आज इसे झेलिये... पहला रिलीज़...

आज न तो कोई कविता न ही कोई लेख...
बल्कि एक गुज़ारिश... 
एक नया पत्ता खेला है...
नया हाँथ आज़माया है...

आपमें से कुछ को परेशान कर चुकी हूँ
कुछ को परेशान करना बाकी था..
कुछ को सुना दिया
कुछ के कान खाना बाकी था...
क्या है न, आज तक सिर्फ दिमाग खाती आयी हूँ सबका...
और बताया भी, की कुछ नया try किया है...
इसीलिए सोचा की अब कान खाऊँ...


पर प्लीज़ बताइयेगा ज़रूर...
की, लगा कैसा???

हाँ...
इसमें ऋषि, प्रतिभा और के.के. का बहुत बड़ा हाँथ है...
इसमी जो कुछ,
मिठास है...
वो सिर्फ ऋषि और प्रतिभा के कारण... 
और सुन्दरता के.के के कारण...
और जी...
Sonore Unison Music का भी...

THANK YOU SO MUCH FRIENDS... :)

टीम के बारे में आप सबकुछ इस विडियो में ही पढ़ लेंगें...

शिकायतों का रिवाज़…

बड़े हमें नहीं समझते, हम छोटों को नहीं समझते...
कोई हमें नहीं समझता, हम किसी और को नहीं समझते...
बड़ी आम बातें हैं, बड़ी आम शिकायतें हैं...
अखिय ये बातें, ये शिकायतें क्यों है???


 बड़े  हमें क्यों नहीं समझते? क्यों वो हमेशा हमें गलत ही समझते हैं? क्यों उन्हें हमारे तरीकों से दिक्कत है? क्यों वो चाहते हैं कि हम हमेशा वो ही करें जो वो चाहते हैं, वैसे ही करें जैसे वो चाहते हैं? छोटों को हमेशा अपने से बड़ों से यही शिकायत होती है. और बड़े, उनके पास भी एक पुलिंदा होता है अपने से छोटों से शिकायतों का. जैसे छोटे हमेशा अपने ही मन की क्यों करते हैं? क्यों उन्हें लगता है कि हम जो कह रहे हैं वो गलत है? क्यों उन्हें हम, हमारे विचार पुराने ज़माने के लगते हैं? उन्हें क्यों लगता है कि सिर्फ उन्हें सबकुछ आता है?  वगैरा-वगैरा… अजीब-अजीब सी शिकायतें, अलग-अलग लोगों से शिकायतें. कहीं माँ-बाप को बच्चों से, कहीं बच्चों को माँ-बाप से और, कभी पति को पत्नी से तो कभी पति को , पत्नी से, कभी सम्बन्धियों से, कहीं रिश्ते से कहीं रिश्तेदारों से, और कभी दोस्तों से कभी दुश्मनों से, कभी नेताओं से कभी पड़ोसियों से… हज़ार शिकायतें, और उनके लाख बहाने।
न जाने कहाँ से आती हैं इतनी शिकायतें? क्यों करते हैं हम शिकायतें? जी, वैसे ये भी एक शिकायत ही है।
यदि सोचा जाए तो असल में शिकायतें हमारे ही दिल-ओ-दिमाग की उपज होती हैं। और सबसे ज्यादा तब जब हमें असंतोष होता है। जब भी हमें किसी की कोई बात या काम हमारे हिसाब से सही नहीं होता, या हम उससे संतुष्ट नहीं होते तभी ये शिकायत पैदा होती है या हमारा कोई काम या बात किसी को पसंद नहीं आती तो उन्हें हमसे शिकायत हो जाती है। पर जब हमें किसी से शिकायत हो तो हमें सामने वाला गलत नजऱ आता है, परन्तु जब किसी और को हमसे शिकायत  होती है तब भी हम सामनेवाले को ही गलत मानते हैं और खुद को सही… है न अजीब-सी बात। बात ये कि हम हमेशा खुद को सही और दूसरे को गलत। शायद ऐसी ही बातें, सोच और धारणा शिकायतों की जन्मदाता हैं। ये भी तो हो सकता है कि हमें किसी से शिकायत किसी गलत-फहमी की वजह से हो और किसी और को हमसे शिकवा हमारे किसी गलत कदम का नतीजा हो।
कितना अच्छा होता यदि हमें किसी से कोई भी शिकायत नहीं होती। किसी को किसी से कोई भी दिक्कत न होती। क्योंकि जब भी कहीं कोई शिकायत होती है तब एक दर्द होता है। कभी उसे जिससे शिकायत की गई हो तो कभी करनेवाले को. बनी बात है जब हम सुनते हैं कि हमारे किसी अपने को हमारी कोई बात अच्छी नहीं लगी तो हमें तकलीफ होती है, ऐसे ही सामनेवाले को भी लगता होगा। हाँ एक और बात होती है, यदि हमसे हमारी शिकायत हमारे सामने, हमारे मुंह पर कर दी जाए तो ठीक भी है, परन्तु जब भी वो किसी और के सामने और हमारे पीठ पीछे के जाए तो बहुत बड़ी गड़बड़ हो जाती है, क्योंकि कभी-कभी वो शिकायत हम तक किसी और ही रूप में पहुँचती है। पर सबसे अच्छा तो तब होता जब न असंतोष होता और न ही इन शिकायतों का बीज पनपता… न गिला न शिकवा… सब हंसते-हंसाते, खिलखिलाते मजे से जिंदगी गुजारते…
तो आज से किसी से कोई गिला-शिकवा-शिकायत मत रखिये, और यदि होती भी है तो जिससे भी शिकायत है उसी से बात करें और उसे जल्द-से-जल्द समाप्त कर दें… 



