चलो थोड़े स्वार्थी हो जांए...

आज की इस दुनिया और इस life style में इतने busy हो गए हैं की हमारे पास अपने लिए ही वक़्त नहीं रह गया है... जिसे देखो बस भाग रहा है या एक fixed life जी रहा है, सब कुछ time-table के हिसाब से... जिंदगी न होकर train हो गयी है, चढ़ा दिया पटरी पर, और फुरसत... बस चली जा रही है... हम सबका ख्याल रखते सिवाय खुद के... पर ऐसा क्यूँ? क्या वाकई अब हमें २४ घंटे भी कम पड़ने लगे हैं या जो भी हम करते है वो बस इस rat-race में बने रहने के लिए...
कितना मुश्किल है न आज की इस दुनिया में सफल होना... हर competition में अपने आप को prove करना , पहले school, फिर college, फिर job और फिर घर... सबसे पहले एक position बनाने की चिंता और फिर उसे maintain करने की... वाकई कितनी कठिन हो गयी है हमारी life... या कहे तो हमारी so called life...
और फिर जो भी वक़्त बचा इस rat-race से वो हम दे देते है अपनों को, वो जो हमारे करीब हैं... आख़िर उनका भी तो कुछ हक़ है हमारी ज़िन्दगी में... उनकी ख़ुशी, उनका दुःख... ये सब भी हमारी ही जिम्मेदारियों का ही एक हिस्सा है... और फिर ये keyboard, जहाँ हम web-pages में जहा हम कभी कोई रिश्ता निभा रहे होते है तो कभी ख़ुशी और शांति तलाश रहे होते हैं... पर इन सबके बीच हम कहाँ हैं? एक ऐसा पल जिसे हम पूरी तरह अपना कह सकें... क्या कभी यूँ ही बैठे-बैठे आप खुद miss नहीं करते, क्या कभी बस यूँ ही बिना बात के मुस्कुराना या यूँ ही खुश जाना या कोई अनजानी-सी या कोई भूली-बिसरी धुन गुनगुनाने का मन नहीं होता? होता है न... पर हम नहीं करते... क्यों??? क्योंकि उससे हम अपने लक्ष्य से भटक सकते हैं... हमारा time-waste हो सकता है...
क्या याद है की last-time आप कब खुश हुए थे, या क्या ऐसा किया था जिससे आपको ख़ुशी मिली हो? last-time कब किसी दोस्त को बिना काम के, बस यूँ ही हाल-चाल जानने के लिए phone किया था...
या कब e-mail forward करने की वजाय बस यूँ ही "hii" "how are you" . type करके भेजा था... कर सकते थे... पर नहीं किया... क्यों... time-waste... क्या वाकई अब हमारी खुशियाँ हमारे लिए सिर्फ time-wastage बन कर रह गयी है... यही रह गयी हमारी हमारी खुशियूं की पहचान...
नहीं न...
तो चलो एक शुरुआत करते हैं... थोड़े से selfish हो जाते हैं... हर दिन... यानी २४ घंटो से कुछ पल चुराते हैं... जो सिर्फ हमारे होंगे...

तो चलो ...
थोड़े स्वार्थी हो जाते हैं
कुछ पल चुराते हैं....
बहुत मुस्कुरा लिए औरों के लिए ,
चलो एक बार अपने लिए मुस्कुराते हैं...
बहुत हुआ दूसरों की धुन गुनगुनाना,
चलो अब अपनी एक धुन बनाते है...
चलो कुछ पल चुराते हैं...
थक गए ये हाथ कागज़ में sketch बनाते-बनाते,
चलो अब आसमाँ में उंगलिया चलाते हैं...
बहुत हुआ एक ही ढर्रे में चलना,
चलो अब कुछ नया आज़माते हैं...
चलो कुछ पल चुराते हैं...
जाने-पहचाने रास्तों पे चलना, बहुत हुआ,
चलो कुछ अनजान रातों की ओर कदम बढ़ाते हैं...
वही पुरानी recipes, वही पुराना स्वाद,
चलो कोई नया ज़ायका आज़माते हैं...
चलो कुछ पल चुराते हैं...
अपनों से अपनापन निभाते ज़माने हो गए,
चलो किसी अजनबी को अपना बनाते हैं...
थक कर चूर हो गए यूँ ही भागते-भागते...
चलो कुछ पल आराम के बिताते हैं...
चलो कुछ पल चुराते हैं...

P.S. :-
ये मेरी एक पुरानी पोस्ट है... न जाने क्यूं आज इसे पढ़कर फ़िर से आप लोगों के साथ बांटने का मन हुआ... सो पोस्ट कर दी...

