नमस्ते...
आज अचानक पूजा करते वक़्त, भगवान के समक्ष एक बात याद आ गई। सोचा क्यूं न आप लोगो के साथ बांटी जाए। बात को कुछ वक़्त हो चुका है, यही कोई 2 साल, हमारे नाना के घर एक बड़ा-सा पूजाघर है, और यदि देवालय बड़ा है तो बनी बात है की भगवान की मूर्तियों और रूपों की संख्या भी ज्यादा ही होगी। तो हुआ यूं कि हम सब भई-बहन आँगन में बैठे कुछ हँसी-ठिठोली कर रहे थे और उस पुजहा की और भी देख रहे थे, {जी नाना के यहाँ पूजाघर को पुजहा बोलते हैं}, और धीरे-धीरे हंस भी रहे थे, बीच में यदि कोई बड़ा वहां से गुजरता तो एक-दूसरे को चुप होने भी कहते, पर नाना जी के कान हमारी बातों में ही थे श्स्यद क्योंकी वो वहीँ आँगन में तैयार हो रहे थे संध्या-आरती के लिए। अरे भई! पुराने पंडित हैं, राजगुरु-राजपुरोहितों का खानदान है, तो परंपरा भी वैसी ही चली आ रहीं हैं, सुबह-शाम पूजा होना, भगवान का दोनों टाइम का नहाना, भोग लगना, पुजहा की साफ़-सफाई... वगैरा-वगैरा... पनतु यदि धोखे-से हम भाई-बहनों में किसी को कह दिया जाए किसी भी एक टाइम की पूजा करने को तो बस, सभी एक-दूसरे का मुँह देखते और इशारे से बोलते की "तुम कर लो"। पर वहां हमारी माँ-मौसियों का सिखाया को-ओपरेटिव फुन्दा काम कर जाता और दो-तीन लोग मिलकर पूजा निपटा देते।
बस ऐसी ही बातें चल ही रहीं थीं की नानाजी ने संध्या-आरती के लिए घंटे-घंटियाँ, शंख बजने की आवाज़ लगाई "जो-जो बच्चे आरती में आना चाहते हैं तो आ जाओ, आरती शुरू होने वाली है"। हाँ एक बात और, हमारे नानाजी थे बहुत ही अच्छे, वो हमेशा जानते थे की उनके नातिन-नातियों को क्या पसंद है, तो कभी भी उनकी तरफसे कोई भी बाध्यता नहीं होती थी कि आरती में आना जरूरी है या नहीं, और शायद यही सबसे बड़ी खासियत थी कि बच्चे उनके पास अपने-आप चले जाते थे। हाँ तो जैसे ही उन्होंने आवाज़ लगाई सारे बच्चे पहुँच गए उनके पास, और हाँ, जब भी हम सब इक्कठा होते थे वो शाम का भोग कुछ ख़ास और ज्यादा ही लगाते थे, बाकी आम दिनों में तो दूध-शक्कर, दूध-मिश्री या दूध की जगह मलाई हो जाती थी। तो जैसे ही हम सब पुजहा में पहुँचते, पूरा-का-पूरा पुजहा भर जाता, {हम कुछ ज्यादा ही बच्चे हैं, बड़ा परिवार है न, मम्मी लोग सात बहनें हैं, और उन सभी के बच्चे... तो आप खुद ही सोच सकते हैं}। खैर आरती हुई, प्रसाद मिला और हम सब फ़िर से आँगन में, अपनी पंचायत में... कुछ देर बाद नाना भी वंही आकर बैठे और अपनी चाय का इंतज़ार करने लगे। हम लोगों ने जैसे नाना को देखा पहले तो थोडा-सा चुप हुए और फ़िर टॉपिक ही बदल दिया। पर शायद नाना भांप गए थे, सो वो खुद ही बोले... बोले, "बच्चों चलो एक बात बताओ, कि क्या ये सही है कि भगवान नहाते तो तब हैं जब हम नहा कर उन्हें नहलाएं, और खाने के लिए हमसे पहले ही खा लेते हैं?"। हम सब नाना को देखना लगे, जैसे हमारी बातें पकड़ लीं गईं हों। तब नाना फ़िर से बोले, "आख़िर यदि हम नहाते पहले हैं तो हमें खाना भी पहले ही मिलना चाहिए, या भगवान को नहाना पहले चाहिए?" हंस अब धीरे-धीरे मुस्कुराने लगे, इतने में हमारी एक प्यारी-सी छोटी बहन बोल पड़ी, "पता है नाना जी, हम लोग अभी यही बात कर रहे थे, और भैया लोग तो ये भी बोल रहे थे कि इतने सारे भगवान हैं क्यूं पुजहा में? किसी दिन हम लोगों को पूजा करने को कहेंगे तो हम इन्हें आधे कर देंगे।" नानाजी पहले तो हम लोगों की तरफ देखे, फ़िर हसने लगे, बोले... "मुझे भी ऐसा ही लगता था, जब मैं छोटा था, पर तब इतने भगवान नहीं थे और न ही वो हनुमान जी का मंदिर" {अरे हाँ! हमारे नाना के घर के सामने एक बहुत बड़ा-सा मैदान है फ़िर रोड है और उसके उस पार हमारा ही एक कुआँ और हनुमान जी का मंदिर भी, और वहां भी रोज़ पूजा और भोग लगता है। और तो और नाना का घर इतना छोटा है कि वहां 8 तो आँगन हैं वो भी बड़े-बड़े, तो बाकी आप अंदाजा लगा लीजिये}। और हम सब हंसने... ऐसा लगा जैसे नाना जी समझ गए थे कि हम बच्चे किस बात को लेकर इतनी गपशप कर रहे थे और मज़े-से हंस रहे थे... और यदि हम लोग धोखे-से मम्मी लोगों से कहते तो पक्के-से दांत पड़ती, कि "आख़िर हम लोग भी तो बच्चे थे, हम लोगों ने भी किया है ये सब"। पर नाना, नाना बिलकुल अलग थे... इन लोगों जैसे नहीं... हाँ हामारी एक मौसी जरूर बताती हैं कि, वो जब छोटी थीं और उन्हें पूजा करने को कहा जाता था तो वो पाँचों उँगलियों से चन्दन लगती थीं, कहती थी कि, "हम एक साथ चन्दन घिस लेते और सभी भगवानों को एक थाली में रखकर {शिव जी और सभी सालिग्राम जी को } पाँचों उँगलियों में चन्दन लगाकर सभी को शोर्ट-कट में निपटा देते थे...
बस आज भी मम्मी के पुजहे में पूजा करते में अचानक से ये यादें ताज़ा हो गयीं... पर जवाब आज तक नहीं मिला, कि भगवान खाने को पहले और नहाने को बाद में क्यूं होते हैं?
आप भी सोचिये और मुस्कुराइए...
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