोग आपसे नाराज़ भी हो जाते हैं, और आपकी शिकायत गैरों से करते हैं... अरे, यदि आपको कुछ गलत लगा या कोई गिला-शिकवा है, तो सीधे हमसे पूछिए न... हमारी बात, हम कह रहे हैं... तो उसका मतलब भी तो हमें ही पता होगा न...

गाने के बोल वही हैं बस थोड़े से मतलब बदल गए हैं...
जाने क्या तूने कही... जाने क्या मैंने सुनी...
बस गलत मतलब निकाला और साड़ी बात बिगड़ गयी...
खैर... यदि यही सुधर जाए तो शायद अधिकतर झगड़े तो यूँही सुलझ जाएँ... या शायद हो ही न...


Note:-{यदि आपको गीत याद न आ रहा हो या गीत सुनने कि इक्षा हो तो कृपया * को क्लिक करें...}

वो सुबह की एक प्याली चाय....

हमारे देश के ; न कहा जाये तो; लग-भग 80% लोगों के दिन कि शुरुआत एक जैसी ही होती है, चाय से... रोज़ सुबह लग-भग हर घर का हर बड़ा, आँख खुलने के बाद यही चिल्लाता सुने देता है... "अरे, कोई एक कप चाय दे दो..." कहें तो... कहानी कहानी घर की...
हाँ, पर पसंद अलग-अलग हो सकती है लोगों की... जैसे... कोई काली चाय पीता है, तो किसी को ये दीद के साथ पसंद है... किसी-किसी को तो खालिस दूध की चाय ही अच्छी लगती है और किसी-किसी को ग्रीन-टी... किसी को कम शक्कर, किसी को ठीक-थक, किसी को ज्यादा तो किसी बिना शक्कर की चाय चाहिए...किसी को अदरक वाली, किसी को पुदीने वाली, किसी को तुलसी वाली, तो किसी को मस्सले वाली... किसी को हल्की तो किसी को कड़क... ऐसे ही किसी को ये सुबह वाली चाय की प्याली बिस्किट के साथ चाहिए तो किसी को ब्रेड के साथ, तो किसी को सिर्फ चाय की प्याली... किसी को वो कप में चाहिए तो किसी को ग्लास में... अपना-अपना स्वाद, अपना-अपना अंदाज़...
एक मुसीबत और... कुछ लोगों को सुबह उठ कर चाय बनाने में बहुत आलस आता है... मुझे ये बात इसलिए पता है क्योंकि यदि मुझे दिनभर कभी, किसी काम के लिए आलस आता है तो... सुबह उठ कर चाय बनाना... और वो भी अपने लिए... खैर...
और हाँ... कुछ को तो उस प्याली के साथ अखबार जरूर चाहिए, वरना उन्हें उस प्याली में स्वाद समझ नहीं आता...
कहने को तो वो सिर्फ एक प्याली चाय ही होती है, ज्यादा कोई खास नहीं होती, पर सही मायनों में कितनी जरूरी होती है वो... बामुश्किल, ५ मिनट ही तो लगते हैं उस एक प्याली को ख़त्म करते, पर तब भी कितना सारा काम सोच लेते हैं हम उस ५ मिनट में... सारे दिन का लेखा-जोखा... जो जरूरी काम हैं... कहाँ जाना है? किससे मिलना है? किसे फ़ोन करना है? क्या-क्या पेंडिंग काम हैं जो निपटाना है... लगभग पूरे दिन का टाइम-टेबल सेट हो जाता है...
पर कभी-कभी उस प्याली पर गुस्सा भी आता है... जब कोई अच्छा सपना देख रहे हो, या जब रात में देर से सोये हो, या बहुत थक गए हो... या ठंडी-सी सुबह में अच्छी सी नींद... और एक अचानक से एक आवाज़ कान में... "चलो, उठो... चाय पी लो, सुबह हो गयी है" ... "हे! भगवान्... ये चाय का बुलावा भी अभी ही आना था?" ऐसा ही लगता है न... सारे सपने का, अच्छी-सी उस नींद का, उस थकान का... सबका कचरा... और उठो उनींदी-सी आँखों में, बेमन... और हाथ में वही एक प्याली चाय...
यह भी एक विडंबना ही है... जो चीज़ कभी-कभी हमें ओहोट अच्छी लगती है, हमारी ज़रुरत होती है, हमारे दिन की शुरुआत होती है... वही कभी-कभी इतनी ख़राब लगती है की यदि उसे बनाने वाला मिल जाये तो बस, सारा गुस्सा उस पर चीख कर या चिल्ला कर निकल दो... कि... "यदि, तुम्हे बनाना ही था, तो कुछ और बना देते... और चलो बनाया भी तो क्या जरूरी है कि इसे सुहा-सबह ही पिया जाये?"
पर कुछ भी कहिये... होती बड़ी ही काम की और मजेदार है... वो सुबह की एक प्याली चाय...
तो बस मज़े लीजिये उस प्याली के... और उस प्याली वाली चाय के...

काश ज़िंदगी में भी रिवर्स गेयर होता...


