वो आज भी वैसा ही है...
जैसे वो पहले मुझे सताता था
आज भी सताता है...
जैसे वो पहले मुझे रुलाता था,
आज भी रुलाता है
न जाने क्यूं और कैसे वो इतनी मोहब्बत कर लेता है मुझसे?
"वो हमेह्सा मेरे साथ ही रहेगा"
पहले क्या, आज भी यही जताता है मुझे...
पहले अपनी बदमाशियों से,
तो आज अपनी मजबूर बातों से सताता है
पहले अपने गुस्से से
तो आज अपनी यादों से रुलाता है
"न जाने क्या होगा हम दोनों का एक-दूसरे के बिना?"
मैं पूछती हूँ उससे...
पर ऐसा दिन कभी नहीं आने देगा...
यही कहकर हर बार खुद को मेरा बताता है मुझे...
शब्दों से दोस्ती...
न जाने क्यूं,
शब्दों से मेरी दोस्ती नहीं हैं...
इसीलिये शायद
कह पाने में असमर्थ होती हूँ
अपनी बात
हर बार...
और यही असमर्थता
खींच लाती है मुझे,
इस कागज़ की ओर...
और अपनी कलम उठा आ जाती हूँ
हर वो बात कहने
अपनी उँगलियों से
जो मेरी जुबां कह नहीं पाती...
शब्दों से मेरी दोस्ती नहीं हैं...
इसीलिये शायद
कह पाने में असमर्थ होती हूँ
अपनी बात
हर बार...
और यही असमर्थता
खींच लाती है मुझे,
इस कागज़ की ओर...
और अपनी कलम उठा आ जाती हूँ
हर वो बात कहने
अपनी उँगलियों से
जो मेरी जुबां कह नहीं पाती...
आत्मपरिचय... हरिवंश राय बच्चन {कुछ अंश}
आज मैं यहाँ अपनी कोई राचन लेकर नहीं बल्कि प्रसिद्द कवि, और जो प्रसिद्द रचनाकार भी हैं, जी, "हरिवंश राय बच्चन जी" की ही बात कर रही हूँ. शायद ही आज संपूर्ण भारतवर्ष में इनके नाम से कोई अछूता हो। खैर... पर आज मैं उनकी एक रचना "आत्मपरिचय" की कुछ अंश लेकर प्रस्तुत हुई हूँ, जिन्होंने मुझे बहुत अन्दर तक छुआ... और शायद हर लिखनेवाले की व्यथा यही है...
मैं रोया, इसको तुम कहते हो गाना,
मैं फूट पड़ा, तुम कहते हो, छंद बनाना;
क्यों कवि कहकर संसार मुझे अपनाए,
मैं दुनिया का हूँ एक नया दीवाना!
मैं दीवानों का वेश लिए फिरता हूँ,
मैं मादकता निःशेष लिए फिरता हूँ;
जिसको सुनकर जग झूम, झुके, लहराए,
मैं मस्ती का सन्देश लिए फिरता हूँ!
आशा करती हूँ आपको भी इन पंक्तियों न छुआ होगा... और इन्हें प्रस्तुत कर मै सफल हुई होंगी।
इन्हें पढ़ मेरे मन में जो आया वो कुछ इस प्रकार था...
"जो गीत तुमने गुनगुनाया, ऐसा लगा मनो
मेरा हाल-ऐ-दिल गा रहे हो
अभी जो तुमने राग सुनाया, ऐसा लगा मनो
मेरा ही तो रुदन सुना रहे हो
कैसे यूं समझ लेते हो, यूं लिख लेते हो तुम
मेरे ह्रदय की पीड़ा को
अभी जो तुमने करुण चित्र दिखाया, ऐसा लगा मनो
मुझे मेरा ही अक्स दिखा रहे हो..."
मैं रोया, इसको तुम कहते हो गाना,
मैं फूट पड़ा, तुम कहते हो, छंद बनाना;
क्यों कवि कहकर संसार मुझे अपनाए,
मैं दुनिया का हूँ एक नया दीवाना!
