जाने कहाँ गया वो दिन???


"आज कुछ special बना दो, Sunday है... "
... अभी तो परसों कढ़ाही पनीर बनी थी... 

"सुनो, मैं अपने दोस्तों से मिल कर आ रहा हूँ, वो आज Sunday है न..."
... हाँ, दोस्त कौन, सब Office वाले ही तो हैं... जैसे बाकी दिन तो उनका मुँह भी देखने नहीं मिलता...
"Please, आज shopping पर मत चलो, आज घर पर ही रहते हैं... Sunday बस तो मिलता है..."
... हाँ हमारे लिए तो छुट्टी अलग दिन मिलती है... आज market मत जाओ और बाकी के दिन time नहीं मिलता... 
ये जुबां और मन की बातों की बहस चल ही रहा था कि एक आवाज़ आती है...
"भाभी, आज शाम को काम पे नहीं आएँगे, Sunday हैं न, तो बाज़ार जाना है..."
"ठीक है... कल आ जाना..."
...ह्म्म्म, तुम्हारा ही ठीक है... जाओ, बाज़ार जाओ, Sunday है... 
इतना जी जलना कम था जो फ़ोन पर भी...
"तुम चाहो तो छुट्टी लेलो, पर पेट की छुट्टी तो नहीं होती न... कुछ तो बना लो"
"आज तो वी भी कुछ अच्छा बनाना चाहिए, Sunday है"
... हाँ, सही है, रोज़-रोज़ तो बेकार ही बनता है खाना की आज बना दो... तो क्यूँ न सिर्फ Sunday को ही अच्छा बनाऊं, बाकि दिनों में ऐसा ही खाना दे दिया करूँ? जैसा नाना जी कहते थे, "पनिहार दाल, गिल्कोचा भात, नोन-नोन भरी तरकारी, अस जिउनार रचिस महतारी..."
... अरे क्यूँ बना लूं??? मेरा भी Sunday है, मुझे भी तो छुट्टी मिलनी चाहिए... पर नहीं... I don't deserve it?
मुझे ये मानसिकता समझ नहीं आती... क्यूँ Sunday है तो अच्छा खाना बने, बाकि दिनों में न बने... या Sunday है, इसिलिये पकवान पकाओ, बाकि दिन क्या सिर्फ लौकी की उबली सब्जी खाएँ?
मैं उबली सब्जी खाने को गलत नहीं कह रही, बस मिसाल के टूर पर एक बात राखी है... जिन्हें उबली सब्जियां पसंद हैं वो बेशक खाएं... सबकी अपनी-अपनी पसंद है...
Mostly घरों की यही कहानी है... Thank God मेरा घर इसका सिर्फ 50% ड्रामा झेलता है... and all thanks to माननीय पतिदेव... जो ये तो समझते हैं की आज मेरे लिए भी Sunday है...
कैसे रह लेती हैं वो औरतें जो ये सब अपने अन्दर ही लडती हैं... और किससे लडती हैं, उन्हें भी नहीं पता... कई बार तो वो अपने ही अन्दर ये बातें बोलती हैं, और बाद में अपनी कुछ खास सहेलियों से, जिनसे वो अपनी feelings share करतीं हैं...
बहुत बार मैंने ये बातें अपने आस-पास सुनी हैं... और उस पर भी पति बेचारे हो जाते हैं जिन्हें Sunday की भी छुट्टी नहीं मिलती, जो ये कहते पाए जाते हैं कि "पूरे हफ्ते office और ले-देकर एक दिन मिलता है तो वो भी..."
और अभी-अभी, फिलहाल में ही मैंने एक video भी देखा था इसी मुद्दे पर...

आप ये मत सोचियेगा की मुझे पुरुष वर्ग की Sunday की छुट्टी लेने में कोई दिक्कत नहीं है... न न, हर किसी का हक़ है, कि कम-से-कम एक दिन तो मिलना चाहिए... पर क्या महिला वर्ग का उसमे कोई अधिकार नहीं???
खासतौर पर ऐसे घरों में, जहाँ एस तरह के हालात हों...
शायद आपके आस-पास ये न होता हो... और बहुत अच्छा है यदि न होता हो...

