आज कल बड़े मज़े हैं...

ह्म्म्म...
इन दिनों मिजाज़ ही अलग है
मौसम ही शायद बदल गया है

एक पुरानी कविता याद आती है...
"कहो जी बेटा राम सहाय
इतने जल्दी कैसे आए?
अभी तो दिन के दो ही बजे हैं
कहो आजकल बड़े मज़े हैं"

बस यही हाल आजकल अपना है... सुबह देर से उठाना, रात में देर तक जग सकना, bed-tea उठते ही हाँथ में होना... आहा... लगता है जैसे बरसों की कैद ख़त्म कर किसी holiday पर आ गयी हूँ...
बोले तो पूरी ऐश... no झंझट... सब कुछ फटाफट...
शायद इसीलिए एक बुरी आदत भी लग रही है... आलस की...
खैर... आजकल पापा के यहाँ हूँ... resignation letter पटक ही आई हूँ, तो टेंशन भी नहीं है...
पापा अच्छे-खासी govt. post पर हैं तो किसी चीज़ की कमी है ही नहीं... सुबह से "बड़ी दीदी जी, चाय" का राग शुरू होता है... मैं हूँ भी teaholic तो चाय के बिना तो काम ही नहीं चलता, बस taste बदलता रहता है... हाँ मम्मी जरूर कहती रहती हैं कि आदत बिगड़ जाएगी... पर हो गया यार, बड़े दिनों बाद ये आराम का वक़्त मिल रहा है... और वो भी न जाने कितने दिनों के लिए...
इस समय तो बस पुराने बचे, आधे-अधूरे novels ख़त्म करने में लगी हूँ... अपनी खुद की कुछ कवितायेँ जो यूँहीं लिखी फ़िर बीच में ही छोड़ दी उन्हें पूरा करने में जुट गयी हूँ...
आख़िर वक़्त मिला है, भले ही अपने मन का हो... तो करना भी चाहिए वही जो दिल चाहे...
सुबह भी बड़े दिनों बाद continuous गाने सुने... वर्ना बस पसंद आया, download किया पर सुन नहीं पाते थे, या फ़िर शुरू की कुछ लाईन्स... या फ़िर एक-दो बार बस...
पर आजकल... बस ऐश ही चल रही है...
हाँ मम्मी-पापा को जरूर कुछ ख़ास बना कर खिलाया... वो भी मेरा मन हुआ इसीलिए, वर्ना पापा ने मन किया था...
बस एक साल में ऐसे ही कुछ दिन मिल जाएं... और क्या चाहिए...
पर तब भी न जाने क्यूं कुछ रिश्तों में शायद कुछ ग्रहण सा लग गया है... जब देखो बहस... और इस समय में load लेने के मूड में नहीं हूँ... और न ही लड़ने-झगड़ने में... इसीलिए कन्नी काट लेती हूँ और निकल लेती हूँ पतली गली से... बस शायद बचने की कोशिश करती हूँ अभी इस सब चीज़ों से... वर्ना, short-tempered तो मैं हूँ ही...
ये भी जानती हों कि वो लोग अभी इस पोस्ट को पढ़ भी रहे होंगें... कुछ गुस्सा और कुछ हंसी, दोनों मूड में होंगे... छोडो न यार... ख़त्म करो... फिलहाल में मूड में नहीं हूँ लड़ने के... बाद में निपटेंगें...
खैर...

आप सभी को आनेवाले वर्ष की ढेर सारी हार्दिक शुभकामनाएं...

बाकी मैं पहली तारीख को तो आउंगी ही...

काश मुहब्बत कुछ आसाँ होती... तो...


काश मोहब्बत को पढ़ पाना
इतना आसाँ होता... तो...
एक-आध लाईब्रेरी हम भी बना लेते...

काश मोहब्बत को समझ पाना
इतना आसाँ होता... तो...
दो-चार गुरुओं को ख़ास हम भी बना लेते...