मैं दीवानों का वेश लिए फिरता हूँ,
मैं मादकता निःशेष लिए फिरता हूँ;
जिसको सुनकर जग झूम, झुके, लहराए,
मैं मस्ती का सन्देश लिए फिरता हूँ!
आशा करती हूँ आपको भी इन पंक्तियों न छुआ होगा... और इन्हें प्रस्तुत कर मै सफल हुई होंगी।
इन्हें पढ़ मेरे मन में जो आया वो कुछ इस प्रकार था...
"जो गीत तुमने गुनगुनाया, ऐसा लगा मनो
मेरा हाल-ऐ-दिल गा रहे हो
अभी जो तुमने राग सुनाया, ऐसा लगा मनो
मेरा ही तो रुदन सुना रहे हो
कैसे यूं समझ लेते हो, यूं लिख लेते हो तुम
मेरे ह्रदय की पीड़ा को
अभी जो तुमने करुण चित्र दिखाया, ऐसा लगा मनो
मुझे मेरा ही अक्स दिखा रहे हो..."
नमन... हिन्दी गुरुओं को...
आज एक अजीब-सा विचार मेरे मन में आया
और वही मुझे यहाँ तक खींच कर ले आया...
आज नमन करना है उन गुरुओं का...
जिन्होंने हिन्दी से मेरा परिचय करवाया...
सर्वप्रथम मेरे माता-पिता...
जिन्होंने हिंदी अक्षरों से अवगत कराया
और मेरी तोतली जुबां को बोलना सिखाया।
घर लाकर एक बड़ा-सा हिंदी अक्षर-माला का चार्ट
मुझे स्वरों-व्यंजनों को लिखना और बोलना सिखाया...
कभी सीधे, कभी बहाने से
मुझसे "अ आ इ ई" बुलवाया
तो कभी कहानियों के बीच ककहरा सुनाया
कभी देकर स्लेट-पेंसिल कहा
"इतना लिख कर दिखाओ"
तो कभी अपनी उँगलियों के बीच रख मेरी उंगलियाँ
अपनी गोद में बिठा कर लिखवाया...
कभी प्यार से तो कभी डांट कर... और बात न मानने पर,
मार के डर का प्रयोग आजमाया।
फ़िर अक्षरों को मिला-मिलाकर
शब्दों को पढ़ना सिखाया...
कुल-मिलाकर स्कूल जाते तक,
अपनी उम्रवालों के बीच मुझे हिंदी का उस्ताद बनाया।
अब बारी उन हिंदी के गुरुओं की
जिन्होंने हिन्दी विषय से परिचित कराया...
गद्य-पद्य का अर्थ और सारांश समझाया...
उसके पीछे छुपे अर्थ को कैसे समझना है
ये भी समझाया...
पर्यायवाची, समानार्थी, एकार्थी, रस, छंद, अलंकार
और भी न जाने क्या-क्या समाहित है इस व्याकरण में...
परन्तु,
उन्होंने इस कठिन हिस्से से भी निजाद दिलाया
इस भाषा की कठिनाइयों से कैसे निपटना है
ये भी बतलाया...
किसी कवी की कविताओं और
किसी लेखक के लेख की खासियत एवं
उसकी छिपी भावनाओं को कैसे पढ़ना है,
या उसे अपने वाक्यों में कैसे प्रस्तुत करना है ये भी पढ़ाया...
शायद उनका दिया ज्ञान ही है
जो यूं लिख पा रही हूँ मै...
अपनी हर भावना, हर चाहत और हर सोच को यूं
आप सभी के सामने रख पा रही हूँ मै...
इसलिए...
नमन उन सारे गुरुओं का जिन्होंने
मुझे इस प्यारी, अदभुत और
हमारी अपनी भाषा का ज्ञान दिया...
और मुझे उनकी शिष्या कहलाये जाने का सम्मान दिया...
और वही मुझे यहाँ तक खींच कर ले आया...
आज नमन करना है उन गुरुओं का...
जिन्होंने हिन्दी से मेरा परिचय करवाया...