यदि मेरी मानें तो मुझे लगता है कि, औरतों को Sunday को और भी अच्छी तरह उपयोग करना चाहिए, अपने लिए... आप भी सुबह से salon जाएँ, spa जाएँ... और यदि आप कहें तो couple में भी जा सकते हैं... हमारा आजमाया हुआ नुस्खा है... shopping चाहें तो जाएँ या न जाएँ पर यूँ ही घूमने जाएँ... जानती हूँ आपको पढने में थोडा अजीब लगेगा, पर फ़ालतू भी घूमना चाहिए, try करके देखिये... बिना काम, बिना decide किये की कहाँ जाना है, यूं ही निकल जाइये, एक drive लेकर लौट आइये... कभी, चाहें तो, फ़ोन बंद करके घर पर ही रहें... साथ में खाना बनाएँ, मूवी देखें, बातें करें... सार ये है की बस एक-दुसरे को वक़्त दें... क्यूंकि पूरा हफ्त तो वैसे भी वक़्त नहीं मिलता...

आप भी बातें की आपका experience कैसा है Sunday को लेकर... Specially शादी के बाद...  

मुझे भी अजनबी सा लग रहा है मेरा ये घर...

मैं अपने घर में ही अजनबी हो गया हूँ आकर
मुझे यहाँ देखकर, मेरी रूह  डर गयी है
सहम के आरज़ुएँ कोनों में जा छुपी हैं
लवें बुझा दी हैं अपनी चेहरों की हसरतों ने
मुरादें दहलीज़ ही सर रखके मर गयी हैं

मैं किस वतन की तलाश में यूं चला था से
कि अपने घर में भी अजनबी हो गया हूँ आकर 


ये  कविता मेरी नहीं है... कई जानने वाले लोग जानते भी होंगें कि ये गुलज़ार जी की कविता है अजनबी
बहुत दिनों से ब्लॉग जगत में वापस आने का मन हो रहा था, पर रास्ता नहीं मिल रहा था. आज अचानक इस कविता में रास्ता दिखा, ऐसा लगा मानो कोई उंगली पकड़ कर यहाँ तक पहुँचा गया हो. पर जाने क्यों सब कुछ बहुत अजीब सा लग रहा है. ऐसा, जैसे किसी अनजान शहर में पहुँच गई हूँ. लगता ही नहीं जैसे यहाँ बहुत वक़्त गुज़ारा है. रह-रहकर एक गाने कि कुछ lines याद आ रहीं हैं 

गाना था,-------                          आईना मुझसे मेरी पहली सी सूरत माँगे... 

और उसकी lines हैं,-------        आज लौट हूँ तो हँसने की अदा भूल गया,
                                                 ये शहर भूला मुझे मैं भी इसे भूल गया...  

पर कहते हैं न कि उम्मीद पे दुनिया कायम, तो आज मैं भी उम्मीद का हाँथ थामा है, देखतें हैं कितने कदम चलते हैं  साथ में...
आज के लिए इतना ही... बाकी देखते  मिलते हैं... 

कल भी मंत्री, कल भी मंत्री...

कल मुख्यमंत्री और कल वनमंत्री...
अरे नहीं नहीं, ये किसी राजनीतिक दंगल की बात नहीं हो रही और न ही मैं किसी उलटफेर की खबर आप तक पहुंचा रही हूँ... ये तो बस हम "सरकारी बच्चों" का दर्द है जो आज बयाँ कर रही हूँ...
सरकारी बच्चों" से मेरा क्या तात्पर्य है ये तो आप सब समझ ही गए होंगें... वो सारे बेचारे बच्चे जिनके parents का job-title "Govt. Job" हो... सबसे पहले तो हमें लोगों की अजीब -सी नज़रें झेलनी पड़ती है... यदि हम किसी से बेढंग तरीके से बात करें तब तो लोगों को बड़ा अच्छा लगता है "की, हाँ तुम्हारे पापा/मम्मी तो govt job में हैं न!!!" और यदि हम अच्छे-से पेश आएं तब उन्हें आश्चर्य होता है "अरे! लगता ही नहीं की तुम्हारे पापा/मम्मी Govt job में हैं"... क्यों भाई! क्या सरकारी बच्चों की सींग निकली होती है??? या, उनके दो-चार एक्स्ट्रा दांत होते हैं???पता नहीं... हो सकता है आप में से कुछ लोग मेरी बातों से सहमत न हो, परन्तु ये मेरा personal experience है...
खैर!!! अभी मैं जिस बात को लेकर यहाँ आई थी, "कल मुख्यमंत्री और कल वनमंत्री"...
आजकल यहाँ, सीधी में, मंत्रियों का आना-जाना कुछ ज्यादा ही लगा हुआ है, चुनाव की तय्यारियाँ भी शुरू हो चुकी हैं... अभी कुछ दिनों पहले मुख्यमंत्री "शिवराज सिंह चौहान जी" आए, रातों-रात यहाँ से ट्रांस्फर्स, और पूरी मेडिकल टीम को सस्पेंड कर के चले गए, कल फिर आए, सभा की, रैली निकली और चले गए... अब कल वनमंत्री आ रहे हैं, बोनस वितरण करेंगें, कुछ भाषण देंगें, कहीं का plantation देखेंगें और चले जाएंगें...
परसों नीलाम है...
फिर उसके बाद P.S. को रिपोर्ट भेजनी है...
और साथ ही साथ वन-मेला की तय्यारी, और हाँ वहां पहुंचना भी ज़रूरी है...

