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जाने कहाँ गया वो दिन???


"आज कुछ special बना दो, Sunday है... "
... अभी तो परसों कढ़ाही पनीर बनी थी... 

"सुनो, मैं अपने दोस्तों से मिल कर आ रहा हूँ, वो आज Sunday है न..."
... हाँ, दोस्त कौन, सब Office वाले ही तो हैं... जैसे बाकी दिन तो उनका मुँह भी देखने नहीं मिलता...
"Please, आज shopping पर मत चलो, आज घर पर ही रहते हैं... Sunday बस तो मिलता है..."
... हाँ हमारे लिए तो छुट्टी अलग दिन मिलती है... आज market मत जाओ और बाकी के दिन time नहीं मिलता... 
ये जुबां और मन की बातों की बहस चल ही रहा था कि एक आवाज़ आती है...
"भाभी, आज शाम को काम पे नहीं आएँगे, Sunday हैं न, तो बाज़ार जाना है..."
"ठीक है... कल आ जाना..."
...ह्म्म्म, तुम्हारा ही ठीक है... जाओ, बाज़ार जाओ, Sunday है... 
इतना जी जलना कम था जो फ़ोन पर भी...
"तुम चाहो तो छुट्टी लेलो, पर पेट की छुट्टी तो नहीं होती न... कुछ तो बना लो"
"आज तो वी भी कुछ अच्छा बनाना चाहिए, Sunday है"
... हाँ, सही है, रोज़-रोज़ तो बेकार ही बनता है खाना की आज बना दो... तो क्यूँ न सिर्फ Sunday को ही अच्छा बनाऊं, बाकि दिनों में ऐसा ही खाना दे दिया करूँ? जैसा नाना जी कहते थे, "पनिहार दाल, गिल्कोचा भात, नोन-नोन भरी तरकारी, अस जिउनार रचिस महतारी..."
... अरे क्यूँ बना लूं??? मेरा भी Sunday है, मुझे भी तो छुट्टी मिलनी चाहिए... पर नहीं... I don't deserve it?
मुझे ये मानसिकता समझ नहीं आती... क्यूँ Sunday है तो अच्छा खाना बने, बाकि दिनों में न बने... या Sunday है, इसिलिये पकवान पकाओ, बाकि दिन क्या सिर्फ लौकी की उबली सब्जी खाएँ?
मैं उबली सब्जी खाने को गलत नहीं कह रही, बस मिसाल के टूर पर एक बात राखी है... जिन्हें उबली सब्जियां पसंद हैं वो बेशक खाएं... सबकी अपनी-अपनी पसंद है...
Mostly घरों की यही कहानी है... Thank God मेरा घर इसका सिर्फ 50% ड्रामा झेलता है... and all thanks to माननीय पतिदेव... जो ये तो समझते हैं की आज मेरे लिए भी Sunday है...
कैसे रह लेती हैं वो औरतें जो ये सब अपने अन्दर ही लडती हैं... और किससे लडती हैं, उन्हें भी नहीं पता... कई बार तो वो अपने ही अन्दर ये बातें बोलती हैं, और बाद में अपनी कुछ खास सहेलियों से, जिनसे वो अपनी feelings share करतीं हैं...
बहुत बार मैंने ये बातें अपने आस-पास सुनी हैं... और उस पर भी पति बेचारे हो जाते हैं जिन्हें Sunday की भी छुट्टी नहीं मिलती, जो ये कहते पाए जाते हैं कि "पूरे हफ्ते office और ले-देकर एक दिन मिलता है तो वो भी..."
और अभी-अभी, फिलहाल में ही मैंने एक video भी देखा था इसी मुद्दे पर...

आप ये मत सोचियेगा की मुझे पुरुष वर्ग की Sunday की छुट्टी लेने में कोई दिक्कत नहीं है... न न, हर किसी का हक़ है, कि कम-से-कम एक दिन तो मिलना चाहिए... पर क्या महिला वर्ग का उसमे कोई अधिकार नहीं???
खासतौर पर ऐसे घरों में, जहाँ एस तरह के हालात हों...
शायद आपके आस-पास ये न होता हो... और बहुत अच्छा है यदि न होता हो...

यदि मेरी मानें तो मुझे लगता है कि, औरतों को Sunday को और भी अच्छी तरह उपयोग करना चाहिए, अपने लिए... आप भी सुबह से salon जाएँ, spa जाएँ... और यदि आप कहें तो couple में भी जा सकते हैं... हमारा आजमाया हुआ नुस्खा है... shopping चाहें तो जाएँ या न जाएँ पर यूँ ही घूमने जाएँ... जानती हूँ आपको पढने में थोडा अजीब लगेगा, पर फ़ालतू भी घूमना चाहिए, try करके देखिये... बिना काम, बिना decide किये की कहाँ जाना है, यूं ही निकल जाइये, एक drive लेकर लौट आइये... कभी, चाहें तो, फ़ोन बंद करके घर पर ही रहें... साथ में खाना बनाएँ, मूवी देखें, बातें करें... सार ये है की बस एक-दुसरे को वक़्त दें... क्यूंकि पूरा हफ्त तो वैसे भी वक़्त नहीं मिलता...

आप भी बातें की आपका experience कैसा है Sunday को लेकर... Specially शादी के बाद...  

आज इसे झेलिये... पहला रिलीज़...

आज न तो कोई कविता न ही कोई लेख...
बल्कि एक गुज़ारिश... 
एक नया पत्ता खेला है...
नया हाँथ आज़माया है...

आपमें से कुछ को परेशान कर चुकी हूँ
कुछ को परेशान करना बाकी था..
कुछ को सुना दिया
कुछ के कान खाना बाकी था...
क्या है न, आज तक सिर्फ दिमाग खाती आयी हूँ सबका...
और बताया भी, की कुछ नया try किया है...
इसीलिए सोचा की अब कान खाऊँ...