सर्वप्रथम मेरे माता-पिता...
जिन्होंने हिंदी अक्षरों से अवगत कराया
और मेरी तोतली जुबां को बोलना सिखाया।
घर लाकर एक बड़ा-सा हिंदी अक्षर-माला का चार्ट
मुझे स्वरों-व्यंजनों को लिखना और बोलना सिखाया...
कभी सीधे, कभी बहाने से
मुझसे "अ आ इ ई" बुलवाया
तो कभी कहानियों के बीच ककहरा सुनाया
कभी देकर स्लेट-पेंसिल कहा
"इतना लिख कर दिखाओ"
तो कभी अपनी उँगलियों के बीच रख मेरी उंगलियाँ
अपनी गोद में बिठा कर लिखवाया...
कभी प्यार से तो कभी डांट कर... और बात न मानने पर,
मार के डर का प्रयोग आजमाया।
फ़िर अक्षरों को मिला-मिलाकर
शब्दों को पढ़ना सिखाया...
कुल-मिलाकर स्कूल जाते तक,
अपनी उम्रवालों के बीच मुझे हिंदी का उस्ताद बनाया।
अब बारी उन हिंदी के गुरुओं की
जिन्होंने हिन्दी विषय से परिचित कराया...
गद्य-पद्य का अर्थ और सारांश समझाया...
उसके पीछे छुपे अर्थ को कैसे समझना है
ये भी समझाया...
पर्यायवाची, समानार्थी, एकार्थी, रस, छंद, अलंकार
और भी न जाने क्या-क्या समाहित है इस व्याकरण में...
परन्तु,
उन्होंने इस कठिन हिस्से से भी निजाद दिलाया
इस भाषा की कठिनाइयों से कैसे निपटना है
ये भी बतलाया...
किसी कवी की कविताओं और
किसी लेखक के लेख की खासियत एवं
उसकी छिपी भावनाओं को कैसे पढ़ना है,
या उसे अपने वाक्यों में कैसे प्रस्तुत करना है ये भी पढ़ाया...
शायद उनका दिया ज्ञान ही है
जो यूं लिख पा रही हूँ मै...
अपनी हर भावना, हर चाहत और हर सोच को यूं
आप सभी के सामने रख पा रही हूँ मै...
इसलिए...
नमन उन सारे गुरुओं का जिन्होंने
मुझे इस प्यारी, अदभुत और
हमारी अपनी भाषा का ज्ञान दिया...
और मुझे उनकी शिष्या कहलाये जाने का सम्मान दिया...
कल के अन्जाने...
कल के अन्जाने
आज अपने-से लगने लगे...
कल तक नाम नहीं जानते थे एक-दूसरे का
आज देखो तो...
नज़रें भी पहचानने लगे
कल तक ये सुर्ख हवाएं,
अनजानी थीं मुझसे...
आज, ये मौसम भी अपना-सा लगता है...
कल तक,
डरता था दिल यहाँ आने से...
आज...
यहीं ठहर जाने को मन करता है...
आज अपने-से लगने लगे...
कल तक नाम नहीं जानते थे एक-दूसरे का
आज देखो तो...
नज़रें भी पहचानने लगे
कल तक ये सुर्ख हवाएं,
अनजानी थीं मुझसे...
आज, ये मौसम भी अपना-सा लगता है...
कल तक,
डरता था दिल यहाँ आने से...
आज...
यहीं ठहर जाने को मन करता है...
"प्रोत्साहनम परम सुखम..."
बचपन से हमेशा सुनते आये कि "संतोषम परम सुखम"... और ये बात सही भी है। जब भी आप किसी भी चीज़ में अपने-आप को मना लेते हैं, संतोष कर लेते हैं... या किसी काम को करने में आपको आत्मिक या मानसिक संतोष प्राप्त होता है तो उससे अच्छा काम आपके लिए कुछ और हो ही नहीं सकता, फ़िर चाहे वो काम कितना भी बड़ा या कितना भी छोटा क्यूं न हो?