काश मोहब्बत को देख पाना
इतना आसाँ होता... तो...
टेलिस्कोप/माईक्रोस्कोप हम अपनी आँखों में लगवा लेते...

काश मोहब्बत को लिख पाना
इतना आसाँ होता... तो...
दो-चार महफ़िलें हम अकेले ही सजा लेते...

पिछले दिनों...

पिछले कुछ दिन बड़े अजीब बीते...
बहुत सारे परदे उठे,
बहुतों की सच्चाई सामने आई...
पहले तो यकीन नहीं हुआ,
कि ये वाकई सच है...
दिमाग ने मान भी लिया...
पर दिल को समझाना जरा मुश्किल था...
धीर-धीरे वो भी समझ गया

लगा जैसे किसी जोर का तमाचा मार
नींद से जगा दिया दिया हो मुझे...
और एक सुन्दर-सा ख्वाब
जो देख रही थी मैं
उसे तोड़ दिया हो
चकनाचूर कर दिया...
तिमिर से निकाल मुझे
अचानक
दोपहर कि चिचालती धुप में ला खड़ा किया हो...
आँखे भी मिलमिला गयीं थीं...

पर धीर-धीरे उन्होंने भी
साचा के उजाले को,
उसकी तपन को अपना लिया...

सबसे बड़े आश्चर्य की बात
न जाने कहाँ से मुझमें
ये सहनशक्ति आ गयी
कि मैं उन चेहरों को
देख मज़े ले रही थी
मुस्कुरा रही थी
मुझे खुद नहीं पता कि
मेरा comfort-zone
अचानक इतना बड़ा कैसे हो गया...

पर...
जो हुआ
बहुत खूब हुआ
अच्छा हुआ...
मुझे इस यथार्थ को जाने का संयोग प्राप्त हुआ...

उन सभी चेहरों को
उन मुखौटों को शुक्रिया...

और माई चली गई...

सुबह ही तो ज़रा-सी तबियत बिगड़ी थी... सिर्फ सर ही घूमा, थोड़ी-दी उल्टी हुई... पर रात में तो खाना खाई थी... अचानक... रात को 11 बजे... वो हम सब को छोड़ कर चली गई...
न जाने और क्या-क्या अचानक होगा???
पूरी तरह plan बनाया था कि, इस बार उनसे मिलने ज़रूर जाउंगी... और मन भी बहुत था उनसे मिलने का...
वैसे तो वो मेरे दोस्तों की "दादी" थी, पर वो दोनों भी उन्हें माई बोलते थे इसीलिए वो सबकी माई बन गई थीं...
परसों रात से न तो किसी काम में मन लग रहा है और न ही उन दोस्तों से बात करने की हिम्मत हो रही है...
वो कुछ दिन और रुक जाती तो मिल तो लेती मैं...
सब न कहा कि कुछ लिख, पर मन ही नहीं हुआ... सोचा मन हटाने के लिए पुरानी कविताओं को पूरा करने की कोशिश करूँ, पर जो शब्द लिखे थे वो भी समझ नहीं आ रहे थे, आगे लिखती कैसे???
सच कहूँ तो यहाँ भी यूँही लिखे जा रही हूँ जो भी मन में आ रहा है... जाने कौन-सा शब्द किससे मिल रहा है, या नहीं... कोई चिंता नहीं... कुछ नहीं...
परसों रात ही लग रहा था भाग कर जाऊं और उनसे ऐसे ही लिपट कर रो लूं... पर शायद बदकिस्मती ये ही कहलाती है... और मन, वो तो इतना पापी है कि क्या कहूँ???
पहली बार अपनी intuitions पर इतना गुस्सा आ रहा है, चिढ हो रही है... सुबह जब उनकी तबियत कि खबर मिली थी तभे मन में आया था कि बोल दूं कि, "देखे रहना"... फ़िर लगा नहीं यार, ऐसा नहीं सोचते... अपने-आप को समझाया, और रात में...
रिकोर्ड है कि जब भी मेरी और माँ कि कमर दर्द होती है, वो एक अजीब-सा दर्द होता है जो न तो दवाई से ठीक होता है और न ही मालिश से, तब कुछ-न-कुछ अभशगुन होता है...
अभी भी ऐसा ही हो रहा था...
मेरा चचेरा भाई भी नाडियाट में admit है, उसके दोनों kidney fail हो गई हैं, उसकी भी तबिओयत रोज़ खराव्ब होती है... इसीलिए doctors transplant करने की process आगे नहीं बढ़ा पा रहे हैं... बस उसी का डर लगता है रोज़... जब भी फ़ोन आता है, किसी का भी हो, बस भगवान से अर्जी लगाना पहले शुरू कर देते हैं कि सब ठीक रखना...
कहाँ हम उसे ताक कर बैठे थे और कहाँ ये खबर...
हे भगवान!!! वाकई तुम्हारी लीला समझ से बाहर है...
We will miss you MAAI...