पर प्लीज़ बताइयेगा ज़रूर...
की, लगा कैसा???

हाँ...
इसमें ऋषि, प्रतिभा और के.के. का बहुत बड़ा हाँथ है...
इसमी जो कुछ,
मिठास है...
वो सिर्फ ऋषि और प्रतिभा के कारण... 
और सुन्दरता के.के के कारण...
और जी...
Sonore Unison Music का भी...

THANK YOU SO MUCH FRIENDS... :)

टीम के बारे में आप सबकुछ इस विडियो में ही पढ़ लेंगें...

माना कि ये मेरा बचपना है...

अपनी हर अच्छी-बुरी, ख़राब-नायब बात लेकर यहाँ आ जाती हूँ... इसीलिए आज भी आ गई... 
सब कहते हैं कि अभी भी मुझमें बचपना है...
जब tiger ख़तम हुआ तब मैं छोटी थी तो मान लिया, कि रोना जायज़ था... kity के ख़तम होने में भी सभी ने मान लिया क्योंकि उसे मेरी best-friend {शिखा} ने gift किया था... पर जब tony ख़तम हुआ तब जरूर सभी ने ज़रा-सा कहा... पर सिर्फ ज़रा-सा... क्योंकि उसे भी शिखा ने ही गिफ्ट किया था... पर अब... अब जब वो गई... और मेरा उदास चेहरा सबने देखा तो कुछ मुझे समझाने लगे और कुछ ने मज़ाक भी उड़ाया कि "अभी भी बच्ची है... बड़ी हो जा... तुझे और दिला देंगें... अब तो खुद ही खरीद सकती है..." और भी न जाने कितनी बातें और कितने तरह की बातें... यहाँ तक कि ये भी कहा कि चिंता मत करो, तुम्हारी शादी में तुम्हें कुछ और नहीं देंगे, वही गिफ्ट कर देंगें"...
माना कि मैं खुद भी खरीद सकती हूँ, या कोई नई और भी ज्यादा अच्छी आ जायेगी, पर क्या वो सारी यादें आयेंगीं जो उसके साथ जुडी हैं... कहते हैं teen-age सबसे ख़ास और बड़ी ही अजीब age होती है... उसमें सब-कुछ अच्छा ही लगता है, और मेरी उस उम्र की सबसे ख़ास और करीबी वही तो थी... मेरे सारे राज़, घूमना-फिरना, बदमाशियां-शैतानियाँ... all-in-all सबकुछ वो जानती थी... यहाँ तक कि मेरे कई ख्वाब जो मैंने कभी किसी के साथ नहीं share किये वो भी उसे पता थे...
अरे sorry sorry ... पूरी राम-कथा पढ़ दी मगर वो है कौन ये तो बताया ही नहीं... वो है मेरी प्यारी-सी kinetic honda... zx... white colour... MP20 JA 7513... मेरे सारे दोस्त उसे मेरी उड़न-खटोला कहते थे... मेरे भाई का नाम भी लिखा था उसमें... PRINCE
sorry... है नहीं थी... :(
कहीं उसकी एक फोटोग्राफ भी है... मिली तो पोस्ट जरूर करूंगी...
सच ऐसा लग रहा है जैसे ज़िंदगी का एक हिस्सा चला गया...  :(
पता है... आप लोग भी पढ़ कर यही कहेंगें कि ये मेरा बचपना है...
मेरी और मेरे भाई की दोस्ती बढ़ने में भी उसने बहुत मदद की... हमारे घूमने का राज़ भी वही जानती थी... कई गोल और गोल-गप्पे की कहानियाँ, ice-cream, पेस्ट्री, और भी न जाने क्या-क्या... सब जानती थी वो...
और जबलपुर की सड़कों में कहाँ कितने चक्कर मारे हैं... सदर, गोरखपुर, जलपरी से लेकर घंटाघर, कमनीय गेट तक की सड़कें नापी हैं मैंने उससे... उसने सबसे ज्यादा साथ निभाया था जब हम जबलपुर में ही थे, मम्मी को अटैक आया था, और तभी पापा का ट्रान्सफर हो गया था... और सरकारी नौकरी की हालत तो बस... यदी आपकी जगह में आनेवाला अधिकारी अच्छा है तब तो ठीक वर्ना फ़िर न तो वो खुद support करता है और न ही किसी को करने देता है... तभी शैली; मेरी छोटी बहन, अरे हाँ कल {8 सितम्बर} उसका जन्मदिन भी है,; उसे स्कूल ले जाना-ले आना पड़ता था... भाई के लिए बस थी... उसने बहुत support किया था... और उसी समय था जब मुझे अपने दोस्तों की पहचान हुई थी... और एक बात, उस समय मेरी प्रिंसिपल "प्रकाशम मैडम" मेरे teachers ने बहुत support किया था... सब कहते थे, तुम मम्मी को देख लो, यहाँ कि चिंता मत करो... ये सब मेरे 10th क्लास की बात है... स्कूल से पूरी permission थी, क्योंकि CBSE बोर्ड था तो टेस्ट वगैरा की झंझट नहीं थी... और ये भी था कि मैं कभी भी झूठ नहीं बोलती थी अपने teachers से... और वो सब मुझपे भरोसा भी करते करते और मानते बहुत थे...  Thank you so much all... :)
पर सच उसका जाना बहुत अखरा... जब तक नहीं गई थी, तब एक उम्मीद थी, पर कहते हैं न कि कभी किसी से कोई उम्मीद मत करो वर्ना तकलीफ होती है...जब वो जा रही थी तब मैं उसे जाते भी नहीं देख पाई... अन्दर आके अपने रूम में जाकर खूब रोई... लगा कि जाऊं, जो ले गए हैं उनके सामने विनती करके उनसे मांग लूं... पर फ़िर लगा कि नहीं, पापा लोगों ने उन्हें दे दी है... उनकी बात का मान ज्यादा है... इसीलिए ये भी नहीं कर पाई... शायद इस बात का भी दुःख उस दुःख को बढ़ा रहा था कि पहली बार मैं उसके लिए कुछ नहीं कर पाई...
MISS YOU SO MUCH DARLING... :(

वापस आ ही रही थी कि...