पर जब भी आप कोई काम करते हैं, अपने लिए, अपनों के लिए या फ़िर किसी और के लिए... और आपके काम को सराहा जाये, उसकी तारीफ की जाए... मतलब आपको प्रेत्साहित किया जाए तो कितनी खुशी होती है न... और इसके विपरीत यदि आपको उस काम के लिए डांटा जाए, फटकारा जाए या कह दिया जाए कि आप उस काम के लायक ही नहीं हैं, आपसे कोई उम्मीद ही नहीं की जा सकती है... आपको हतोत्साहित किया जाए तो मन टूट-सा जाता है, लगता है कि क्योंन हम ही बार-बार बलि का बकरा बने? कभी-कभी तो हम वापस उस समस्या से, उस हालात से लड़ने को तैयार हो जाते हैं, परन्तु कभी-कभी ऐसी फटकार मिलती है कि बस... लगता है हटाओ, नहीं करना हमें भी कुछ...
और बिलकुल यही होता है जब हम अपने-से छोटों को, या अपने-से नीचे ओहदे में काम करने वालों के साथ करते हैं। उनका भी तो मन टूट जाता होगा जब हम उन्हें अच्छी खासी फटकार लगा देते हैं किसी काम के लिए। पर हमें तो बात सिर्फ अपने लिए ही याद रहती है, दूसरों के साथ यही व्यवहार करते वक़्त हम भूल जाते हैं कि वो भी इंसान हैं, उनके पास भी दिल है, उन्हें भी बुरा लग सकता है। शायद ये मनुष्य का प्राकृतिक स्वभाव है... जो हर किसी में सामान होता है।
फटकार लगाते वक़्त लोग ये भूल जाते हैं कि वो जिसे डांट रहे हैं वो उन्ही का कोई ख़ास है, उन्ही के अपनों में से है। और इसी भूल में वो अपना नुक्सान करा लेते हैं... आख़िर आपके कुछ अपने आपसे रूठ जाएं, आपके उनके बीच कोई मन-मुटाव हो जाए या आपके लिए उनके दिल में कोई बैर आ जाए तो वो आपका नुकसान ही है न?
वैसे मैंने कहीं-कहीं देखा है कि, कुछ लोग आपकी गलतियों को भी बड़े प्यार से बताते हैं, समझाते हैं और आपको उसे कैसे सुधारना है ये भी समझाते हैं... तब बड़ा अच्छा लगता है। लगता है जैसे कोई हमारे पास भी है जो हमें सही राह कैसे पकडनी है ये समझा सकता है। हाँ, आजकल ऐसे लोग मिलते बड़े कम हैं...
मुझे भी गुस्सा आता था, मैंने भी कई बार अपने से छोटों को तरीके की फटकार लगाई है, पर ये बात शायद जल्द ही समझ आ गई और मेरा ज्यादा नुकसान नहीं हुआ। इसीलिये मैंने यह तय किया कि अब मैन भी अपने आदत में सुधार लाऊँगी और डाटने-फटकारने की बजाय आराम-से, समझाउंगी... प्रोत्साहित करूंगी।
वैसे एक बात और है, हमेशा देखा गया है कि प्रोतसाहन पाने वाला इंसान ज्यादा जल्दी एवं ज्यादा अच्छी तरक्की करता है, और जिस बच्चे को प्रोतसाहन प्राप्त होता है वो हमेशा आगे ही होता है और सही दिशा की और अग्रसर रहता है। मतलब प्रोत्साहन में फायदा-ही-फायदा... आपका भी और आपके अपनों का भी...
और जब ये बातें मेरी समझ में आईं तो बस यही बात मेरे मन से निकली...
