कभी-कभी कुछ बातें बिलकुल ही समझ से परे होती हैं... समझ नहीं आता कि हम किस पाले में हैं, या वो हमें क्या समझते हैं... कभी हम उनके लिए दुनिया में सबसे ज़्यादा समझदार इंसान होते हैं और फ़िर कभी अचानक से पूरे बेवकूफ... कभी उन्हें हमारा कोई काम न करना बिलकुल अच्छा नहीं लगता और कभी वही काम करना पसंद नहीं आता... आख़िर हम करें भी तो क्या करें? और पूछें भी तो किससे कि हम उनकी नज़रों में हैं क्या... समझदार या नासमझ...?
जी हाँ... मेरा इशारा हमारे बड़ों की तरफ है, खासतौर पर हमारे माता-पिता... कभी-कभी लगता है कि हाँ, हम उन्हें कुच्छ तो समझते हैं, पर कभी-कभी वो, उनकी बातें कुछ भी समझ नहीं आती... कभी तो वो हमें किसी काम को करने या कोई निर्णय लेने पर कहते हैं कि, " हाँ, हमारा बेटी/बेटा अब समझदार हो गई/गया है" या "हमारे बच्चे अब बड़े हो गए हैं, अब वो सही फैसले ले सकते हैं" {तो क्या सही फैसले सिर्फ बड़े ले सकते हैं?}, खैर..., और कभी उन्ही बच्चों को अचानक से ये सुनने मिलता है कि, "अभी तुम इतने बड़े नहीं हुए कि ऐसे फैसले ले सको" या, "कभी तो बड़ों जैसी बात किया करो" या, "अब तो बड़े हो जाओ"... वगैरा-वगैरा... जब शाबाशी मिली तब तो फूल के गुप्पा हो गए पर जब फटकार हाँथ आई तब लग गए विश्लेषण करने में कि आख़िर गलती हुई कहाँ? पर गलती समझ ही नहीं आती... और ये किसी एक बच्चे की दास्ताँ नहीं है बल्कि घर घर कि कहानी है... न सिर्फ बच्चों को बल्कि यह बात हर छोटे को अपने बड़े से सुनने मिल जाती है...
बस इन्ही बातों ने परेशान किया था, कि आख़िर हमें कभी समझदार तो कभी एक नासमझ की पदवी क्यूं दे दी जाती है... और तो और ये तबादला बहुत ही जल्दी-जल्दी किया जाता है... तब मी इनकी बातों में ध्यान देना शुरू किया कि कौन-सी बातों के लिए हम होशियार और कौन-सी बातों के लिए नालायक होते हैं? और जो पाया वो तो और भी समझ से कोसों दूर था... जब हम कोई ऐसा काम करते हैं जो हमारे माता-पिता या बड़ों के मन का होता है तब तो हम समझदार और यदि धोखे से कोई ऐसा काम कर दिया जो उनके मन का नहीं होता तो हम नासमझ घोषित हो जाते हैं... और उससे भी बड़ी विडंबना यह कि कहते भी हैं कि, "भई, हमने तो तुम्हे पूरी आज़ादी दी कि तुम अपने मन से अपने काम करो और अपनी मर्जी से फैसले लो" या फ़िर, "हमने तुम आर कभी अपनी कोई मर्जी नहीं थोपी"... अरे! ये क्या बात हुई? एक तरफ तो आप कहते हैं कि आपको हमारा फैसला रास नहीं आया और दूसरी तरफ आप ही कहते हैं कि आप हम पर अपनी मर्जी नहीं थोपना चाहते... आख़िर हमारे लिए आपकी ख़ुशी सबसे ज़्यादा मायने रखती है, या फ़िर हम आपकी फिक्र करना छोड़ दें, पर ऐसा चाह कर भी नहीं क्र सकते... तो करें तो क्या करें?
हाँ, एक बात और, ऐसा लगता है कि वो जानबूज कर नहीं करते, ये हमारे समाज की मनोवैज्ञानिक समस्या है... हो सकता है कि कल को मै भी इसी समस्या से ग्रसित रहूँ, और मुझसे छोटे सोचें कि, वो ऐसा क्या करें कि हमेश ही मेरी नज़रों में वो समझदार रहें... आख़िर हर छोटा यही तो चाहता है कि उसके माता-पिता या बड़े उसे हमेशा ही समझदार माने... परन्तु, मेरी तरफ से मेरी पूरी-पूरी कोशिश रहेगी कि मैन अपने फैसले दूसरों पर न थोपूँ... चाहे छोटा हो या बड़ा... समझदार हो या नासमझ... ;-)
समझ समझ के समझ को समझें इसी मे समझदारी है। आपकी ये "समझ" की रचना एक तरह से न्यारी है। सुन्दर!
ReplyDeleteThank you so much Sooryakaant jee
ReplyDelete...और जो ये समझता है कि समझना क्या है, उसकी समझदार होने की गुंजाइश ज्यादा है...
ReplyDelete@rajey ji... यही तो बात है की हम गुंजाइशों में जिए जा रहे हैं...
ReplyDelete