आज फ़िर से आ गई... ये नहीं कहूँगी कि आ पाई... क्योंकि ये तीन महीने बहुत से अनुभवों से गुज़री और बहुत कुछ सीख भी गई...
और वापस तो 3 दिन पहले ही आ जाती... मगर ये गूगल रूपी काली बिल्ली ने रास्ता काट दिया तो बस... हुआ ये कि इतने दिन बाद जब ब्लॉग लिखने पहुँची तो उससे हिंदी फ़ॉन्ट ही गायब... मुझे लगा कोई सेट्टिंग बदल गई... सब छाना-खंगाला, पर कुछ समझ नहीं आया... "help zone" भी ट्राई किया, मगर कोई फायदा नहीं... फ़िर मासूम अंकल को परेशान किया, तब उन्होंने बताया कि ये मेरे बस नहीं बल्कि सभी में यही दिक्कत आ रही है... और गूगल हिंदी टाईपिंग का रास्ता सुझाया... thank you so much uncle ... :)
हाँ अब अनुभवों की बात... और इन तीन महीनों की बात...
सीखना पड़ता ही, आज नहीं तो कल... बस कुछ हालत अलग होते... सबसे ज्यादा मेरी प्यारी-सी माँ खुश हैं... उनका कहना है कि "चलो अच्छा हुआ, भले ही मेरा हाँथ-पैर टूटा पर तुम इतना मैनेज करना सीख गई"... पर उन्हें या परिवार में बड़ी माँ, बुआ या चाचा लोगों को यकीन नहीं होता कि मैं ये सब मैनेज कर रही हूँ, क्योंकि उनकी नज़र में मैं आज भी वही छोटी सी पूजा हूँ... पर अब अचंभित और खुश... सबसे ज़्यादा माँ और मौसियाँ, क्योंकि उन्हें मैं नानी के यहाँ कि लड़कियों में एक लगती ही नहीं थी और दादा जी के घर में सब यही कह रहे हैं कि "हमें तो पता था कि जब भी वक़्त आएगा ये सब संभाल लेगी"...
खैर!!! ये हो गई घरवालों की बात, पर यदि अब मैं सच कहूं तो मैं खुद समझ नहीं पा रही कि ये सब मैंने कैसे संभाल लिया??? क्योंकि एक टाईम पे हमेशा एक ही मोर्चा संभाला है... पर इस बार तो बाबा रे बाबा... सब कुछ...
और हाँ एक सबसे जरूरी बात... वो सारी महिलायें जो "हाऊसवाईव्स" हैं, मेरा नतमस्तक प्रणाम स्वीकार करें...
मतलब, आप लोग कैसे सब कुछ इतने अच्छे से संभाल लेतीं हैं???
सच कितना मुश्किल होता है न... घर के फईनेंसस, खाना-पीना, मेन्यू, सबकी पसंद-नापसंद याद रखना, व्यवहार-रिश्तेदार, बच्चे... ये तो हो गए कुछ बड़े-बड़े काम... पर छोटे-छोटे काम जो दिखाई नहीं देते, जैसे किस कमरे में कौन-सी चादर, कैसे परदे... और भी पता नहीं क्या-क्या... सच में... तीन महीने में रोज़ मैं सारी हाऊसवाईव्स को सलाम करती थी... और मेरी माँ महान... जिनके कारण शायद मुझसे ये सब हैंडल हो गया... वर्ना पता नहीं मैं क्या करती और माँ की जमी-जमाई गृहस्थी का क्या होता???
पर सच कहूं... इन सारे उलझनों के बीच बस एक ही चीज़ अच्छी लगती थी, और वो थी माँ के चेहरे कि मुस्कराहट... जिसमें ज़रा-सी चिंता, ज़रा-सी मस्ती, ज़रा-सा भरोसा, ज़रा-सा चैन, ज़रा-सा आराम और ज़रा-सा गर्व होता है... और शायद में माँ के मन को ज़रा-सा समझ भी पाई हूँ... क्योंकि हमेशा मैं और मेरी बहन PAPA's Girls रहे... और लगता भी यही था कि माँ भाई को ज्यादा प्यार करती हैं, उसकी और माँ कि ज्यादा बनती है... पर नहीं... उनका असली ध्यान तो बेटियों के ऊपर रहता है... क्योंकि हम उनका गर्व होते हैं... ये बात माँ ने पहली बार मुझसे कही... कि माँ लड़कियों पे ज्यादा भरोसा कर सकती हैं और उन्ही पे ज्यादा डिपेंड भी हो सकती हैं... :)
और सच ये बात जानकर बहुत ही आश्चर्य हुआ... जो हम सोचते थे उससे बिल्कुल उल्टा... और बहुतhi सारी ख़ुशी...
आज के लिए इतना ही... बाकी ढेर सारी बातें धीरे-धीरे अलग-अलग पोस्ट्स में...

पिछले कुछ ख़ास दिन...