"प्रोतासाहनम परम सुखम"
पर जब भी आप कोई काम करते हैं, अपने लिए, अपनों के लिए या फ़िर किसी और के लिए... और आपके काम को सराहा जाये, उसकी तारीफ की जाए... मतलब आपको प्रेत्साहित किया जाए तो कितनी खुशी होती है न... और इसके विपरीत यदि आपको उस काम के लिए डांटा जाए, फटकारा जाए या कह दिया जाए कि आप उस काम के लायक ही नहीं हैं, आपसे कोई उम्मीद ही नहीं की जा सकती है... आपको हतोत्साहित किया जाए तो मन टूट-सा जाता है, लगता है कि क्योंन हम ही बार-बार बलि का बकरा बने? कभी-कभी तो हम वापस उस समस्या से, उस हालात से लड़ने को तैयार हो जाते हैं, परन्तु कभी-कभी ऐसी फटकार मिलती है कि बस... लगता है हटाओ, नहीं करना हमें भी कुछ...
और बिलकुल यही होता है जब हम अपने-से छोटों को, या अपने-से नीचे ओहदे में काम करने वालों के साथ करते हैं। उनका भी तो मन टूट जाता होगा जब हम उन्हें अच्छी खासी फटकार लगा देते हैं किसी काम के लिए। पर हमें तो बात सिर्फ अपने लिए ही याद रहती है, दूसरों के साथ यही व्यवहार करते वक़्त हम भूल जाते हैं कि वो भी इंसान हैं, उनके पास भी दिल है, उन्हें भी बुरा लग सकता है। शायद ये मनुष्य का प्राकृतिक स्वभाव है... जो हर किसी में सामान होता है।
फटकार लगाते वक़्त लोग ये भूल जाते हैं कि वो जिसे डांट रहे हैं वो उन्ही का कोई ख़ास है, उन्ही के अपनों में से है। और इसी भूल में वो अपना नुक्सान करा लेते हैं... आख़िर आपके कुछ अपने आपसे रूठ जाएं, आपके उनके बीच कोई मन-मुटाव हो जाए या आपके लिए उनके दिल में कोई बैर आ जाए तो वो आपका नुकसान ही है न?
वैसे मैंने कहीं-कहीं देखा है कि, कुछ लोग आपकी गलतियों को भी बड़े प्यार से बताते हैं, समझाते हैं और आपको उसे कैसे सुधारना है ये भी समझाते हैं... तब बड़ा अच्छा लगता है। लगता है जैसे कोई हमारे पास भी है जो हमें सही राह कैसे पकडनी है ये समझा सकता है। हाँ, आजकल ऐसे लोग मिलते बड़े कम हैं...
मुझे भी गुस्सा आता था, मैंने भी कई बार अपने से छोटों को तरीके की फटकार लगाई है, पर ये बात शायद जल्द ही समझ आ गई और मेरा ज्यादा नुकसान नहीं हुआ। इसीलिये मैंने यह तय किया कि अब मैन भी अपने आदत में सुधार लाऊँगी और डाटने-फटकारने की बजाय आराम-से, समझाउंगी... प्रोत्साहित करूंगी।
वैसे एक बात और है, हमेशा देखा गया है कि प्रोतसाहन पाने वाला इंसान ज्यादा जल्दी एवं ज्यादा अच्छी तरक्की करता है, और जिस बच्चे को प्रोतसाहन प्राप्त होता है वो हमेशा आगे ही होता है और सही दिशा की और अग्रसर रहता है। मतलब प्रोत्साहन में फायदा-ही-फायदा... आपका भी और आपके अपनों का भी...
और जब ये बातें मेरी समझ में आईं तो बस यही बात मेरे मन से निकली...
"प्रोतासाहनम परम सुखम"
चोप्ता... गढ़वाल की अनछुई सुन्दरता...