P.S. ये लेख सुरभ सलोनी में 23 अप्रैल को छपा था. 

हिंदी दिवस... भाषा उपयोग...

आज, 14 सितम्बर... हिंदी दिवस... हर तरफ सिर्फ हिंदी-हिंदी चिल्लाते लोग... इस भाषा का उपयोग करने के लिए ज़ोर-शोर से लगे हैं... बहुत अच्छा लगता है ये सब देखकर... सच है हम हिन्दुस्तानी कहलाए जाते हैं, और हिंदी हमारी भाषा है, उसका सम्मान करना चाहिए, उसका उपयोग करना चाहिए... सारी बातें एकदम सत्य एवं यदि हम ही इन बातों को न करेंगें तो कौन करेगा???
कल रात, या कह लीजिये की 12 .00 बजे, जैसे ही 14th लगी... वैसे ही हिंदी-दिवस ने अचानक से ज़ोर पकड़ा... फेसबुक पे बधाइयों का सिलसिला चल निकला... विश्व दीपक जी ने शुरुआत की... उनकी पंक्तियाँ कुछ यूं थीं...
"चलो आज आगे बढ़कर सभ्यता के माथे बिंदी दें,
संस्कृति का पुनुरुत्थान करें, भाषा को उसकी हिंदी दें... "
बस इसी सिलसिले को आगे बढ़ाते हुए मैंने भी एक छोटी-सी कोशिश की...
"अब हिंद को हिंदी का उत्थान चाहिए
हर युग की तरह, एक पूर्ण स्थान चाहिए
जो लोग अछूते हैं इस मिठास से, अभी भी
उन्हें इतिहास का ज़रा-सा ज्ञान चाहिए... "