आज बहुत दिनों बाद लिखने आई हूँ... या कहूँ कि आ पाई हूँ...
याद भी नहीं कि कितने दिन चाह कर भी नहीं लिख पाई...
पहले घड़ी - नक्षत्र जैसी बातों पर यकीन नहीं होता था, पर अब लगने लगा है कि ऐसी चीज़ें होती हैं... इनके भी मायने होते हैं...
जिस दिन "वर्ल्ड कप" का फाईनल था, २ अप्रैल, उस दिन हमारी यात्रा शुरू हुई भोपाल के लिए, और बस तभी से सब-कुछ शुरू हो गया... मेरा मोबाईल चोरी होना, भोपाल-इंदौर का सफ़र इतना हेक्टिक होना, मेरी रिपोर्ट्स, पहली बार एम.आर.आई. होने में इतनी दिक्कत, डॉ. से डांट, सरवाईकल, और भी न जाने क्या-क्या??? परन्तु जहाँ इन सब का अंत हुआ वो सबसे ज्यादा ख़राब, जब लौटना था, ६ अप्रैल, हबीबगंज स्टेशन में माँ का पैर ट्विस्ट होना, उनका गिरना और हाथ-पाँव दोनों में फ्रैक्चर... :(
बस माँ का हाथ-पैर फ्रैक्चर हुआ नहीं कि सारे काम बंद, एट-लीस्ट मेरा तो सब काम ही रुक जाता है... बड़े होने का इतना फायदा तो होता ही है कि आप अपने छोटे भाई-बहन को इतना कह सकते हो... भाई से बहस भी हो गयी पर जीती मैं ही... खैर, दो दिन हुए पक्का प्लास्टर चढ़े, और तभी से माँ के पास से थोडा-सा वक़्त भी मिल जाता है... वर्ना, पहली बार माँ को बच्चों जैसे जिद करते देखा, और जो कभी शांत नहीं रहती थीं, लगातार लेटे रहने के कारण थोड़ी-सी चिडचिडी भी हो गईं थीं... पर अब सब मस्त मिजाज़ में वापस...
पर एक कहावत उनकी ज़ुबांपर रहती है, नोटिस पापा ने किया और माँ ने याद कर लिया... कहती हैं जो बड़े- बुजुर्ग कह गए हैं वो एकदम सही है...
"पारीबा, चौथ, चौदस, नवमी.... ये रिक्ता तिथियाँ हैं... इन दिनों यात्रा करने से पहले देख-भाल लो... और पारीबा यदि मंगल को पड़े तो बिल्कुल भी यात्रा शुरू न करें..."
हर बार की तरह हमारा महान परिवार फ़िर एक साथ... सब परेशान थे, पर साथ रहते दिन कैसे बीत रहें हैं पता ही नहीं रहा... लगता है जैसे कल-परसों ही घर लौटे हों... और हैं भी इस समय रीवा में, माँ-पापा दोनों के मायके और रिश्तेदार यहीं बसे हैं, तो सुबह से आने-जाने वाले भी... और उनके अजीब से किससे कहानियों के साथ हमारा मनोरंजन भी... सबसे मज़ा तो रात में ११-१२ के बाद आता है, जब खाना-वाना खा कर हम सब दिनभर की बातें और अपने-अपने अनुभव शेयर करते हैं, कुछ मोनोएक्टिंग एक्सपर्ट्स तो मस्त कॉपी भी करते हैं, और बाउजी या चाचा लोगों की नींद ख़राब न हो इसीलिए हम लोग उन्हें सबसे ऊपर वाले फ्लोर में सोने भेज देते हैं, तो बस फ़िर क्या सोते-सोते ३-४ तो आराम से बजते हैं... और हमेशा की ही तरह इस परिवार की खासियात, हर मुसीबत यूँहीं हंसते-हंसते निकल जाती है, और हम सब कुछ-न-कुछ सीख रहे हैं... यदि मैं अपनी बात कहूँ तो मैं आजकल दुनियादारी सीख रही हूँ... रिश्तेदारी निभाना तो हमें बोलने से पहले ही सिखा दी जाती है... और इस बार तो सबसे ख़ास, मैं और माँ, एक-दूसरे के और ज्यादा करीब आ गए... :)
और सबसे ख़ास तो तब लगता है जब लोगों के ई-मेल्स पढ़ती हूँ, माँ के लिए शुभकामनाएं और मेरे लिए चिंता... और मजेदार तो वो जिन्हें मेरा मोबाईल चोरी होने की खबर नहीं थी, और न ही उनके पास मेरा कोई दूसरा नंबर... कुछ लोग तो पुलिस-स्टेशन में गुमशुदा की रिपोर्ट लिखवाने जा रहे थे...
चलिए आज की मोहलत समाप्त... कुछ पढ़ना भी है...
तो चलती हूँ... फ़िर मिलूंगी जिस दिन वक़्त मिलेगा...

ये एक साल...

21 फरवरी 2010...
1st post... :- DESIRES FROM THE ONE YOU LOVE...
जब मैनें इस ब्लोगिंग की दुनिया में कदम रखा...
न रास्ते पता, न मंज़िल...
न ही यहाँ के तौर-तरीके...
न लोगों से पहचान...
न ही कोई बैकग्राउंड...
न लिखना आता था, न ही कोई बतानेवाला की कैसे लिखा जाता है...
बस एक पेन, कुछ सपने और
लिखने का शौक लेकर आई थी...

एक डर था की कैसे लोग होंगें...
अपनायेंगें या नहीं???
मुझे इस दुनिया में अपनी जगह बनाने देंगें या नहीं???
पर दोस्त थे...
एक आदित्य और एक शैलेश...
वो इस दुनिया में कदम रख चुके थे...
आदित्य जी ने तो मुकाम भी बना लिया था...
यहाँ आकर लिखने की सलाह भी कुछ दोस्तों ने ही दी थी...
सो मैं अपना बोरिया-बिस्तर उठा चली आई...

जब यहाँ पहुँची...
जितना सोचा था उससे कहीं बड़ी थी ये दुनिया...
सोच थी की लिखनेवाले तो सभी अच्छे ही होते हैं...
पर वो भ्रम भी टूटा...
पर...
उसकी एवज मैं बहुत से अच्छे और अच्छे लोग मिले...
जिनसे साथ माँगा...
उन्होंने पूरा साथ दिया
जिनसे समय माँगा...
दिन-रात दे दिए...
कुछ अन्जाने से लोग मेरे अपने हो गए...
एक अलग ही रिश्ता कायम हो गया इस दुनिया से...
यहाँ एक छोटा सा आशियाना मेरा भी हो गया...