गढ़वाल या उत्तराँचल/उत्तराखंड... जिसे भगवान ने खुद अपने हाथों से सजाया-संवारा है शायद... अप्रतिम सुन्दरता से परिपूर्ण...यहीं एक सुन्दर जगह है "चोप्ता"... जो अभी लोगों से अनजान है... पर अब कुछ लोग जाने लगे हैं... इसे गढ़वाली "मिनी स्विट्ज़रलैंड" भी कहते हैं... ये समुद्र तल से लगभग 2900 मीटर्स की ऊंचाई पर, गोपेश्वर-उखीमठ मार्ग पर स्थित है। गोपेश्वर से इसकी दूरी लगभग 40 कि.मी. है, और ऋषिकेश से लगभग 254 कि.मी. है। वैसे तो एक चोप्ता और है परन्तु वो सिक्किम में है और उसे लोग "चोप्ता वैली" के नाम से जानते हैं।
खैर... हमें इसके बारे में तब पता चला जब हम केदारनाथ जी" के दर्शन कर जोशीमठ की ओऊ बढ़ रहे थे, क्योंकी अगले दिन हमें बद्रीनाथ जी" के दर्शन के लिए जाना था। हमारे ड्राइवर ने कहा कि "आपको न तो इस जगह के बारे में कोई बातएगा और न ही ज्यादा सुनाने को मिलेगा, पर साहब जगह देखेंगे तो मन खुश हो जायेगा"। हमने भी सोचा कि देखें तो कि ऐसी कौन-सी जगह है? और हमें कौन-सा कोई नया रास्ता पकड़ना है, बस ज़रा-सा उधर से न जाकर इधर से चल देंगे। तो हमने हामी भर दी, पर ड्राइवर्स ने वहां जाने का 40 रु. अलग से माँगा, हमने कहा ले लेना पर जगह अच्छी होनी चाहिए। सो हम चल दिए चोप्ता" की तरफ। बीच में हम "नंदा देवी नैशनल पार्क" से भी गुज़रे... और जब चोप्ता पहुंचे...
खैर... हमें इसके बारे में तब पता चला जब हम केदारनाथ जी" के दर्शन कर जोशीमठ की ओऊ बढ़ रहे थे, क्योंकी अगले दिन हमें बद्रीनाथ जी" के दर्शन के लिए जाना था। हमारे ड्राइवर ने कहा कि "आपको न तो इस जगह के बारे में कोई बातएगा और न ही ज्यादा सुनाने को मिलेगा, पर साहब जगह देखेंगे तो मन खुश हो जायेगा"। हमने भी सोचा कि देखें तो कि ऐसी कौन-सी जगह है? और हमें कौन-सा कोई नया रास्ता पकड़ना है, बस ज़रा-सा उधर से न जाकर इधर से चल देंगे। तो हमने हामी भर दी, पर ड्राइवर्स ने वहां जाने का 40 रु. अलग से माँगा, हमने कहा ले लेना पर जगह अच्छी होनी चाहिए। सो हम चल दिए चोप्ता" की तरफ। बीच में हम "नंदा देवी नैशनल पार्क" से भी गुज़रे... और जब चोप्ता पहुंचे...
वाह!!!!!!!!!!!!!!!...
बस यही कह कर रह गए थे हम सभी...
मैं नहीं जानती की उस अप्रतिम, अद्वितीय सौंदर्य को देखने का अनुभव किन शब्दों में बयाँ करना चाहिए, या कैसे लिखना चाहिए... पर जो देखा वो वाकई किसी प्रेमी के प्रेम या किसी कवी की खूबसूरत कविता से कम नहीं था... मै कभी स्विटज़रलैंड नहीं गयी, परन्तु जिस वहां का जो सौंदर्य-वर्णन सुना है, ये जगह उससे कहीं खूबसूरत थी। शायद काश्मीर में ऐसी ही किसी जगह को देखकर मशहूर शायर "अमीर खुसरो" ने फ़रमाया होगा...
"गर फिरदौस रू-ऐ-ज़मीं अस्त, हमी अस्त-ओ हमी अस्त-ओ हमी अस्त-ओ हमी अस्त..."
बस यही कह कर रह गए थे हम सभी...
मैं नहीं जानती की उस अप्रतिम, अद्वितीय सौंदर्य को देखने का अनुभव किन शब्दों में बयाँ करना चाहिए, या कैसे लिखना चाहिए... पर जो देखा वो वाकई किसी प्रेमी के प्रेम या किसी कवी की खूबसूरत कविता से कम नहीं था... मै कभी स्विटज़रलैंड नहीं गयी, परन्तु जिस वहां का जो सौंदर्य-वर्णन सुना है, ये जगह उससे कहीं खूबसूरत थी। शायद काश्मीर में ऐसी ही किसी जगह को देखकर मशहूर शायर "अमीर खुसरो" ने फ़रमाया होगा...