हिंदी-दिवस पे कई पोस्ट पढ़ें, और हिंदी-उत्थान के लिए हमेशा पढ़ती भी रहती हूँ... भाषा को लेकर हमेशा कुछ-न-कुछ लिखा जाता रहता है... जरूरी भी है... परन्तु जो बात मुझे खलती है वो ये की, एक भाषा के उपयोग को बढ़ावा देने के लिए हम दूसरी भाषाओँ को गलत ठहराते हैं... खासतौर पे इंग्लिश को, उसे ही ये दोष दिया जाता है की उसके उपयोग के कारण हम हिंदी को भूलते जा रहे हैं...
बातें एक हद तक सही भी हैं, परन्तु इसमें गलती किसकी है... पोरा सिस्टम ही ऐसा है हमारा, तो क्या करियेगा??? और कई चीज़ें हैं इस सिस्टम में जो बदली भी नहीं जा सकती... और जो बात अखरती है वो "अपमान करना"... किसी भाषा या व्यक्ति या सभ्यता का अपमान करना कोई बहुत अच्छी बात तो नहीं, और ये हमें कभी सिखाया भी नहीं गया, की खुद को सही बताने के लिए हम दूसरों को गलत ठहराएं या दूसरों का अपमान करें... अब यदि मैं करेले की सब्जी नहीं खाती या हमारे घर में कोई उसे पसंद नहीं करता इसका मतलब ये तो नहीं की करेला एक बेकार सब्जी है... इसी तरह यदि हम हिंदी का उपयोग करते हैं, और दुसरे किसी और भाषा का, तो इसका मतलब ये नहीं की वो भाषा ख़राब है... 
खैर!!! ये बातें हटाते हैं, कुछ सिस्टम की बात करते हैं... सब चाहते हैं की उनके बच्चे, भाई-बहन किसी बहुत अच्छे संस्थान में पढ़ें, उच्च शिक्षा ग्रहण करें, एक बहुत ही उच्च पद के अधिकारी हों... इस सबके लिए हमें एक कड़े परिक्षा-प्रक्रिया से गुज़ारना पड़ता है... जिसमें सबसे पहले एक प्रश्न-पत्र हल करना पड़ता है, और फिर साक्षात्कार की प्रक्रिया... अब यदि हम technical-studies की बात करें तो, वो पढाई ही पूरी-की-पूरी इंग्लिश में होती है, तो क्या हम पढाई छोड़ दें??? फिर आती हैं जॉब की बारी, तो technical-studies के बाद आपसे उम्मीद की जाती की आप इंग्लिश में ही बात करेंगें, न भी करें तो कोई दिक्कत वाली बात नहीं है... और हमारे देश की सबसे अच्छी सर्विसेस मानी जातीं हैं "पब्लिक सर्विसेस" {I.A.S.,I.P.S.,I.P.S,I.F.S.,I.Fo.S.,I.E.S., etc.} और इनके लिए तो आपको भाषा ज्ञान बहुत ही जरूरी है, फिर चाहे वो हिंदी हो, इंग्लिश हो या फिर आपकी क्षेत्रीय भाषा... परन्तु मुझे उसमें भी दिक्कत नहीं है... ये तो सभी जानते हैं... मेरा मेन प्रोब्लम है की हम किसी को गलत क्यों बोंले???
भारत एक बहुभाषी राष्ट्र है, हर भाषा को उतना ही सम्मान, उतना ही आदर जितना किसी दूसरी भाषा को... हर कदम में जहाँ पानी और भाषा बदलती हैं वो हमारा राष्ट्र है... अब उदाहरण के लिए, हमारी क्षेत्रीय भाषा "बघेली" है, परन्तु उसे भी लोगों ने मोडिफाई कर लिया... बघेली खासतौर पे विन्ध्य-क्षेत्र में बोली जाती है, जिसमें रीवा-सीधी-सिंगरौली-सतना-शहडोल शामिल हैं... यहाँ सभी जगह बघेली बोली जाती है, परन्तु हर जगह के हिसाब से उसमें मोडिफिकेशन है जैसे रीवा और सतना सिर्फ 52 km की दूरी पर है, भाषा कहने को बघेली ही है परन्तु लहज़ा और कुछ शब्दों का उपयोग बिलकुल अलग है... तो जहाँ इतनी सी दूरी में भी ऐसी भिन्नता पाई जाए, वहां आप कैसे कह सकते हैं की हर कोई एक भाषा का उपयोग कर रहा है... जी लिखने में बेशक सब एक जैसी ही हिंदी का उपयोग कर रहे हैं... और यदि बात क्षेत्र की हो तो केरल जैसी जगह में हम क्या करेंगे, क्योंकि वहां के तो कल्चर में ही इंग्लिश है... वो यदि अपने भगवान् को भी याद करते हैं तो इंग्लिश में ही करते हैं...
मेरी सोच मुझे एक बात और सोचने के लिए मजबूर कर देती है... जहाँ इतने लोग, इतनी भाषाएँ, इतनी भिन्नता पाई जाए वह यदि एक मंच ऐसा हो जहाँ हम सब एक-दुसरे से जुड़ें, अपनी भिन्नताओं को छोड़ सब एक जैसे ही हो जाएं तो क्या वो गलत है... क्योंकि मेरी नज़र में वो सारी बातें जो भेद-भावना को बढ़ावा दें या भेदभाव करें वो गलत हैं...  और हमें तो हमेशा ही मिलजुल के रहना सिखाया गया है... और यदि हिंदी को बढ़ावा देना है तो प्लीज़ उसके लिए किसी और भाषा का अपमान न करें...