आप सभी का बहुत-बहुत शुक्रिया, जिन्होंने मुझे ये सफ़र यहाँ तक तय करने में हमेशा ही सहयोग प्रदान किया...
इस आशीर्वाद की हमेशा जरूरत रहेगी...
और बहुत ज्यादा रहेगी... :)












जानती हूँ मुझे ये पोस्ट 21 तारिख को ही लिखनी चाहिए थी... पर सीढियों से गिरजाने के कारण असमर्थ थी...
इसीलिए... आज कुछ ठीक लगा... हिम्मत जुटा कर लिख दी...

आज कल बड़े मज़े हैं...

ह्म्म्म...
इन दिनों मिजाज़ ही अलग है
मौसम ही शायद बदल गया है

एक पुरानी कविता याद आती है...
"कहो जी बेटा राम सहाय
इतने जल्दी कैसे आए?
अभी तो दिन के दो ही बजे हैं
कहो आजकल बड़े मज़े हैं"

बस यही हाल आजकल अपना है... सुबह देर से उठाना, रात में देर तक जग सकना, bed-tea उठते ही हाँथ में होना... आहा... लगता है जैसे बरसों की कैद ख़त्म कर किसी holiday पर आ गयी हूँ...
बोले तो पूरी ऐश... no झंझट... सब कुछ फटाफट...
शायद इसीलिए एक बुरी आदत भी लग रही है... आलस की...
खैर... आजकल पापा के यहाँ हूँ... resignation letter पटक ही आई हूँ, तो टेंशन भी नहीं है...
पापा अच्छे-खासी govt. post पर हैं तो किसी चीज़ की कमी है ही नहीं... सुबह से "बड़ी दीदी जी, चाय" का राग शुरू होता है... मैं हूँ भी teaholic तो चाय के बिना तो काम ही नहीं चलता, बस taste बदलता रहता है... हाँ मम्मी जरूर कहती रहती हैं कि आदत बिगड़ जाएगी... पर हो गया यार, बड़े दिनों बाद ये आराम का वक़्त मिल रहा है... और वो भी न जाने कितने दिनों के लिए...
इस समय तो बस पुराने बचे, आधे-अधूरे novels ख़त्म करने में लगी हूँ... अपनी खुद की कुछ कवितायेँ जो यूँहीं लिखी फ़िर बीच में ही छोड़ दी उन्हें पूरा करने में जुट गयी हूँ...
आख़िर वक़्त मिला है, भले ही अपने मन का हो... तो करना भी चाहिए वही जो दिल चाहे...
सुबह भी बड़े दिनों बाद continuous गाने सुने... वर्ना बस पसंद आया, download किया पर सुन नहीं पाते थे, या फ़िर शुरू की कुछ लाईन्स... या फ़िर एक-दो बार बस...
पर आजकल... बस ऐश ही चल रही है...
हाँ मम्मी-पापा को जरूर कुछ ख़ास बना कर खिलाया... वो भी मेरा मन हुआ इसीलिए, वर्ना पापा ने मन किया था...
बस एक साल में ऐसे ही कुछ दिन मिल जाएं... और क्या चाहिए...
पर तब भी न जाने क्यूं कुछ रिश्तों में शायद कुछ ग्रहण सा लग गया है... जब देखो बहस... और इस समय में load लेने के मूड में नहीं हूँ... और न ही लड़ने-झगड़ने में... इसीलिए कन्नी काट लेती हूँ और निकल लेती हूँ पतली गली से... बस शायद बचने की कोशिश करती हूँ अभी इस सब चीज़ों से... वर्ना, short-tempered तो मैं हूँ ही...
ये भी जानती हों कि वो लोग अभी इस पोस्ट को पढ़ भी रहे होंगें... कुछ गुस्सा और कुछ हंसी, दोनों मूड में होंगे... छोडो न यार... ख़त्म करो... फिलहाल में मूड में नहीं हूँ लड़ने के... बाद में निपटेंगें...
खैर...

आप सभी को आनेवाले वर्ष की ढेर सारी हार्दिक शुभकामनाएं...

बाकी मैं पहली तारीख को तो आउंगी ही...

पिछले दिनों...

पिछले कुछ दिन बड़े अजीब बीते...
बहुत सारे परदे उठे,
बहुतों की सच्चाई सामने आई...
पहले तो यकीन नहीं हुआ,
कि ये वाकई सच है...
दिमाग ने मान भी लिया...
पर दिल को समझाना जरा मुश्किल था...
धीर-धीरे वो भी समझ गया

लगा जैसे किसी जोर का तमाचा मार
नींद से जगा दिया दिया हो मुझे...
और एक सुन्दर-सा ख्वाब
जो देख रही थी मैं
उसे तोड़ दिया हो
चकनाचूर कर दिया...
तिमिर से निकाल मुझे
अचानक
दोपहर कि चिचालती धुप में ला खड़ा किया हो...
आँखे भी मिलमिला गयीं थीं...

पर धीर-धीरे उन्होंने भी
साचा के उजाले को,
उसकी तपन को अपना लिया...

सबसे बड़े आश्चर्य की बात
न जाने कहाँ से मुझमें
ये सहनशक्ति आ गयी
कि मैं उन चेहरों को
देख मज़े ले रही थी
मुस्कुरा रही थी
मुझे खुद नहीं पता कि
मेरा comfort-zone
अचानक इतना बड़ा कैसे हो गया...

पर...
जो हुआ
बहुत खूब हुआ
अच्छा हुआ...
मुझे इस यथार्थ को जाने का संयोग प्राप्त हुआ...

उन सभी चेहरों को
उन मुखौटों को शुक्रिया...

बनारस...

ये है एक पावन धरती
यहाँ है गंगा, भोलेनाथ
और न जाने कितनी संस्कृतियों का मेल...
मत करो ये शोरगुल, ये धमाके
और ये लाश बिछाने का खेल...
कुछ और नहीं कर सकते
तो इतना ही कर दो
अपने नाम के आगे से ये "INDIAN" ही हटा दो...