"गर फिरदौस रू-ऐ-ज़मीं अस्त, हमी अस्त-ओ हमी अस्त-ओ हमी अस्त-ओ हमी अस्त..."
वो सेब वाकई खट्टे थे...
आज फ़िर यादों के पिटारे से एक याद आपके साथ बांटने आई हूँ। ये बात है जब हम बद्रीनाथ जी के दर्शन करने गए थे... आज भी आँखे बंद कर लो तो पूरा नज़ारा सामने आ जाता है। तो हम निकले तो देहरादून से थे, रात में कर्णप्रयाग में रुके, और दूसरी सुबह केदारनाथ जी के दर्शन को चले गए। किस्मत बहुत अच्छी थी जो न तो लैंड-स्लाइड मिला और न ही कोई गेट बंद। सभी अच्छा-अच्छा... फ़िर तीसरे दिन हम पीपल" करके कोई जगह थी {मुझे नाम ठीक से याद नहीं है}, वहां से बद्री जी के दर्शन को निकले... रास्ते में सेब के पेंड़ देखे, वो सेब कुछ अजीब-से थे, परन्तु अच्छा लग रहा था। पहाड़ियां, घुमावदार रस्ते देखने में मज़ा आ रहा था। इंतज़ार थे कि कब मंदिर पहुंचेंगे। और पापा ने बताया कि वहां से हम "माना गाँव" भी जायेंगे, जो कि बिलकुल भारत-चीन बोर्डर का आख़िरी गाँव है। और ये सेब के पेंड़ देख कर तय हुआ कि लौटते में खरीदेंगे।
मंदिर गए, दर्शन किया, सबके लिए प्रशाद भी लिया, माना गाँव गए। जब लौटने लगे तो माँ-पापा ने भगवान से प्रार्थना की कि सभी को अपने द्वार एक बार जरूर बुलाना... उनका भी सोचना सही ही था।
हाँ तो जब लौटने लगे तो एक सेब-वाली के पास रुके, ड्राइवर भाव तय करने लगा, उसे वहां की भाषा आती थी तो उसके लिए आसान था। और हमने उन सेब के गुच्छों के साथ फोटो खिचवाने की इक्छा जाहिर की तो उसकी मालकिन ने माना कर दिया, हमने कहा भी कि उसके पेंड़ को कोई नुक्सान नहीं पहुंचाएंगे तब भी नहीं मानी।
खैर... उसके साथ न सही परन्तु उस पेंड़ की हमने कुछ फोटोस ले ली... परन्तु सबसे मज़ा तो तब आया जब हमने उस सेब को चखा... बाप रे बाप! सच मानिए इतना खट्टा सेब मैंने क्या हम सभी में से किसी ने अपनी अभी तक की ज़िन्दगी में नहीं खाया था... माँ खट्टा बहुत ही कम खातीं हैं तो उनकी तो हालत ही ख़राब हो गयी...
बाद में हमने वो सारे सेब उठा कर दोनों ड्राइवर्स को दे दिए...
परन्तु अनुभव अच्छा था...
वो धतूरे का फूल...
ये पीले धतूरे का फूल है... मेरे घर में खिला था। एक्चुली ये आया तो था मामाजी के लिए, उन्हें भगवान से जुड़े फूल-पत्ती घर में लगाने का बड़ा शौक है, कहीं से कुछ पता चलता है वो मंगवा लेते हैं। चाहे वो पीला धतूरा हो या सफ़ेद पलाश। परन्तु किसी करणवश ये मामा के घर जा नहीं पाया था... हम पहुंचा ही नहीं पाए थे, और वो भी नहीं कि ले जाएँ। इसी बीच उसमें ये फूल खिला, जो थोड़ा अजीब-सा लगा था, क्योंकि इसमें एक कि जगह तीन फूल एक के अन्दर एक थे। ये बात पहले समझ नहीं आई थी, जब इसमें केवल कलियाँ थीं, परन्तु जब फूल खिला तब समझ में आया, और बिना देर किये मैंने इसे अपने कैमरे में कैद कर लिया। और आज इसे आप सबके सामने प्रस्तुत भी कर दिया... हो सकता है कि आपमें से कुछ ने ऐसा कुछ कहीं देखा हो, परन्तु मेरे और मेरे परिवार के लिए ये पहला अनुभव था, सो आप सभी के साथ बाँट रही हूँ...