मेरा सब तेरा ही तो था...

मेरी रूह तो तेरी थी
साँसे भी तेरी ही थीं
मेरा हर लम्हा तेरे लिए थे
मेरी हर घड़ी भी तेरी थी...

मेरी हर याद में तेरा ही साया था
मेरी धडकनों में भी सिर्फ तू ही समाया था
मेरे कानों में आवाज़ तेरी ही थी
मेरी आँखों में तस्वीर तेरी ही समाई थी...

मेरे अहसासों में तू था
मैं महसूस भी बस तुझे ही करती थी
बात किसी की भी हो
मैं बात तेरी ही करती थी...

मेरी मंज़िल भी तू ही था
और था तू ही मेरा साहिल भी...
बस इन पन्नों की सफेदी में
उकेरे कुछ शब्द ही बस मेरे थे...

आज ये भी तुझमें शामिल हो गए...

लाली देखन मै भी चली...

"लाली मेरे लाल की, जित देखूं उत लाल...
लाली
देखन मै गयी, मैं भी हो गयी लाल..."


पंक्तियों को पढ़
सज-सँवर,

प्रेम-रस में डूब कर...
अपने नन्हें हाथों में
कुछ कोमल सपनों की पोटली ले
निकली थी

मैं भी अपने लाल को खोजने...

बाहर आकर देखा
तो मंज़र कुछ और ही था...

हर दरवाज़े पर एक लाल खोपड़ी टंगी थी...
और नीचे लिखा था... DANGER... खतरा...
प्यार के रास्ते में ख़तरा???

बात समझ के परे थी ...
मैं आगे चल पडी...


जो दिखा...
उसमें...
कहीं लडकी होने के कारण

बुरी नीयतों का खतरा...
कहीं जात-पात का खतरा
कहीं रिवाजों के टूट जाने का खतरा...
तो कहें ऊँच-नीच का खतरा

कहीं सह्गोत्री होने के कारण
ऑनर-किलिंग का खतरा...
तो कहीं नकास्ल्वाद,
आतंकवाद का खतरा...
या फ़िर,
प्रादेशिक अलगाव या भाषा अलग होने से
पहचाने जाने का खतरा...

कहीं धोखे-से किसी दरवाज़े को

छूने की कोशिश भी करती...
चरों ओर से खतरनाक आवाज़ गूंजती...
"खतरा... ख़तरा... खतरा..."
इतना सुन
ऐसा लगा मनो
फट पड़ेंगीं दिमाग की नसें...
पागल हो जाउंगी मै इस गर्जना से...
और टूट जायेंगे मेरे सपने सच होने से पहले...

इसी डर से समेट ली
अपनी पोटली अपने सीने में

और चीख पड़ी थी ज़ोर से...

पर ध्यान आया अचानक
अपने नन्हें सपनों का
फटाफट खोली वो पोटली...

पर...
तब तक...
वो त्याग चुके थे अपने प्राण
और मैं नहा रही थी उनके लहू से...


तब याद आया कि...
लाल रंग केवल प्रेम का नहीं
"खतरे" का सूचक भी है...
और अब उन पंक्तियों का मतलब मैं समझ भी गयी थी
और उन्हें आज के युग में चरितार्थ भी कर रही थी...

वाकई...

"लाली मेरे लाल की, जित देखूं उत लाल... लाली देखन मै गयी, मैं भी हो गयी लाल..."

आ गया प्रीलिम का रिसल्ट... ;)