चलो थोड़े स्वार्थी हो जांए...

आज की इस दुनिया और इस life style में इतने busy हो गए हैं की हमारे पास अपने लिए ही वक़्त नहीं रह गया है... जिसे देखो बस भाग रहा है या एक fixed life जी रहा है, सब कुछ time-table के हिसाब से... जिंदगी न होकर train हो गयी है, चढ़ा दिया पटरी पर, और फुरसत... बस चली जा रही है... हम सबका ख्याल रखते सिवाय खुद के... पर ऐसा क्यूँ? क्या वाकई अब हमें २४ घंटे भी कम पड़ने लगे हैं या जो भी हम करते है वो बस इस rat-race में बने रहने के लिए...
कितना मुश्किल है न आज की इस दुनिया में सफल होना... हर competition में अपने आप को prove करना , पहले school, फिर college, फिर job और फिर घर... सबसे पहले एक position बनाने की चिंता और फिर उसे maintain करने की... वाकई कितनी कठिन हो गयी है हमारी life... या कहे तो हमारी so called life...
और फिर जो भी वक़्त बचा इस rat-race से वो हम दे देते है अपनों को, वो जो हमारे करीब हैं... आख़िर उनका भी तो कुछ हक़ है हमारी ज़िन्दगी में... उनकी ख़ुशी, उनका दुःख... ये सब भी हमारी ही जिम्मेदारियों का ही एक हिस्सा है... और फिर ये keyboard, जहाँ हम web-pages में जहा हम कभी कोई रिश्ता निभा रहे होते है तो कभी ख़ुशी और शांति तलाश रहे होते हैं... पर इन सबके बीच हम कहाँ हैं? एक ऐसा पल जिसे हम पूरी तरह अपना कह सकें... क्या कभी यूँ ही बैठे-बैठे आप खुद miss नहीं करते, क्या कभी बस यूँ ही बिना बात के मुस्कुराना या यूँ ही खुश जाना या कोई अनजानी-सी या कोई भूली-बिसरी धुन गुनगुनाने का मन नहीं होता? होता है न... पर हम नहीं करते... क्यों??? क्योंकि उससे हम अपने लक्ष्य से भटक सकते हैं... हमारा time-waste हो सकता है...
क्या याद है की last-time आप कब खुश हुए थे, या क्या ऐसा किया था जिससे आपको ख़ुशी मिली हो? last-time कब किसी दोस्त को बिना काम के, बस यूँ ही हाल-चाल जानने के लिए phone किया था...
या कब e-mail forward करने की वजाय बस यूँ ही "hii" "how are you" . type करके भेजा था... कर सकते थे... पर नहीं किया... क्यों... time-waste... क्या वाकई अब हमारी खुशियाँ हमारे लिए सिर्फ time-wastage बन कर रह गयी है... यही रह गयी हमारी हमारी खुशियूं की पहचान...
नहीं न...
तो चलो एक शुरुआत करते हैं... थोड़े से selfish हो जाते हैं... हर दिन... यानी २४ घंटो से कुछ पल चुराते हैं... जो सिर्फ हमारे होंगे...

तो चलो ...
थोड़े स्वार्थी हो जाते हैं
कुछ पल चुराते हैं....
बहुत मुस्कुरा लिए औरों के लिए ,
चलो एक बार अपने लिए मुस्कुराते हैं...
बहुत हुआ दूसरों की धुन गुनगुनाना,
चलो अब अपनी एक धुन बनाते है...
चलो कुछ पल चुराते हैं...
थक गए ये हाथ कागज़ में sketch बनाते-बनाते,
चलो अब आसमाँ में उंगलिया चलाते हैं...
बहुत हुआ एक ही ढर्रे में चलना,
चलो अब कुछ नया आज़माते हैं...
चलो कुछ पल चुराते हैं...
जाने-पहचाने रास्तों पे चलना, बहुत हुआ,
चलो कुछ अनजान रातों की ओर कदम बढ़ाते हैं...
वही पुरानी recipes, वही पुराना स्वाद,
चलो कोई नया ज़ायका आज़माते हैं...
चलो कुछ पल चुराते हैं...
अपनों से अपनापन निभाते ज़माने हो गए,
चलो किसी अजनबी को अपना बनाते हैं...
थक कर चूर हो गए यूँ ही भागते-भागते...
चलो कुछ पल आराम के बिताते हैं...
चलो कुछ पल चुराते हैं...

P.S. :-
ये मेरी एक पुरानी पोस्ट है... न जाने क्यूं आज इसे पढ़कर फ़िर से आप लोगों के साथ बांटने का मन हुआ... सो पोस्ट कर दी...

मेरा सब तेरा ही तो था...

मेरी रूह तो तेरी थी
साँसे भी तेरी ही थीं
मेरा हर लम्हा तेरे लिए थे
मेरी हर घड़ी भी तेरी थी...

मेरी हर याद में तेरा ही साया था
मेरी धडकनों में भी सिर्फ तू ही समाया था
मेरे कानों में आवाज़ तेरी ही थी
मेरी आँखों में तस्वीर तेरी ही समाई थी...

मेरे अहसासों में तू था
मैं महसूस भी बस तुझे ही करती थी
बात किसी की भी हो
मैं बात तेरी ही करती थी...

मेरी मंज़िल भी तू ही था
और था तू ही मेरा साहिल भी...
बस इन पन्नों की सफेदी में
उकेरे कुछ शब्द ही बस मेरे थे...

आज ये भी तुझमें शामिल हो गए...