एक बात और, मेरा मानना ये भी है की भाषा कोई भी हो, बस इतनी सरल हो की हर किसी के समझ में आ जाए... शब्द इतने क्लिष्ट न हो की हर शब्द के साथ शब्द-कोष खोलना पड़े... की पता चला, कुछ दिन तो ठीक परन्तु उसके बाद लोग हमें पढना और फिर हमसे बात करना भी छोड़ दें... इसीलिए बातें सरल भाषा में हों तो ज्यादा आसानी होती है... वरना litrature की कमी कम-से-कम हमारे देश में तो नहीं ही है...


P.S. कृपया मेरी इस पोस्ट को ये न समझा जाए की मेन इंग्लिश की पैरवी कर रही हूँ... मुझे कुछ बातें अखरी और मुझे लगा की आज सबसे अच्छा दिन है अपनी इस बात को आप सबके समक्ष रखने का...

मेरे शब्दों कि रूह... अनकहे अलफ़ाज़

यूँ ही एक बात कही थी
तुमने कल
बातों ही बातों में...
कुछ दबे भाव थे
उनमें... जो शब्द सीचें थे
लेकर हाँथ मेरा अपने हाथों में...
न जाने क्या था उन छिपी छिपी सी बातों में
बहुत था फर्क बड़ा...
लफ़्ज़ों और ज़ज्बातों में
पर कुछ तो था
जो कहना चाहते थे तुम...
या चाहते थे समझाना मुझे...
कुछ भी कहे बिना...
जानते हो न कि समझ जाउंगी उन धडकनों को मैं...
और समझूँ भी क्यों न...
मैं ही तो हूँ वहां...
पर इस बार ज़रा-सा फेर है
या समझ में हो रही देर है
तुम जो कहते हो मैं सुन नहीं पाती
और इसीलिए शायद कुछ कह नहीं पाती
क्योंकि
मेरे शब्दों कि रूह तो तुम्हारे अनकहे अलफ़ाज़ ही है न...
और शिकायत तुम्हारी कि "मैं कुछ कहती नहीं"...  

माना कि ये मेरा बचपना है...