कार, जीप या और कोई वाहन... आज हमारी ज़िन्दगी का बहुत ही ज़रूरी अंग... स्कूल, ऑफिस, बाज़ार, या किसी रिश्तेदार के घर ज़रुरत किसी-न-किसी वाहन की ही पड़ती है, और पड़े भी क्यों न, आजकल सब-कुछ इतनी दूरी पर जो हो गया है...
तो कुल मिलकर आप सभी किसी-न-किसी वाहन का ऊपयोग तो करते ही होंगे, और अधिकतर तो खुद ही ड्राईव भी करते होंगे... वाकई, खुद ड्राईव करने में जो मज़ा है न, वो शब्दों में बयां कर पाना थोडा मुश्किल है, शायद उस ड्राईवर सीट में ही कुछ ख़ास है जो इंसान उसकी ओर बस खिंचा चला जाता है... खैर... याद करिए जब भी कहीं जाते हैं, तो यदि कोई सामान पीछे छूट जाये, या चलते-चलते यूँही कुछ अच्छा दिखाई दे जाये जिसे दुबारा देखना हो या... या फिर कभी धोखे से गाड़ी में या गाड़ी से कुछ टकरा जाये, जिसके लिए आपको उतर कर देखना पड़े या आगे भारी भीड़ हो और आपको जल्दी कहीं पहुँचना हो और आपको दूसरा रास्ता; जिसके लिए आपको थोडा वापस जाना पड़े; पता हो... तो हाँथ यूँही, अपने आप बैक गेयर लगा देते हैं... कितनी अच्छी व्यवस्था है न... हमें कितनी आसानी होती है कि बस हमने कुछ सुधारना चाहा और लो हो गया...
काश... ऐसा ही एक गेयर हमारी ज़िन्दगी में भी होता... जब भी ऐसा लगता कि पीछे कुछ छूट गया है, तो बस बैक गेयर लगाया और पहुँच गए उस पल में जहाँ कुछ छूट गया था और समेत लिया वो जो छूट गया था... कितना अच्छा होता न, जब भी लगता की कोई ऐसा पल है जो दुबारा जीना है, तो ज़िन्दगी डाली रिवर्स गेयर में और जी लिया वो हसीन और खुशियों से भरा पल... कई बार जब हम कुछ गलत कर रहे होते हैं, तब हमें उस गलती का अहसास नहीं होता, हमें लगता है जो हम कर रहे हैं वो सही है... या कह लें की कई गलतियां तो हम यूँही नादानी में या बचपने में कर बैठते हैं... पर हमें उन गलतियों का अहसास होता है, फर्क बस इतना होता है कि जब गलती महसूस होती है तब हमारे हाँथ में कुछ नहीं होता, तब तक हम बहुत आगे आ चुके होते हैं, यदि कुछ होता है तो सिर्फ एक तम्मना कि काश हमने उस वक़्त ये न करके वो किया होता; मतलब जो गलत किया वो न करके वो किया होता जो सही है; पर ऐसा नहीं कर पाते, या कहें तो हो ही नहीं सकता... पर सोचिये कि यदि रिवर्स गेयर होता, और हम पीछे जा सकते तो... तो फिर हम उसी पल में जाते और वो करते जो नहीं किया, यानि वो करते जो उस वक़्त सही होता... पर अफ़सोस नहीं हो सकता...
क्यों??? क्योंकि ये ज़िन्दगी है... जो चलती गाड़ियों जैसी ही है, पर बिना रिवर्स गेयर के... और इस गाड़ी में ब्रेक भी नहीं होता है... इसका इंजन एक बार स्टार्ट होता है जब हमारा जन्म होता है... और बंद भी एक ही बार होता है... इसकी स्पीड हमेशा एक ही रहती है{ वो बात अलग है कि हमें ऐसा नहीं लगता}, हाँ, इसकी स्टेयरिंग जरूर हमारे ही हाथ में होती है, जो हमारे कर्म होते हैं... तभी तो रास्ते भी हम ही चुनते हैं... कर्म अच्छे रहेंगे तो हाइवे मिलेगा और बुरे कर्म को तो पगडण्डी, पहाड़ और जंगल ही नसीब होगा... कुछ गाड़ियों कि बीच-बीच में सर्विसिंग भी होती है, वो भी उन्ही कि गाड़ियों कि होती है जो इसका ठीक तरह से ध्यान नहीं रखते... पर ज्यादा गलती नहीं है उनकी क्योंकि आज कल के इंधन में मिलावट भी तो बहुत रहती है, आए-दिन खबरें सुनने को मिलती हैं... पर कई तो इससे जानबूझ कर ख़राब करते हैं, वो लोग कुछ अलग ही तरह का इंधन इस्तेमाल करते हैं जो इसके अलग-अलग पुर्जों को नुक्सान पहुँचाता है... जैसे सिगरेट, शराब, ड्रग्स... वगैरा-वगैरा... तो यदि जान कर ही गलत इंधनों का इस्तेमाल होगा तो गाड़ी को तो ख़राब होना ही है न... खैर...
ये गाड़ी जिस रास्ते पर चलती है उसमे उतार-चढ़ाव भी होते हैं... दुःख होते हैं चढ़ाव जहा ऐसा लगता है कि हमारी गाड़ी धीमी हो गयी है और हम उससे जल्द-से-जल्द निकलना चाहते हैं... और सुख होते हैं उतार, जहाँ रुकना भी चाहें तो गद्दी सटाक से आगे बढ़ जाती है... जब हमारी गाड़ी को चढ़ाई पार करने में दिक्कत होती है तब भगवान, हमारे माता-पिता, भाई-बहन, दोस्त- रिश्तेदार... जो हमारे अपने हैं... वो सब मिलकर धक्का लगाते हैं और हमारी गाड़ी चढ़ाई पार कर जाती है... और जब ढलान आती है तो हम अपने सभी अपनों को लेकर हल्ला करते, मस्ती करते, जश्न मानते आगे बढ़ जाते हैं...
पर आगे बढ़ने के बाद भी कभी-कभी लगता है कि काश एक रिवर्स गेयर होता और हम वापस वहीँ पहुँच जाते...
पर एक चीज आज भी हमारे पास है और हमेशा रहेगी... हमारी मुस्कान... जो हमारा और हमारे अपनों का बहुत बड़ा संबल है... और इस गाड़ी का बहुत ख़ास इंधन भी...

So... keep smiling...