आ गया प्रीलिम का रिसल्ट... ;)

जैसा की मैंने आप सभी को अपने प्रीलिम इंटरव्यू के बारे में बताया था... तो बनी बात है की आज नहीं तो कल रिसल्ट भी आना ही था...
फ़ोन बजा, माँ ने उठाया...
चाचा का था...
"हाँ अरुण"... माँ न कहा, अरुण मेरे तीसरे नंबर के चाचा का नाम है, और वो ऐसे मामलों में हमारे सबसे करीब हैं...
तो चाचा और माँ की जो भी बात हुई हो। मुझे जो पता चला वो ये, कि लड़के की तरफ से हाँ है, न तो उसकी कोई डिमांड है और न ही और कोई मांग। बस वो मुझसे बात करना चाहता है और चाहता है कि मै शादी के बाद जॉब न करूँ।
जॉब करूँ? पर क्यूं? जॉब और शादी का क्या कनेक्शन है?
"कैसा बकवास लड़का है?" तुरंत मेरे मुंह से निकला... और माँ का पारा हाई...
मै समझ गयी माँ गुस्सा हो गयी हैं...और मुझे समझाया कि मैं एक बार उससे बात तो करून... खैर, माँ गुस्सा देख मैं तो चुपचाप वहां से खिसक गयी
उनका गुस्सा होना लाजमी भी था, आख़िर वो उनकी सहेली औए पापा के दोस्त का लड़का था, वो घर में सभी को पसंद था... आख़िर उसकी लम्बाई जो इतनी थी... मुझे मैच करता था।
मगर ये सोच... न बाबा न... मुझसे तो नहीं हो पाएगी ये शादी भई।
मैनें भी तुरंत अम्मा; अम्मा यानि मेरी बड़ी माँ, हमारे यहाँ ऐसे फैसले सभी की रजामंदी से होते हैं, वो घर के बड़े हैं और मैं उनकी लाडली; हाँ तो मैंने तुरंत अम्मा को फ़ोन किया और सीधे पूछा "और कोई गन्दा लड़का नहीं मिला था आपको मेरे लिए?" आवाज़ ज़रा-सी रोनी और लाड़ वाली कर ली थी... भई नौटंकी जो करनी थी और उन्हें पटाना जरूरी था...
अम्मा ने कहा "तुम चिंता मत करो, यही बात मुझे भी परेशान कर रही है। आने दो तुम्हारे बाबूजी को मैं बात करती हूँ"। बाबूजी यानि मेरे बड़े पापा, माँ कहती है कि मुझे उन्हीं के लाड़-प्यार ने बिगाड़ रखा है...
पर चलो... अम्मा न खुद भी यही सोचा... सो अब मै पूरी तरह से बेफिक्र हूँ... क्योंकि मुझे तो वो पहले से पसंद नहीं था... मैं क्या, मेरी बहनों न भी उसे रिजेक्ट कर दिया था... बस ये सोचिये कि मज़ा आ गया...

इन्ही पन्नों पर...

अपनी हर मुलकात की,
हर बात,
अपनी हर रात का,
हर अहसास,
यूंही कैद कर लेना चाहती हूँ...
इन्हीं पन्नों पर...

हर वो खुशी,
जब भी आई हंसी,
हर वो गम,
जब आँखें हुईं नाम,
यूंही लिख देना चाहती हूँ कलम से...
इन्हीं पन्नों पर...

हर वो सदा,
जो याद आ गयी,
हर वो अदा,
जो इस मन को भा गयी,
यूंही सरे पल समेट लेना चाहती हूँ...
इन्हीं पन्नों पर...

हमेशा के लिए...

कल प्रिलिम इंटरव्यू था...

जी हाँ... सही कह रही हूँ, कल मेरा प्रीलिम इंटरव्यू था, यानि प्रथम चरण...
अब आप सोचेंगे की कैसा इंटरव्यू और कैसा प्रथम चरण???
तो जैसा कि मैंने अपनी पिछली पोस्ट में मैनें "पूजा की शादी" वाली चर्चा का ज़िक्र किया था... तो कुछ लोग कुछ ज्यादा ही तेज़ निकले, अभी बात भी नहीं हुई कि घर ही पहुँच गए... उनका कहना था की उन्हें दिवाली की शुभकामनाएं देने आना है। माँ-पापा को सबकुछ पता था कि वो लोग क्यूं आ रहे हैं, पर मुझसे किसी न कुछ नहीं कहा। वो लोग ये तो कह नहीं सकते थे की मुझे देखने आ रहे हैं, क्योंकि देख तो मुझे कई बार चुके थे, आए तो बस मेरा मंतव्य जानने थे। मुझे यहाँ से इतनी दूर; 180 किमी बुलाया, सोचिये ज़रा रात में, म.प्र. की सड़कें और दूसरे दिन अचानक पता चले की लड़के के माँ-बाप आपको देखने आ रहे हैं, क्या हालत होगी? सबसे ज्यादा गुस्सा तो माँ-पापा पर आया कि "आप लोग तो मुझे बता सकते थे न?" खैर...
पर जैसा मैंने सोचा था वैसा तो कुछ हुआ ही नहीं... न मुझसे कोई सवाल न जवाब... बस आए, बैठे, गप्पे मारी, खाना खाए और चले गए। बस एक लडकी; जो लड़के की चचेरी बहन थी; वो मुझे घूर-घूर कर देख रही थी... न जाने क्या खोज रही थी, या मैं उसे दूसरे गृह की लग रही थी...
अब आप सोचेंगे कि जब कोई सवाल-जवाब हुआ ही नहीं तो मैंने इसे प्रीलिम इंटरव्यू क्यूं कहा? वो इसलिए क्योंकी अभी लड़के के माँ-पापा आए हैं, जो प्रीलिम स्टेज थी, फ़िर लड़का और उसकी बहन आयेंगे, जो मेन्स यानि सेकोन्दरी एंड फिनाल इंटरव्यू होगा। ऐसा लगता है जैसे शादी न हो गयी "लोक सेवा आयोग" के एक्साम्स हो गए.
क्या प्रोब्लम है इन लोगों का? एक बार में नहीं आ सकते क्या? खैर जो होगा देखा जायेगा... अभी तो मैं बस अपने काम पर और थोडा-सा लिखने पर ध्यान देना चाहती हूँ...