अपनी हर अच्छी-बुरी, ख़राब-नायब बात लेकर यहाँ आ जाती हूँ... इसीलिए आज भी आ गई... 
सब कहते हैं कि अभी भी मुझमें बचपना है...
जब tiger ख़तम हुआ तब मैं छोटी थी तो मान लिया, कि रोना जायज़ था... kity के ख़तम होने में भी सभी ने मान लिया क्योंकि उसे मेरी best-friend {शिखा} ने gift किया था... पर जब tony ख़तम हुआ तब जरूर सभी ने ज़रा-सा कहा... पर सिर्फ ज़रा-सा... क्योंकि उसे भी शिखा ने ही गिफ्ट किया था... पर अब... अब जब वो गई... और मेरा उदास चेहरा सबने देखा तो कुछ मुझे समझाने लगे और कुछ ने मज़ाक भी उड़ाया कि "अभी भी बच्ची है... बड़ी हो जा... तुझे और दिला देंगें... अब तो खुद ही खरीद सकती है..." और भी न जाने कितनी बातें और कितने तरह की बातें... यहाँ तक कि ये भी कहा कि चिंता मत करो, तुम्हारी शादी में तुम्हें कुछ और नहीं देंगे, वही गिफ्ट कर देंगें"...
माना कि मैं खुद भी खरीद सकती हूँ, या कोई नई और भी ज्यादा अच्छी आ जायेगी, पर क्या वो सारी यादें आयेंगीं जो उसके साथ जुडी हैं... कहते हैं teen-age सबसे ख़ास और बड़ी ही अजीब age होती है... उसमें सब-कुछ अच्छा ही लगता है, और मेरी उस उम्र की सबसे ख़ास और करीबी वही तो थी... मेरे सारे राज़, घूमना-फिरना, बदमाशियां-शैतानियाँ... all-in-all सबकुछ वो जानती थी... यहाँ तक कि मेरे कई ख्वाब जो मैंने कभी किसी के साथ नहीं share किये वो भी उसे पता थे...
अरे sorry sorry ... पूरी राम-कथा पढ़ दी मगर वो है कौन ये तो बताया ही नहीं... वो है मेरी प्यारी-सी kinetic honda... zx... white colour... MP20 JA 7513... मेरे सारे दोस्त उसे मेरी उड़न-खटोला कहते थे... मेरे भाई का नाम भी लिखा था उसमें... PRINCE
sorry... है नहीं थी... :(
कहीं उसकी एक फोटोग्राफ भी है... मिली तो पोस्ट जरूर करूंगी...
सच ऐसा लग रहा है जैसे ज़िंदगी का एक हिस्सा चला गया...  :(
पता है... आप लोग भी पढ़ कर यही कहेंगें कि ये मेरा बचपना है...
मेरी और मेरे भाई की दोस्ती बढ़ने में भी उसने बहुत मदद की... हमारे घूमने का राज़ भी वही जानती थी... कई गोल और गोल-गप्पे की कहानियाँ, ice-cream, पेस्ट्री, और भी न जाने क्या-क्या... सब जानती थी वो...
और जबलपुर की सड़कों में कहाँ कितने चक्कर मारे हैं... सदर, गोरखपुर, जलपरी से लेकर घंटाघर, कमनीय गेट तक की सड़कें नापी हैं मैंने उससे... उसने सबसे ज्यादा साथ निभाया था जब हम जबलपुर में ही थे, मम्मी को अटैक आया था, और तभी पापा का ट्रान्सफर हो गया था... और सरकारी नौकरी की हालत तो बस... यदी आपकी जगह में आनेवाला अधिकारी अच्छा है तब तो ठीक वर्ना फ़िर न तो वो खुद support करता है और न ही किसी को करने देता है... तभी शैली; मेरी छोटी बहन, अरे हाँ कल {8 सितम्बर} उसका जन्मदिन भी है,; उसे स्कूल ले जाना-ले आना पड़ता था... भाई के लिए बस थी... उसने बहुत support किया था... और उसी समय था जब मुझे अपने दोस्तों की पहचान हुई थी... और एक बात, उस समय मेरी प्रिंसिपल "प्रकाशम मैडम" मेरे teachers ने बहुत support किया था... सब कहते थे, तुम मम्मी को देख लो, यहाँ कि चिंता मत करो... ये सब मेरे 10th क्लास की बात है... स्कूल से पूरी permission थी, क्योंकि CBSE बोर्ड था तो टेस्ट वगैरा की झंझट नहीं थी... और ये भी था कि मैं कभी भी झूठ नहीं बोलती थी अपने teachers से... और वो सब मुझपे भरोसा भी करते करते और मानते बहुत थे...  Thank you so much all... :)
पर सच उसका जाना बहुत अखरा... जब तक नहीं गई थी, तब एक उम्मीद थी, पर कहते हैं न कि कभी किसी से कोई उम्मीद मत करो वर्ना तकलीफ होती है...जब वो जा रही थी तब मैं उसे जाते भी नहीं देख पाई... अन्दर आके अपने रूम में जाकर खूब रोई... लगा कि जाऊं, जो ले गए हैं उनके सामने विनती करके उनसे मांग लूं... पर फ़िर लगा कि नहीं, पापा लोगों ने उन्हें दे दी है... उनकी बात का मान ज्यादा है... इसीलिए ये भी नहीं कर पाई... शायद इस बात का भी दुःख उस दुःख को बढ़ा रहा था कि पहली बार मैं उसके लिए कुछ नहीं कर पाई...
MISS YOU SO MUCH DARLING... :(