जैसा की मैंने आप सभी को अपने प्रीलिम इंटरव्यू के बारे में बताया था... तो बनी बात है की आज नहीं तो कल रिसल्ट भी आना ही था...
फ़ोन बजा, माँ ने उठाया...
चाचा का था...
"हाँ अरुण"... माँ न कहा, अरुण मेरे तीसरे नंबर के चाचा का नाम है, और वो ऐसे मामलों में हमारे सबसे करीब हैं...
तो चाचा और माँ की जो भी बात हुई हो। मुझे जो पता चला वो ये, कि लड़के की तरफ से हाँ है, न तो उसकी कोई डिमांड है और न ही और कोई मांग। बस वो मुझसे बात करना चाहता है और चाहता है कि मै शादी के बाद जॉब न करूँ।
जॉब करूँ? पर क्यूं? जॉब और शादी का क्या कनेक्शन है?
"कैसा बकवास लड़का है?" तुरंत मेरे मुंह से निकला... और माँ का पारा हाई...
मै समझ गयी माँ गुस्सा हो गयी हैं...और मुझे समझाया कि मैं एक बार उससे बात तो करून... खैर, माँ गुस्सा देख मैं तो चुपचाप वहां से खिसक गयी
उनका गुस्सा होना लाजमी भी था, आख़िर वो उनकी सहेली औए पापा के दोस्त का लड़का था, वो घर में सभी को पसंद था... आख़िर उसकी लम्बाई जो इतनी थी... मुझे मैच करता था।
मगर ये सोच... न बाबा न... मुझसे तो नहीं हो पाएगी ये शादी भई।
मैनें भी तुरंत अम्मा; अम्मा यानि मेरी बड़ी माँ, हमारे यहाँ ऐसे फैसले सभी की रजामंदी से होते हैं, वो घर के बड़े हैं और मैं उनकी लाडली; हाँ तो मैंने तुरंत अम्मा को फ़ोन किया और सीधे पूछा "और कोई गन्दा लड़का नहीं मिला था आपको मेरे लिए?" आवाज़ ज़रा-सी रोनी और लाड़ वाली कर ली थी... भई नौटंकी जो करनी थी और उन्हें पटाना जरूरी था...
अम्मा ने कहा "तुम चिंता मत करो, यही बात मुझे भी परेशान कर रही है। आने दो तुम्हारे बाबूजी को मैं बात करती हूँ"। बाबूजी यानि मेरे बड़े पापा, माँ कहती है कि मुझे उन्हीं के लाड़-प्यार ने बिगाड़ रखा है...
पर चलो... अम्मा न खुद भी यही सोचा... सो अब मै पूरी तरह से बेफिक्र हूँ... क्योंकि मुझे तो वो पहले से पसंद नहीं था... मैं क्या, मेरी बहनों न भी उसे रिजेक्ट कर दिया था... बस ये सोचिये कि मज़ा आ गया...

इन्ही पन्नों पर...

अपनी हर मुलकात की,
हर बात,
अपनी हर रात का,
हर अहसास,
यूंही कैद कर लेना चाहती हूँ...
इन्हीं पन्नों पर...

हर वो खुशी,
जब भी आई हंसी,
हर वो गम,
जब आँखें हुईं नाम,
यूंही लिख देना चाहती हूँ कलम से...
इन्हीं पन्नों पर...

हर वो सदा,
जो याद आ गयी,
हर वो अदा,
जो इस मन को भा गयी,
यूंही सरे पल समेट लेना चाहती हूँ...
इन्हीं पन्नों पर...

हमेशा के लिए...

आगमन की खबर...

सुबह आँख मीचते हुए
नींद में ही करवट बदली जब,
किसी नन्हे उजाले ने
मेरा हाँथ थामा था...
जाने क्या...
किसी सफ़र में चलने को कह रहा था शायद...

बस मैं भी चल पड़ी थी
उसके पीछे-पीछे
एक अंजान रस्ते में...
पर यकीन था कि
रास्ता सही चुना है मैंने
आख़िर वो ख्वाब था मेरा
यकीन करना तो लाज़मी था...

जब चल रही थी उस रास्ते पर
कुछ नर्म-सी घांस और ओस का
अहसास हुआ था पैरों को,
ठंडी-सी हवा न छुआ था मुझे,
कुछ पत्तों की सरसराहट भी पड़ी थी
कानों में मेरे,
बहते पानी का शोर भी
समझ आया था,
जैसे कहीं दूर कोई नदी हो,
चिड़ियों की चहचहाहट भी सुनाई दी थी
जैसे उड़ा हो कोई झुण्ड आसमाँ में
एक पेड़ से दूसरे में जा बैठने के लिए....

फ़िर धीरे से करवट बदली जब दुबारा...
और आँखे हल्की-सी खोलीं थीं...
दरवाज़े से एक धुंधली-सी परछाईं
झाँक रही थी,
खिड़की से पर्दा हटाया
लगा जैसे कोई यूँही निकला हो वहां से

जिज्ञासा बढ़ी
बिस्तर छोड़ा
दरवाज़ा खोला
बाहर झाँका
जिसे पाया
वो
हल्की धुंध में लिपटी
गुलाबी ठण्ड थी
ठण्ड के आगमन की खबर के साथ...

आज छोटी दिवाली है...

देव-उठनी ग्यारस कहिये
या फ़िर कहिये तुलसी विवाह...
हमारे लिए तो ये छोटी दिवाली है...

आँगन धुलवाया है
आखिर वहां कुछ रंगों को सजाना जो है
दिए भी निकल आए धूप में
आख़िर उन्हें शाम को जगमगाना जो है...
सिंघाड़े, शकरकंद उबल गए
बेर, गन्ना, चने की भाजी, गेंहू की बाल...
लगभग हो गया सारा इंतजाम
शाम को भगवान को मनाना जो है...