तो हम वापस आ गए...

हाँ जी...
तो दिवाली भी आ कर चली गयी, दिए भी स्टोर-रूम पहुँच गए, मिठाइयाँ भी ख़तम हो गईं, सब अपने-अपने काम में वापस लग गए... बस झालर की सजावट अभी भी वहीँ है, वो भी सिर्फ छोटी दिवाली यानी एकादशी तक... उसके बाद वो भी स्टोर में चली जाएगी... और हम भी घर से वापस कार्यस्थल आ गए...
जब मेल बॉक्स चेक किया, बड़ा अच्छा लगा... ढेर सारी बढ़ियाँ आईं थीं... मुझे बड़ी ख़ुशी होती है जब लोग मुझे याद रखते हैं... उन सभी लोगों को ढेर सारा शुक्रिया...
इस दिवाली कुछ नया करने की सोची थी, बहुत कुछ किया भी... जैसे, मिठाइयों की जगह फलों का उपयोग, मोमबत्तियों की जगह दीयों का उपयोग, और भी बहुत कुछ... लोगों को भी समझाने की कोशिश की, कुछ न सुनी, कुछ न समझी और कुछ वही पुराने, न सुनना न समझना" वाले फंडे में चले... खैर... उनसे मुझे ज्यादा फर्क भी नहीं पड़ता... पर कुछ लोगों के ऊपर गुस्सा भी आया, उनका टॉपिक ही नहीं बदला। जबसे घर आए, और जब तक चले नहीं गए, तब तक सिर्फ एक ही राग अलापते रहे... "पूजा की शादी"। मन तो आया कि पूछ लूं, कि उन्हें क्यूं इतनी चिंता है, उनके घर में भी तो लडकियां हैं उन्हें देखें... लग ही नहीं रहा था कि दिवाली मानाने आए हैं, लग रहा था जैसे मेट्रीमोनिअल वाले घर आ गए हों... और होड़ लगी हो कि ये कांट्रेक्ट किसे मिलता है... एक महाशय तो एक कदम और आगे, कहने लगे "न हो तो एक बार लड़का-लडकी मिल लें फ़िर देखा जाएगा, लड़का अभी घर आया हुआ है, कल ही मिलवा देते हैं दोनों को"... अरे, अच्छी जबरजस्ती है...
हे भगवन!!! कुछ लोग वाकई "इम्पोसिबल" होते हैं... खैर, बच गयी मैं, जिसने अपने-आप पर काबू रखा, "अतिथी देवो भवः" जहाँ में रखा... वरना अच्छी खासी इमेज का तो कचड़ा होना पक्का था...
पर समझ नहीं आता, कि लोगों को दूसरों की लड़कियों की इतनी चिंता क्यूं होती है?? भई, तुम्हारे घर में भी बच्चे हैं, उन्हें देखो, उनकी चिंता करो... और क्या शादी ही एक काम बचा है करने को... जब होनी होगी तब हो जाएगी...
हटाइए... जो होगा देखा जाएगा...
पर अच्छा तो ये था कि जो कुछ नया करने को सोचा था, उसमे बहुत कुछ सफल हुए... और आशा करती हूँ, आप सभी की भी दीपावली बहुत अच्छी हुई होगी...

मंगलमय दीपावली...

सबसे पहले आप सभी को दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं...
इस बार कई ब्लॉग पढ़े थे जिनमें नए-नए तरीके दिए गए थे, इस बार की दीपावली को कुछ खास और खुछ नया करने का...
मै उनमें से कई तरीके तो आज़माने वाली हूँ...
आप क्या नया कर रहे हैं???

शायद मेरे जाने का वक़्त आ गया...

शायद,
अब वक़्त आ गया...
मेरे जाने का

माँ भी चुप-चाप तय्यारियाँ करती है
कभी साड़ियाँ चुनती तो
कभी गहने बनवाती है
कभी मेंहदी लगे हाथों को देख ललचाती है
और कभी पापा के साथ बैठ
मेरे मंडप के सपने सजाती है
जिसके नीचे बैठ वो सौंप देगी
मुझे मेरा नया जीवन...

कभी कोई नया रंग चुनती है...
कुछ दिन बाद उसी रंग के लिए कहती
"अब ये पुराना हो गया"
पर सच्चाई है कि माँ ने वो रंग किसी दुल्हन को पहने देख लिया था...

जब भी कोई घर आता है
उसे एक नया लड़का बताता है
कोई इंजीनियर तो कोई डॉक्टर
कोई किसी बड़ी एम्.एन.सी. में
तो कोई सरकारी नौकरी के साथ...
किसी का घर अच्छा है
तो किसी के घरवाले
कोई बहुत संपन्न है
तो कोई संस्कारोंवाले...

पर ये सब वो मुझसे नहीं कहती है
बस अपने आप ही सब ताना-बना बुनती है...

हर बार हर सपना
एक नई सोच के साथ
नए रंग के साथ
नई साज-सज्जा के साथ
और
नए तौर-तरीकों के साथ...

मेरी खता...

न जाने खता क्या हुई थी थी मुझसे...
मेरी तमन्नाएँ बढ़ गयीं थीं...
या
उनके पूरे होने की आरज़ू...

वजह...

मुझसे मेरी बेचैनियों
मेरे आसुओं की वजह न पूछ...

मैं लूं हर बार उसका नाम
ये, उसे गवारा नहीं...

मुझे जानना चाहते हो???

यदि जानना चाहते हो मुझे...
तो कभी फुरसत से,
तन्हाई में
शांत मन से
पढ़ना उन अधूरी लाइनों को
उन अधूरे पन्नों को
जो अभी भी उस डायरी में मौजूद हैं...
जो मेरे सिराहने कही रखी है...