वो कलम...


काश ऐसी कलम ईज़ाद हुई होती
जो बस यूँही
चलती रहती बिना रुके
और मन की हर बात
लिख जाती
बिना चुप हुए बीच में...

जिसे सोचना न पड़ता
कि, किस बात को लिखना है किस तरह???

वो तो बस
चलती मदमस्त पवन की तरह
और उड़ा ले जाती
इस गम और ख़ामोशी के बादलों को कहीं दूर...
या बहती उस चंचल नदिया की तरह
जो सारे कलरव खुद में समेटती
अग्रसर होती है अपनी मंज़िल की ओर...
और एक दिन,
शांत हो जाती है मिलकर
उस अथाह समुद्र से
जो न जाने
कितनों का दुःख,
कितना शोर समेटे हुए है
अपने-आप में...
परन्तु तब भी शांत है...

पर कभी-कभी वो भी उछाल मारता है
लांघ कर अपनी सीमा
जताता है शायद,
कि,
अब उसका भण्डार भर गया है
या
उसकी कलम भी कहीं खो गयी है...

बनारस...

ये है एक पावन धरती
यहाँ है गंगा, भोलेनाथ
और न जाने कितनी संस्कृतियों का मेल...
मत करो ये शोरगुल, ये धमाके
और ये लाश बिछाने का खेल...
कुछ और नहीं कर सकते
तो इतना ही कर दो
अपने नाम के आगे से ये "INDIAN" ही हटा दो...

माँ का बर्थडे था...