दिवाली पर अपने घर पर थी
अम्मा-बाउजी, माँ-पापा
चाचा-चाची, भैया-भाभी
और सारे भाई-बहन...
और-तो-और, सारे मोहल्ले की रौनक...
पर आज,
कुछ नहीं,
कोई नहीं,
सिर्फ वही रंग, दिए और यादें...
शायद इसीलिए आज हमारी छोटी दिवाली है...

आप सभी को दिवाली एवं ईद-उल-जुहा की हार्दिक शुभकामनाएं...

कल प्रिलिम इंटरव्यू था...

जी हाँ... सही कह रही हूँ, कल मेरा प्रीलिम इंटरव्यू था, यानि प्रथम चरण...
अब आप सोचेंगे की कैसा इंटरव्यू और कैसा प्रथम चरण???
तो जैसा कि मैंने अपनी पिछली पोस्ट में मैनें "पूजा की शादी" वाली चर्चा का ज़िक्र किया था... तो कुछ लोग कुछ ज्यादा ही तेज़ निकले, अभी बात भी नहीं हुई कि घर ही पहुँच गए... उनका कहना था की उन्हें दिवाली की शुभकामनाएं देने आना है। माँ-पापा को सबकुछ पता था कि वो लोग क्यूं आ रहे हैं, पर मुझसे किसी न कुछ नहीं कहा। वो लोग ये तो कह नहीं सकते थे की मुझे देखने आ रहे हैं, क्योंकि देख तो मुझे कई बार चुके थे, आए तो बस मेरा मंतव्य जानने थे। मुझे यहाँ से इतनी दूर; 180 किमी बुलाया, सोचिये ज़रा रात में, म.प्र. की सड़कें और दूसरे दिन अचानक पता चले की लड़के के माँ-बाप आपको देखने आ रहे हैं, क्या हालत होगी? सबसे ज्यादा गुस्सा तो माँ-पापा पर आया कि "आप लोग तो मुझे बता सकते थे न?" खैर...
पर जैसा मैंने सोचा था वैसा तो कुछ हुआ ही नहीं... न मुझसे कोई सवाल न जवाब... बस आए, बैठे, गप्पे मारी, खाना खाए और चले गए। बस एक लडकी; जो लड़के की चचेरी बहन थी; वो मुझे घूर-घूर कर देख रही थी... न जाने क्या खोज रही थी, या मैं उसे दूसरे गृह की लग रही थी...
अब आप सोचेंगे कि जब कोई सवाल-जवाब हुआ ही नहीं तो मैंने इसे प्रीलिम इंटरव्यू क्यूं कहा? वो इसलिए क्योंकी अभी लड़के के माँ-पापा आए हैं, जो प्रीलिम स्टेज थी, फ़िर लड़का और उसकी बहन आयेंगे, जो मेन्स यानि सेकोन्दरी एंड फिनाल इंटरव्यू होगा। ऐसा लगता है जैसे शादी न हो गयी "लोक सेवा आयोग" के एक्साम्स हो गए.
क्या प्रोब्लम है इन लोगों का? एक बार में नहीं आ सकते क्या? खैर जो होगा देखा जायेगा... अभी तो मैं बस अपने काम पर और थोडा-सा लिखने पर ध्यान देना चाहती हूँ...

तो हम वापस आ गए...