और ये सब देखने के बाद मम्मी कहतीं हैं कि, मेरी शादी वो एक Govt Job वाले से ही करेंगीं...
तीन दिन से मैंने अपने पापा की शक्ल ठीक से नहीं देखी, और उनके काम का इतना ज्यादा pressure जानने और समझने के बाद सब चाहते हैं कि मैं किसी ऐसे ही इंसान से शादी कर लूं... जबकि सब जानते हैं कि मुझे ये सब बिल्कुल नहीं पसंद... ये भी कोई जॉब है जिसमें न संडे, न दिवाली, न होली... किसी की भी छुट्टी नहीं... :(
मैंने बचपन से अपने पापा को यूँही देखा है, कई बार तो उन्हें ये भी पता नहीं होता था कि उनके बच्चे कौन-सी क्लास में पहुँच गए हैं??? Means, this is height.
और लोगों को लगता है कि हम, सरकारी बच्चे, सबसे ज्यादा लकी होते हैं दुनिया में... :(
होते हैं, क्योंकि हमें ऐसे parents मिले हैं... मगर कई बार दुःख भी होता है, जब घुन के साथ गेंहू को भी पिसना पड़ता है... :(
But, let it be... who cares... :)

वो सीली-सीली यादें...

धो-पोंछ के रख दी थी न हर बात???
उलझी-बिखरी,
खट्टी-मीठी,
इधर-उधर की... हर याद
हर हंसी,
हर मज़ाक,
हर अठखेली,
हर फ़रियाद,
हर अहसास,
हर जज़्बात...
फिर क्यों, यूं अचानक???
वापस आ रहे हैं वो पल...
और क्यों सता आ रहीं हैं
उन पलों की वो सीली-सीली यादें...

एक smile की ही तो बात है... :)

दिवाली आई... छुट्टियाँ लिए, सब अपने घरों की और चलते हुए...
कई रंगों के साथ, रंगोली के साथ... दीयों की जगमगाहट, designer candles की रौशनी के साथ... घर की साफ़-सफाई और सजावट में माता लक्ष्मी के आगमन के साथ, पूजा-पाठ और प्रसाद के साथ, पटाखों की गूँज के साथ... और न जाने कितनी wishes और blessings ...  फिर हर बार की तरह ढेर सारी खिलखिलाहट, हंसी, पुरानी यादों को ताज़ा करते किस्से... पारीबा का आराम, सारा शहर बंद, सब एक-दुसरे से मिलने में व्यस्त, कोई किसी के यहाँ की मिठाई की बात करता तो कोई किसी के यहाँ मिठाई न जाने पर थोडा-सा नाराज़ दिखा और कोई उस मिठाई को भेजवाने के इंतजाम में लग गया...
भाई-दूज भी आ गया, सुबह से बस नाना जी के घर जाने की तैय्यारी, कौन कितने बजे जायेगा, कौन किसको लेता आएगा... फिर वो पोनी खोसना, रोग-दोग, पूजा, ऐरी-बैरी की छाती कूटना, भाई को टीका करना, मुंह मीठा करना और हर कुंवारे बड़े भाई को धमकी देना की "अगले साल अकेले टीका नहीं करेंगे :) " फिर सबका खाना, फिर वही हंसी-ठिठोली,
वही मस्ती  मजाक,
वही कोई पुरानी याद,
वही किसी एक की टांग
फिर दुसरे को फसाना
खुद फंस जाने पर
कोई बहाना बनाना,
या फिर अपनी उसी बात पर
खुद भी ठहाके लगाना...
कितना अच्छा लगता है
ये रिश्तों का खज़ाना...