4 दिसंबर को माँ का बर्थडे था, और इसीलिए तीन दिन तक मैं नदारद थी...
हुआ यूं, कि बर्थडे में माँ को गिफ्ट देने पर विचार चल रहा था कि क्या दें और क्या नहीं... क्योंकि माँ जो चाहती हैं उन्हें मिल जाता जाता है, तो कुछ ऐसा नहीं था जो वो चाहती हों और उनके पास न हो...
तो मैनें उन्ही से पूछ लिया कि उन्हें क्या गिफ्ट चाहिए... पहले तो उन्होंने मना कर दिया कि "कुछ नहीं चाहिए", पर बहुत जिद करने पर बोलीं कि "फ़िर जो चाहिए वो तुम दे नहीं पाओगी।"
मैं भी सोच में पड़ गई कि ऐसा वो क्या माँगने वालीं हैं???
पहले तो लगा कि फॉर वही शादी कि बात होगी, फ़िर लगा कि चलो जो होगा वो देखा जायेगा... मैंने भी कह दिया कि "ठीक है, आप मांगिये आपको जो भी माँगना है, मेरे बस का हुआ तो पक्का दूंगी।"
उन्होंने कहा कि "तुम्हारे बस का ही है, बशर्ते तुम दोगी"
मैंने कहा... "ठीक है, आप मांगिये"
फ़िर तो जो माँ न कहा वो bouncer ही था...
उन्होंने कहा कि "मुझे तुम्हारा time चाहिए, तुम तीन दिन हम सबके साथ रहोगी। और उन दिनों में कोई काम नहीं और न ही blogging... "
फ़िर मैं करती भी क्या, चुपचाप उनकी आज्ञा का पालन किया और अच्छी बिटिया कि तरह पहुँच गई उनके पास... और तीन दिन न e-mails, न blogging, और ही ऑफिस का काम, हाँ बस mobile से दिन में एक बार फेसबुक स्टेटस अपडेट कर दिया...
3 को माँ-पापा के पास पहुंची, मस्त उन्हें खाना-वाना खिलाया.... उस दिन माँ को रसोई से छुट्टी दे दी थी... वैसे भी काटने-बीनने का काम नौकर कर देते हैं पर माँ को उस दिन खाना भी नहीं बनाने दिया... 4 को भे यही था, हाँ खाने में कुछ खास लोगों को बुलाया था, माँ कि एक सहेली भी थी, जो उनके साथ स्कूल में थीं...
5 को सोन-घड़ियाल सेंचुरी गए थे, मगर शाम हो जाने के कारण सिर्फ प्रजनन-केंद्र देखा... उसके बारे में अगली पोस्ट में बताउंगी...
मगर हाँ, कई दिनों बाद सबके साथ इतना time spend करके बड़ा अच्छा लगा...
ये रहा माँ के बर्थडे का केक...
आप भी enjoy कीजिये...

आज की पोस्ट यहाँ नहीं है...

जी हाँ सही पढ़ा आपने, आज मेरी पोस्ट प्रकाशित तो हुई है, परन्तु यहाँ, मेरे ब्लॉग पर नहीं...
आज मेरी लिखी एक कविता प्रकाशित हुई है S.M.Masoom ji के ब्लॉग "अमन का पैगाम" में...
सच कहूँ तो जब मासूम जी ने मुझसे इस विषय पर लिखने को कहा, तब बुद्धि काम ही नहीं कर रही थी... समझ नहीं आया कि मैं क्या लिखूं इस परा क्योंकि बड़े-बड़े लोग इस विषय पर लिख रहे थे, और मासूम जी उनकी रचनाएँ पोस्ट भी कर रहे थे... और इस लोगों के सामने मैं तो एक विद्यार्थी हूँ... और मेरी बुद्धि, गज़ब है... हमेशा उल्टी ही चलेगी... उन्होंने लिखने को कहा था कुछ और मैं लिख रही थी कुछ... {आप पढियेगा, तो खुद ही समझ जाएगें} ...
खैर, डरते-डराते उन्हें अपनी रचना भेज दी... और साथ में ये भी लिख दिया कि, "आप पहले देख लें, ठीक लगे तभी प्रकाशित करें"... कल{1/dec} उनका मेल आया कि आज मेरी रचना को प्रकाशित किया जा रहा है... यकीन मानिये, लगा था कि हो गया बेटा पूजा जितनी भी image बनी है आज सबका कचरा होना है... लगा था कि लोग न जाने क्या सोचेंगें??? कहेंगें... "अच्छी उल्टी खोपड़ी की लडकी है"
पर आज जो हुआ... unbelievable... सच... यकीन नहीं हो रहा कि लोगो को पसंद आ रहा है... लोग तारीफ कर रहे हैं... शायद किस्मत है कि लोग और मेरी ऐसी उल्टी-पुलटी रचनाओं को भी पसंद कर रहे हैं...
सबसे पहले मासूम जी को धन्यवाद, जिन्होंने मुझे लिखने का अवसर प्रदान किया... और फ़िर उन सभी लोगों को धन्यवाद जिन्होंने यूं मुझपर अपना आशीष बनाया और मेरी ऐसी रचना को भी पसंद किया...
बहुत-बहुत शुक्रिया...
रचना यहाँ है...
कौन-सा पैगाम... और किसके नाम...???