हाँ जी...
तो दिवाली भी आ कर चली गयी, दिए भी स्टोर-रूम पहुँच गए, मिठाइयाँ भी ख़तम हो गईं, सब अपने-अपने काम में वापस लग गए... बस झालर की सजावट अभी भी वहीँ है, वो भी सिर्फ छोटी दिवाली यानी एकादशी तक... उसके बाद वो भी स्टोर में चली जाएगी... और हम भी घर से वापस कार्यस्थल आ गए...
जब मेल बॉक्स चेक किया, बड़ा अच्छा लगा... ढेर सारी बढ़ियाँ आईं थीं... मुझे बड़ी ख़ुशी होती है जब लोग मुझे याद रखते हैं... उन सभी लोगों को ढेर सारा शुक्रिया...
इस दिवाली कुछ नया करने की सोची थी, बहुत कुछ किया भी... जैसे, मिठाइयों की जगह फलों का उपयोग, मोमबत्तियों की जगह दीयों का उपयोग, और भी बहुत कुछ... लोगों को भी समझाने की कोशिश की, कुछ न सुनी, कुछ न समझी और कुछ वही पुराने, न सुनना न समझना" वाले फंडे में चले... खैर... उनसे मुझे ज्यादा फर्क भी नहीं पड़ता... पर कुछ लोगों के ऊपर गुस्सा भी आया, उनका टॉपिक ही नहीं बदला। जबसे घर आए, और जब तक चले नहीं गए, तब तक सिर्फ एक ही राग अलापते रहे... "पूजा की शादी"। मन तो आया कि पूछ लूं, कि उन्हें क्यूं इतनी चिंता है, उनके घर में भी तो लडकियां हैं उन्हें देखें... लग ही नहीं रहा था कि दिवाली मानाने आए हैं, लग रहा था जैसे मेट्रीमोनिअल वाले घर आ गए हों... और होड़ लगी हो कि ये कांट्रेक्ट किसे मिलता है... एक महाशय तो एक कदम और आगे, कहने लगे "न हो तो एक बार लड़का-लडकी मिल लें फ़िर देखा जाएगा, लड़का अभी घर आया हुआ है, कल ही मिलवा देते हैं दोनों को"... अरे, अच्छी जबरजस्ती है...
हे भगवन!!! कुछ लोग वाकई "इम्पोसिबल" होते हैं... खैर, बच गयी मैं, जिसने अपने-आप पर काबू रखा, "अतिथी देवो भवः" जहाँ में रखा... वरना अच्छी खासी इमेज का तो कचड़ा होना पक्का था...
पर समझ नहीं आता, कि लोगों को दूसरों की लड़कियों की इतनी चिंता क्यूं होती है?? भई, तुम्हारे घर में भी बच्चे हैं, उन्हें देखो, उनकी चिंता करो... और क्या शादी ही एक काम बचा है करने को... जब होनी होगी तब हो जाएगी...
हटाइए... जो होगा देखा जाएगा...
पर अच्छा तो ये था कि जो कुछ नया करने को सोचा था, उसमे बहुत कुछ सफल हुए... और आशा करती हूँ, आप सभी की भी दीपावली बहुत अच्छी हुई होगी...

मंगलमय दीपावली...

सबसे पहले आप सभी को दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं...
इस बार कई ब्लॉग पढ़े थे जिनमें नए-नए तरीके दिए गए थे, इस बार की दीपावली को कुछ खास और खुछ नया करने का...
मै उनमें से कई तरीके तो आज़माने वाली हूँ...
आप क्या नया कर रहे हैं???

आज फ़िर तुम्हें जाना है...

आज फ़िर से तुम्हें जाना है...
और मुझे याद आ रहा एक गाना है...
"मुझसे जुदा होकर तुम्हें दूर जाना है... पल भर की जुदाई, फ़िर लौट आना है.........."

अरे अरे!!!
ये क्या कर रही हूँ मैं...???
जो कुछ भी सोचा था,
उससे तो बिलकुल ही उल्टा कर रही हूँ मैं...

सोचा था...
न तो गाना गाऊँगी...
न तुम्हें रुकने को मानाउँगी...
और न ही किन्ही अदाओं से तुम्हें रिझाउँगी...
all-in-all, किसी फ़िल्मी अदाकारा जैसा कोई किरदार नहीं निभाउँगी...

पर न जाने क्यूँ...
किरदार निभाने का मन हो रहा है...
तुम्हें रिझाने का मन हो रहा है...
तुम्हें रोक लूँ कुछ भी कर के... बस...
गाना भी गाने का मन हो रहा है...
"आज जाने की जिद करो............
या...
" जाओ सैंयाँ... छुड़ा के बैंयां, कसम तुम्हारी मैं रो पडूँगी...........

शायद ये problem हम सभी भारतींयों के साथ है...
जो बड़े ही ऐसी फ़िल्में और किरदार देखकर होते हैं...
जब हीरो कहीं दूर जाता है... तब
उसकी माँ, बहन और प्रेयसी की आँखों में आँसू होते हैं...
कभी अकेले छिप-छिपकर, तो कभी सब साथ मिलकर रोते हैं...
और रातों को भूखे पेट, करवटें बदलते हुए सोते हैं...
उसके ख़त, फ़ोन के इंतज़ार में,
दिन-रात का चैन खोते हैं...
"वो खुश रहें जहाँ भी रहे!"
बस, यही लफ्ज़ हमारी जुबाँ पे होते हैं...

ख़ैर!!!
फ़िल्में, फ़िल्मों के किरदार, या फ़िर कोई गाना...
कोई अदा, या अपना कोई फ़साना...
ये सब किसी काम के नहीं।
क्योंकि आख़िरकार...
आज तुम्हें जाना है
और मुझे
तुम्हारी यादों के साथ तन्हा रह जाना है...