मुझे भी अजनबी सा लग रहा है मेरा ये घर...

मैं अपने घर में ही अजनबी हो गया हूँ आकर
मुझे यहाँ देखकर, मेरी रूह  डर गयी है
सहम के आरज़ुएँ कोनों में जा छुपी हैं
लवें बुझा दी हैं अपनी चेहरों की हसरतों ने
मुरादें दहलीज़ ही सर रखके मर गयी हैं

मैं किस वतन की तलाश में यूं चला था से
कि अपने घर में भी अजनबी हो गया हूँ आकर 


ये  कविता मेरी नहीं है... कई जानने वाले लोग जानते भी होंगें कि ये गुलज़ार जी की कविता है अजनबी
बहुत दिनों से ब्लॉग जगत में वापस आने का मन हो रहा था, पर रास्ता नहीं मिल रहा था. आज अचानक इस कविता में रास्ता दिखा, ऐसा लगा मानो कोई उंगली पकड़ कर यहाँ तक पहुँचा गया हो. पर जाने क्यों सब कुछ बहुत अजीब सा लग रहा है. ऐसा, जैसे किसी अनजान शहर में पहुँच गई हूँ. लगता ही नहीं जैसे यहाँ बहुत वक़्त गुज़ारा है. रह-रहकर एक गाने कि कुछ lines याद आ रहीं हैं 

गाना था,-------                          आईना मुझसे मेरी पहली सी सूरत माँगे... 

और उसकी lines हैं,-------        आज लौट हूँ तो हँसने की अदा भूल गया,
                                                 ये शहर भूला मुझे मैं भी इसे भूल गया...  

पर कहते हैं न कि उम्मीद पे दुनिया कायम, तो आज मैं भी उम्मीद का हाँथ थामा है, देखतें हैं कितने कदम चलते हैं  साथ में...
आज के लिए इतना ही... बाकी देखते  मिलते हैं... 

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