अरे वाह!!! ये तो बैठे-बैठे कुछ और ही हो गया...
शायद यही होती है रिश्तों की मिठास, उनका अपनापन और प्यार... जो न तो कभी ख़त्म होता है, बल्कि बढ़ता ही जाता है... और ऐसे मौकों पे बिना परिवार-रिश्तेदार कैसे रह लेते हैं लोग...
मुझे तो हमेशा से ही ताज्जुब होता है, जब भी ऐसा कुछ सुनती हूँ, "यार! हमें तो अकेले/अलग रहना ही अच्छा लगता है" "अरे यार! ये परिवारवाले भी न, अच्छा सर-दर्द हैं"... 
ऐसा क्यूं है???
वैसे भी अब सब अलग ही रहने लगे हैं, कोई यहाँ जा रहा है पढ़ाई करने, तो किसी को उसकी नौकरी घर से दूर ले जा रही है... किसी लड़की की शादी हो गई {जो जॉब न करती हो}, उसे अपने पति के साथ जाना पड़ता है... तो क्या, यदि हम एक-दो या कुछ दिनों के लिए एकदुसरे से मिलते हैं, साथ बैठते हैं, खाते-पीते हैं, घुमते-फिरते हैं... तो हम हंस नहीं सकते, उन पलों में भी शिकाहय्तें करना ज़रूरी होता है क्या? मीन-मेख निकलना, किसी की गलतियां निकलना, खुद को अच्छा बताने के लिए सामनेवाले को नीचा दिखाना... आखिर क्यों???
क्या ऐसा नहीं हो सकता की यदि हम सिर्फ कुछ पलों के लिए इकट्ठा हों तो बस मुस्कुराएं, हँसे और अच्छी-अच्छी यादें लेकर लौटें... जब भी किसी त्यौहार को याद करें तो अनायास ही एक प्यारी-सी मुस्कान हमारे चेहरे पर आ जाये... बजाय इसके की हमारा दिल दुखे की उसने हमें ऐसा कहा, या हमने उसे ऐसा कहा... कितनी छोटी-सी बात है... और हम जानते-समझते भी हैं... हमें याद भी रहती है... पर न जाने क्यों ऐन वक़्त पे हम इन्हें भूल जाते हैं...  

तो क्यों न अब सिर्फ मुस्कुराहटें फैलाएं...
सारी दुनिया को अपना बनायें...
कोई किसी से बेगाना न हो
किसी का किसी से बैर न हो
सब आपस में एक हो जाएँ...

जानती हूँ की ऐसी बातें कहना जितना आसान है, करना और फिर उन्हीं में अडिग रहना उतन ही मुश्किल... पर कुछ मुश्किल करके भी देखते हैं... कभी-न-कभी तो वो भी आसान होगा...  :)

फोटो विथ लाइंस...

आइये आइये आइये...
आज फिर यहीं...
कुछ अलग{शायद}...
कुछ नया{शायद}...
खैर... हाँ जी तो ये विचार आया, जोशी डेनियल {JD} के फोटोस देखने के बाद...
और यहाँ तो बस हमेशा कुछ-न-कुछ करने में दिमाग घूमता ही रहता है... सो, मैंने ये बात JD से पूछी की क्या हम ऐसा कर सकते हैं, जहाँ फोटोस उनके क्लिक किये गए हों और लाइंस मेरी हों...
कभी-कभी होता हैं न कुछ चीज़ें देखकर आप अपनेआप को रोक ही नहीं पाते, और न ही आपकी  कलम शांत बैठती है...
और यहाँ तो JD को भी आईडिया भा गया...
तो बस, चल पड़े ये आईडिया को प्रदर्शित करने... और ब्लॉग से अच्छा ज़रिया और कहाँ...
तो आज आप लोग ये भी झेलिये... :)



                                {ये फोटो है प्रयोग का पहला शिकार}
{और इसके लिए जो लाइंस खोजी हैं (अभी तो पुरानी पंक्तियाँ ही हैं, नए पर काम जारी है) वो ये हैं} :-
यदि जानना चाहते हो मुझे...
तो कभी फुरसत से,
तन्हाई में
शांत मन से
पढ़ना उन अधूरी लाइनों को
उन अधूरे पन्नों को
जो अभी भी उस डायरी में मौजूद हैं...
जो मेरे सिराहने कही रखी है...

न जाने मैं ऐसे काम क्यों करती रहती हूँ??? :)