ज़िन्दगी... सवालों-ज़वाबों के बीच...
सवाल इतने , कि ज़वाब कम पड़ गए
विचार इतने, कि आपस में ही लड़ गए
सोचते -सोचते अब तो दिमाग को भी थकान-सी महसूस होने लगी
उसपर भी...
वक़्त इतना कम कि घड़ी के कांटे भी एक-दूसरे से भिड गए...
लोंगो को देखा हमेशा दौड़ते-भागते
न जाने क्या पा लेने की होड़ में हैं
न किसी को चैन है और न ही आराम
सभी सिर्फ आगे आने की जोड़-तोड़ में हैं...
क्या खो दिया इस सफ़र में, ग़म नहीं किसी को इसका
बस ख़ुशी है कि एक पायदान ऊपर चढ़ गए...
सवाल इतने...
चेहरे पर हंसी तो है, पर त्योरियां तो भी चढ़ी हैं
न जाने कितने बगुलों कि आँख, सिर्फ एक ही मछली पर अड़ी हैं...
ऐसी जीत की ख़ुशी या जश्न मनाएं भी तो कैसे???
जिसके लिए,
हम अपनों को पीछे छोड़ आगे बढ़ गए...
सवाल इतने...
बस बहुत हुआ आपस में लड़ना
फिक्र में सोना, बेचैनी में उठना
झूठी हँसी हँसकर, नाटकीय ज़िन्दगी जीना
और, समझौतों के घूँट भरे पीना...
कहते हैं, "जब जागो तभी सवेरा..."
कभी-न-कभी दूर होगा ये अँधेरा
दिखाई देगी आत्म-संतोष की रौशनी
और हम मुस्कुराते हुए कहेंगे खुइड से...
"आज हम ज़िन्दगी की जंग जीत गए..."
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