मिलती हूँ अगली पोस्ट में...
कुछ ख़ास...
एक आस, एक प्यास...
बस एक और मंज़िल की तलाश...
इतना मिलने के बाद भी यदि चाहत है कुछ और पाने की...
तो, हो-न-हो, वो ज़रूर है कुछ ख़ास...
बस एक और मंज़िल की तलाश...
इतना मिलने के बाद भी यदि चाहत है कुछ और पाने की...
तो, हो-न-हो, वो ज़रूर है कुछ ख़ास...
जाने क्यूं???
न जाने आज तेरा इतना इंतज़ार क्यूं है?
न जाने आज तुझे देखने को दिल इतना बेकरार क्यूं है?
कभी-कभी तो सोचती हूँ...
न जाने तेरी हर बात पे मुझे, मेरे दिल को
इतना ऐतबार क्यूं है???
...
न जाने आज तुझे देखने को दिल इतना बेकरार क्यूं है?
कभी-कभी तो सोचती हूँ...
न जाने तेरी हर बात पे मुझे, मेरे दिल को
इतना ऐतबार क्यूं है???
...
धन्यवाद...
आज तक सिर्फ सुना था कि आपको कब किसकी दुआ मिल जाये और कब किसकी दुआ लग जाये ये कह नहीं सकते, पर जब यही मेरे साथ हुआ तब यकीन आ गया, कि नहीं ऐसा सिर्फ कहने के लिए नहीं बल्कि होता भी है। कुछ दिनों पहले मै बहुत ही असमंजस की स्थिति में थी, कुछ समझ नहीं आ रहा था कि क्या करूँ? तभी यहीं-कहीं से कुछ खास लोगों ने मुझे अपने आशीर्वाद से नवाज़ा और मेरे लिए दुआ की, और उनकी प्रार्थना उस ऊपरवाले ने कबूल भी कर ली... {मेरी पिछली कविता में}...
इसीलिए ये पोस्ट उन सभी लोगों को समर्पित करना चाहती हूँ जिन्होंने मुझे अपनी दुआओं से नवाज़ा... और वो मुझे सिर्फ यहाँ, यानी मेरे ब्लॉग के ज़रिये जानते हैं... पर कहूँ या कहूँ परन्तु इस धन्यवाद का बहुत बड़ा हिस्सा चिठ्ठाजगत को भी जाता है जिन्होंने उन लोगों को मुझ तक पहुँचाया... वरना वो मुझसे और मै उनसे अनजान ही थी...
आप सभी का बहुत-बहुत शुक्रिया और आशा करती हूँ कि यूँही हमेश आप मुझे अपने आशीर्वाद और दुआओं से नवाजते रहेंगे...
धन्यवाद...
इसीलिए ये पोस्ट उन सभी लोगों को समर्पित करना चाहती हूँ जिन्होंने मुझे अपनी दुआओं से नवाज़ा... और वो मुझे सिर्फ यहाँ, यानी मेरे ब्लॉग के ज़रिये जानते हैं... पर कहूँ या कहूँ परन्तु इस धन्यवाद का बहुत बड़ा हिस्सा चिठ्ठाजगत को भी जाता है जिन्होंने उन लोगों को मुझ तक पहुँचाया... वरना वो मुझसे और मै उनसे अनजान ही थी...
आप सभी का बहुत-बहुत शुक्रिया और आशा करती हूँ कि यूँही हमेश आप मुझे अपने आशीर्वाद और दुआओं से नवाजते रहेंगे...
धन्यवाद...
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